जज लोया की मौत की जाँच से ‘सुप्रीम’ इंकार और जजों पर दबाव, इस्तीफ़े और बरख़ास्तगी के क़िस्से!

डॉ. पंकज श्रीवास्तव डॉ. पंकज श्रीवास्तव
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सुप्रीम कोर्ट ने आज जज बृजगोपाल लोया की मौत को प्राकृतिक मानते हुए इसकी एसआईटी जाँच की माँग करने वाली जनहित याचिका को ख़ारिज कर दिया। इतना ही नहीं, उसने यह भी कहा कि ऐसी याचिकाएँ आपराधिक अवमानना के समान हैं। अदालत का यह कड़ा रुख़ कई सवाल खड़ा करता है। बहरहाल, सुप्रीमकोर्ट के फ़ैसले के पीछे नीयत का सवाल न उठाते हुए भी कुछ विनम्र निवेदन तो किए ही जा सकते हैं।

12 जून 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी को जन प्रतिनिधत्व क़ानून के उल्लंघन का दोषी पाते हुए 1971 में रायबरेली से उनका चुनाव रद्द कर दिया था। साथ ही अगले छह साल तक उनके चुनाव लड़ने पर भी रोक लगा दी। इंदिरा गाँधी का मुख्य अपराध यह साबित हुआ था कि उनका इलेक्शन एजेंट बनने के पहले यशपाल कपूर सरकारी नौकरी से पूरी तरह अलग नहीं हुए थे। यही सबसे बड़ा भ्रष्टाचार था।

इंदिरा गाँधी बांग्लादेश बनवाकर दुर्गा बन चुकी थीं, उसके पहले उन्होंने कांग्रेस के सिंडीकेट को पूरी तरह किनारे लगा दिया था। 1971 के चुनाव में कांग्रेस के उनके घटक आईएनसी (आर) को अकेले 352 सीटें मिली थीं। कुल वोटों का 43.68 फ़ीसदी। देश, इंदिरा नाम का दीवाना था। वे सही मायने में ‘आयरन लेडी’ के रूप में स्थापित हो चुकी थीं।

लेकिन जगमोहन लाल सिन्हा ने इन सबसे अप्रभावित रहते हुए निर्भय होकर फ़ैसला सुनाया। इंदिरा गाँधी ने फ़ैसले को उलटने के लिए इमरजेंसी लगाने की ग़लती की। लोकतंत्र पर इस चोट की ऐसी प्रतक्रिया हुई कि दुर्गा कही जाने वाली इंदिरा 1977 में चुनाव हार गई। ख़ैर, वे पश्चाताप मोड मं गईं और 1980 में उन्होंने वापसी की। लेकिन जज जगमोहन लाल सिन्हा की सेहत पर इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा। न उन्हें जनता पार्टी सरकार ने ही किसी इनाम से नवाज़ा और न इंदिरा गाँधी ने ही कोई तक़लीफ़ दी। 20 मार्च 2008 को 88 साल की उम्र में उन्होंने दुनिया से विदा ली।

लोकतंत्र के लिए ज़रूरी है कि कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के बीच संतुलन हो। सबकी मर्यादाएँ स्पष्ट हैं। कुछ विसंगतियों के बावजूद इस मर्यादा को बनाए रखने का प्रयास हमेशा किया गया।  इमरजेंसी लगाने वालों को जनता ने सज़ा दी और उन्होंने माफ़ी माँगी। धीरे-धीरे ये मान लिया गया कि भारत की लोकतांत्रिक और संवैधानिक संस्थाओं की बुनियाद अब इतनी मज़बूत हो चुकी है कि उन्हें कोई हिला नहीं पाएगा। सर्वोच्च न्यायालय भी फ़ैसला कर चुका है कि संविधान के बुनियादी स्वरूप को बदला नहीं जा सकता।

लेकिन,यह मोदी युग है। संविधान और इतिहास को बदलने की माँग खुलेआम हो रही है। तमाम परंपराएँ तोड़ी जा रही हैं और संस्थाएँ बेमानी बना दी गई हैं। पहली बार केंद्र में बहुमत पाने वाली बीजेपी के महानायक नरेंद्र मोदी ने ऐसा ‘विकास’ किया कि सुप्रीमकोर्ट के चार मौजूदा जजों को निकलकर कहना पड़ा कि लोकतंत्र ख़तरे में है। 20 साल बाद अपनी चुप्पी पर अफ़सोस न हो, इसलिए बोल रहे हैं। दूसरी तरफ़ निचली अदालतों के कुछ जजों ने नौकरी से इस्तीफ़ा दिया। कुछ की संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हुई और कुछ अपनी जान की गुहार लगा रहे हैं, वह भी सीधे-सीधे सत्ता की ओर इशारा करते हुए। यह दृश्य मोदी सरकार के चार साल पूरे होने पर है। आरोप है कि न्यायपालिका को प्रभावित करने की कोशिश ऊँचे स्तर पर हो रही है। इस संबंध में ज़्यादा लिखने का मतलब मानहानि से लेकर और न जाने क्या-क्या हो सकता है। इसलिए सीधे-सीधे कुछ तथ्य रख देना ही बेहतर है।

सबसे ताज़ा मामला जज रवींद्र रेड्डी का है। 16 अप्रैल को स्पेशल एनआईए जज रवींद्र रेड्डी ने मक्का मस्जिद विस्फोट में आरोपित स्वामी असीमानंद समेत सभी 5 आरोपियों को बरी कर दिया। लेकिन कुछ ही देर बाद उन्होंने निजी कारण बताते हुए इस्तीफ़ा भी दे दिया। इसी के साथ “हिंदू आतंकवाद” को लेकर पलटवार शुरू हो गया। बीजेपी नेताओं की ओर से कांग्रेस पर हमला बोलते हुए कहा गया कि हिंदुओं को बदनाम करने के लिए यह केस गढ़ा गया था। ज़ाहिर है, असमीनांद और उसके साथियों के बरी होने का सीधा रिश्ता इस देश की शीर्ष राजनीति से था।

तो राजनीति सफल हुई और यह सवाल नेपथ्य में चला गया कि आख़िर कौन लोग थे जिन्होंने हैदराबाद में 18 मई 2007 को जुमे की नमाज के दौरान मक्का मस्जिद में विस्‍फोट करके नौ लोगों की जान ली थी।  58 घायल लोगों की पीड़ा का ज़िम्मेदार कौन था? इस मामल में असीमानंद ने मजिस्ट्रेट के सामने अपना जुर्म कुबूल किया था, लेकिन बाद में पलट गया। यही नहीं, तमाम गवाह भी पलट गए और एनआईए की ओर से नियुक्त वकील पुराने एबीवीपी कार्यकर्ता निकले। जज रवींद्र रेड्डी ने आरोपितों को छोड़ते हुए अगर कहा कि उनके ख़िलाफ़ आरोप प्रमाणित नहीं हो सके तो ऐसा होने या करने के पीछे वजह समझना मुश्किल नहीं।  यूँ भी नरेंद्र मोदी ने काफ़ी पहले असीमानंद को आश्वस्त कर दिया था कि वे सब ठीक कर देंगे। इस संबंध में मीडिया विजिल पर अभिषेक श्रीवास्तव की यह शानदार रिपोर्ट आप पढ़ सकते हैं। स्वाभाविक है कि मोदी विरोधी इसमें साज़िश और दबाव देख रहे हैं। जज का यूँ, फ़ैसला सुनाने के तुरंत बाद इस्तीफ़ा देना सामान्य नहीं है।  ख़बर ये भी आई है कि उनके ख़िलाफ़ पिछले दिनों ही एक जाँच शुरु हुई थी।

वैसे, बीजेपी सरकारों और जजों में असहजता का रिश्ता सिलसिला पुराना है। मामला सिर्फ़ केंद्र और सुप्रीम कोर्ट में नियुक्ति को लेकर कॉलेजियम से टकराव का नहीं है। याद कीजिए गुजरात का मोदी राज। अक्टूबर 2002 से मई 2003 तक अहमदाबाद में सिविल और सेशंस कोर्ट में जज रहे हिमांशु त्रिवेदी अब न्यूज़ीलैंड में वक़ालत करते हैं। 2015 में जब बीजेपी सरकार पर सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड को परेशान करने का आरोप लग रहा था तो उन्होंने फ़ेसबुक पोस्ट के ज़रिए बताया था कि कैसे गुजरात की मोदी सरकार ‘मुस्लिम विरोधी’ मानसिकता के तहत काम कर रही थी जिससे दंगा पीड़ितों को न्याय नहीं मिल सका और नैतिक आधार पर उन्होंने इस्तीफा दे दिया था। उनकी फे़ेसबुक पोस्ट का हिंदी अनुवाद नीचे है:

तीस्ता सीतलवाड, सलाम। मैं हमेशा से इन मुद्दों को लेकर आपका, आपके साहस और आपकी बेबाकी का मुरीद रहा हूं। मैंने गुजरात की न्यायपालिका छोड़ दी थी। मैं अहमदाबाद सिटी सिविल और सेशंस कोर्ट में डिस्ट्रिक्ट कैडर का जज था। एक वक्त बाबू बजरंगी और कोडनानी पर फैसला सुनाने वालीं बहादुर जज ज्योत्सना याग्निक का सहकर्मी भी रहा हूं, जिन्होंने अपनी जान को खतरा बताया है। मैं यह भी बताना चाहता हूं कि वे (गुजरात सरकार) चाहते थे कि हमसे (जजों और न्यायपालिका से) अल्पसंख्यकों के खिलाफ काम करवाया जाए (हालांकि कोई लिखित आदेश नहीं दिया गया था, मगर हमें एकदम साफ़ मैसेज दे दिया गया था)। मैं इस काम में शामिल नहीं हो सकता था, क्योंकि मैंने भारत के संविधान के प्रति शपथ ली थी।’

एनआईए को एक सुपरस्पेशलिस्ट एजेंसी के रूप में देखा गया था। यह सीबीआई से आगे की चीज़ थी जो सुप्रीम कोर्ट की नज़र में पिंजरे में बंद तोता है। लेकिन एनआईए ने, ऐसा लगता है कि बीजेपी की राजनीतिक ज़रूरतों के हिसाब से काम करने में विशेषज्ञता हासिल कर ली है। हिमांशु त्रिवेदी को दिया गया ‘साफ़ मैसेज’  एनआईए को भी दे दिया गया। मालेगाँव विस्फ़ोट मामले में एनआईए की वक़ील रोहिणी सालियां ने बहुत साफ़ शब्दों में इसे लोगों के सामने रखकर ख़ुद को अलग कर लिया था।

29 सितम्बर 2008 को महाराष्ट्र में नासिक जिले के मालेगांव में बम ब्लास्ट हुआ था। इसमें 7 लोगों की मौत हो गई थी, करीब 100 लोग जख्मी हुए थे।  ब्लास्ट उस वक्त किए गए थे, जब लोग रमजान के दौरान नमाज पढ़ने जा रहे थे। इन धमाकों के पीछे ‘हिंदू राइट विंग ग्रुप्स’ से जुड़े लोगों का हाथ होने की बात सामने आई थी। सरकारी वकील रोहिणी सालियां ने 2015 में ये आरोप लगाते हुए ख़ुद को अलग कर लिया था कि एनआईए ने उनसे मुक़दमे की गति धीमी करने को कहा है। तब सालियां ने बीबीसी से कहा था, “अब तो यह साफ़ हो गया है कि उनका एजेंडा अलग है. उन्हें मेरी सेवाएं नहीं चाहिए. पूरी सुनवाई में उनके मुताबिक़ कोई भी फ़ैसला नहीं आया. मेरी सेवा उनके लिए सुविधाजनक नहीं है. इस केस की ज़िम्मेदारी मेरे पास है, इसलिए जनता को इस बारे में पता होना चाहिए. उन्होंने बड़े विश्वास से मुझे यह केस सौंपा था. अगर कोई इसमें हस्तक्षेप करता है तो मुझे ठीक नहीं लगेगा. एक सरकारी वकील होने के नाते निष्पक्ष पैरवी की हमारी ज़िम्मेदारी बनती है. इसीलिए यह बात बताकर मैं केस से बाहर आई।”

इस मामले में कर्नल पुरोहित से लेकर साध्वी प्रज्ञा ठाकुर तक ज़मानत पर बाहर आ चुके हैं। मकोका जैसी तमाम गंभीर धाराएँ हट गई हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने जाँच कराने से इंकार कर दिया है, लेकिन सीबीआई की विशेष अदालत के जज बृजगोपाल लोया की मौत को संदिग्ध मानने वालों की कमी नहीं है। वे बीजेपी के वर्तमान अध्यक्ष अमित शाह के मामले की सुनवाई कर रहे थे। अमित शाह को उन्होंने अदालत में पेश होने का निर्देश दिया था। इसका मतलब कि वे कुछ फ़ैसला सुनाने वाले थे। लेकिन 30 नवंबर 20014 को एक शादी में नागपुर गए जज लोया की 1 दिसंबर की सुबह मौत हो गई। वे एक गेस्ट हाउस में ठहरे थे, कहा गया कि उन्हें दिल का दौरा पड़ा और बचाया नही जा सका। इस मामले में कैरवान पत्रिका ने  अब तक 22 सनसनीखे़ज़ कहानियाँ छापीं जिनसे जज लोया की मौत के स्वