सरकार पर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी नहीं मीडिया के लिए बीजेपी की जीत अहम जबकि सीटें घटीं!

संजय कुमार सिंह संजय कुमार सिंह
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भाजपा त्रिपुरा की जीत को बड़ा और ऐतिहासिक बता रही है – द टेलीग्राफ में जेपी यादव ने इस शीर्षक से प्रकाशित अपनी टिप्पणी में लिखा है, “भाजपा ने त्रिपुरा में अपनी जीत कायम रखी है। हालांकि, बड़े पैमाने पर अंतर कम हुआ है और 60 में से केवल 33 सीटों का साधारण बहुमत है और यह तीन पूर्वोत्तर राज्यों के चुनाव परिणामों की सबसे खास बात है।” इसके साथ खास बात यह भी है कि इसके लिए भाजपा ने पूरा जोर लगाया था। प्रधानसेवक बोले तो मुख्य प्रचारक ने कम श्रम नहीं किया और बाकी पार्टी के चाणक्य आदि तो लगे ही हुए थे। दूसरी ओर, उत्तर पूर्व में कांग्रेस का प्रदर्शन बेहतर हुआ है जबकि उसपर आरोप है कि वह ध्यान ही नहीं दे रही है। चुनाव जीतने के लिए कुछ कर ही नहीं रही है। 

कांग्रेस नेता पी चिदंबरम 2014 में भाजपा की सरकार बनने के बाद से इंडियन एक्सप्रेस में ‘अक्रॉस दि आइल’ नाम से एक कॉलम लिखते हैं (उनके जेल में रहने के दौरान ही बंद रहा) और यह जनसत्ता में ‘दूसरी नजर’ नाम से छपता है। इस बार के बजट पर चिदंबरम ने अपनी टिप्पणी तीन किस्तों में यानी तीन हफ्ते लिखी। पिछले साल के बजट पर उनकी टिप्पणी को मैंने सबसे घटिया बजट का सबसे बढ़िया पोस्टमार्टम कहा था और इसका शीर्षक था, काम न कल्याण, सिर्फ दौलत। इस पर मेरे एक मित्र की टिप्पणी थी, “बीजेपी बजट के फायदे गिनवाने के लिए तहसील स्तर पर कार्यक्रम कर रही है और कांग्रेस अंग्रेजी के अख़बार में कालम लिख कर अपना फर्ज़ अदा कर रही है और फोर सोचते हाँ बीजेपी को हरा देगी।” 

इसके बावजूद उत्तर पूर्व में अगर उसकी स्थिति बेहतर हो रही है तो निश्चित रूप से यह भाजपा की हार या कमजोरी है। इसमें कांग्रेस का कोई श्रम नहीं है पिछले कार्यों या नेतृत्व का श्रेय भले हो। नरेन्द्र मोदी अगर इसे स्वीकार करेंगे तो वंशवाद का समर्थन कह सकते हैं। इस पृष्ठभूमि में आज के अखबारों का पहला पन्ना गोदी मीडिया के पतन की दास्तान कह रहा है। जीत के बावजूद उत्तर पूर्व में भाजपा की लोकप्रियता कम होने और बिना परिश्रम कांग्रेस का खाता खुल जाने के अलावा कल सुप्रीम कोर्ट के दो आदेश सरकार के खिलाफ और उसके काम पर प्रतिकूल टिप्पणी हैं और सरकार विरोधी लोग इसे बड़ी कामयाबी या बदलाव के रूप में देख रहे हैं लेकिन अखबारों में भाजपा के दावे को ही प्रमुखता मिली है और सुप्रीम कोर्ट के दोनों ऐतिहासिक फैसलों को अपेक्षाकृत कम महत्व दिया गया है। 

टाइम्स ऑफ इंडिया में यह पहले पन्ने से पहले के अधपन्ने पर लीड है जबकि हिन्दुस्तान टाइम्स में अडानी मामले पर विशेषज्ञों के पैनल की खबर तीन कॉलम में पहले पन्ने से पहले के अदपन्ने पर है (लीड नहीं)। यहा यूक्रेन की खबर लीड है। यहां पहले पन्ने पर उत्तर पूर्व की खबर तीन कॉलम में लीड है जबकि सीईसी की नियुक्ति से संबंधित खबर इसके बराबर में पांच कॉलम में है। शीर्षक के फौन्ट लीड से बड़े पर हल्के हैं। इसके साथ ही बताया गया है कि यह आदेश दशकों से लंबित था और पूर्व चुनाव आयुक्तों तथा विपक्षी दलों ने इस फैसले का स्वागत किया है। जो नहीं बताया गया है उसकी चर्चा आगे है। उससे पहले बता दूं कि उत्तर पूर्व की खबर द हिन्दू में भी लीड है और शीर्षक में बताया गया है कि मेघालय में त्रिशंकु विधानसभा बनी है। 

द हिन्दू में मुख्य चुनाव आयुक्त वाली खबर सिंगल कॉलम में है। अडानी समूह के शेयरों में गिरावट की जांच से संबंधित सुप्रीम कोर्ट के आदेश की खबर अलग, अंदर के पन्ने पर होने की सूचना पहले पन्ने पर है। कुल मिलाकर, दिल्ली के अखबारों में उत्तर पूर्व में भाजपा की जीत को महत्व दिया गया है जबकि जीत का अंतर कम हुआ है और इसका कारण आप यह मान सकते हैं कि भाजपा ऐसा चाहती है या ऐसा दावा किया है। दूसरी ओर, भाजपा से संबंधित सुप्रीम कोर्ट  के आदेश को दिल्ली के अखबारों में तुलनात्मक रूप से कम महत्व मिला है जबकि वह भाजपा के काम पर टिप्पणी भी है। अडानी मामले में हिन्डनबर्ग की रिपोर्ट के बाद कोई महीने भर सरकार ने लगभग कुछ नहीं किया। 

प्रचारकों ने हिन्डनबर्ग की ही साख खराब करने की कोशिश की और लंबे समय तक शेयरों के भाव गिरने के बाद फिर सुधरने भी लगे थे। कहने की जरूरत नहीं है कि इसके लिए तमाम उपाय किए गए जो आम तौर पर किए जाते हैं और सरकारी एजेंसियों ने लगभग छोड़ दिया था। संसद में भारी मांग होने और राहुल गांधी के बहुत सामान्य से पांच सवालों 1. अडानी के साथ आप विदेश यात्रा पर कितनी बार गये हैं। 2. कितनी बार अडानी आपसे यात्रा में बाद में मिले। 3. आपकी यात्रा के तुरंत बाद अडानी ने उसी देश की यात्रा कितनी बार की 4. और इन देशों में से कितने में आपकी यात्रा के बाद अडानी को ठेके मिले और 5. पिछले 20 वर्षों में अडानी ने भाजपा को कितने पैसे दिये हैं के जवाब नहीं दिये गए आरोपों को रिकार्ड से निकलवा दिया गया। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट का आदेश दिल्ली में दिल्ली के पाठकों के लिए उत्तर पूर्व की जीत के मुकाबले ज्यादा महत्वपूर्ण है लेकिन अखबारो ने भाजपा की जीत को ही महत्व दिया है। 

वैसे, आज यह बताने का दिन था कि चुनाव आयुक्त की नियुक्ति के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने भले आदेश दिए हैं पर सीबीआई के निदेशक की नियुक्ति के मामले में सरकार सुप्रीम कोर्ट के आदेश को बेअसर कर चुकी है। 1997 में जैन हवाला कांड के समय विनीत नारायण की याचिका पर कार्रवाई के संदर्भ में सीबीआई के निदेशक की नियुक्ति के संबंध में सुप्रीम कोर्ट का निर्देश था जिसे आधी रात की कार्रवाई में सरकार ने बेअसर कर दिया था। उस समय भी प्रधानमंत्री के साथ सुप्रीम कोर्ट के प्रतिनिधि और विपक्ष के नेता के निर्णय़ से फैसला होना था और सुप्रीम कोर्ट के जज का फैसला निर्णायक था। सुप्रीम कोर्ट के जज ने प्रधानमंत्री के समर्थन में फैसला दिया था और विपक्ष के नेता के विरोध के बावजूद कार्रवाई हुई। सुप्रीम कोर्ट ने इसे बाद में भले खारिज कर दिया था लेकिन सरकार ने अपना काम तो कर लिया औऱ कामयाब रही। तब यह चर्चा भी थी कि सुप्रीम कोर्ट के जज न्यायमूर्ति सीकरी को ईनाम दिया गया था जिसे उन्होंने लेने से इनकार कर दिया। 

यही नहीं, सुप्रीम कोर्ट ने दो साल का कार्यकाल तय किया था तो बिना अनुमति उससे छेड़छाड़ नहीं की जानी चाहिए थी पर ऐसा नहीं हुआ। बाद में नियुक्ति के आदेश में कार्यकाल तो दो साल बताया गया लेकिन अंग्रेजी में ‘ऑर टिल फर्दर ऑर्डर्स’ जोड़ दिया गया। इसका मतलब हुआ कि कार्यकाल दो साल या अगले आदेश तक है। इस तरह दो साल के कार्यकाल का आदेश तो बेअसर हो ही गया और सरकार ने चाभी अपने हाथ में ले ही ली थी। बाद मे एक अध्यादेश के जरिए इस अवधि को बढ़ाकर पांच साल कर दिया गया है। कहने की जरूरत नहीं है कि दो साल के कार्यकाल में काम करने की जो स्वतंत्रता व्यक्ति महसूस करेगा वह पांच साल तक अपना कार्यकाल बनाए रखने की मजबूरी में नहीं कर सकता है। जो भी हो, सरकार ने अध्यादेश निकालकर सुप्रीम कोर्ट के आदेश को बदल दिया है। ऐसे में मुझे लगता है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश को बेअसर करने का उपाय सरकार के पास है। 

इसे रोकना जरूरी है कि नहीं, कितना जरूरी है और क्या किया जाना चाहिए यह तो सुप्रीम कोर्ट को देखना है। इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट के पास अवमानना कानून का अधिकार है पर पिछले दिनों उपराष्ट्रपति और कानून मंत्री ने जो विवाद चलाया उसमें इसका  उपयोग नहीं हुआ तो आगे होगा कि नहीं यह देखने वाली बात है। इसलिए मुझे नहीं लगता है कि सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले से सरकार मान जाएगी या कोई रास्ता नहीं निकालेगी। हालांकि इसके बिना टीएन शेषन का कार्यकाल याद किया जाता है और महत्वपूर्ण यह है कि नियुक्त किया जाने वाला व्यक्ति कौन है, कैसे काम करता है। इसपर फिर कभी। 

  

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं।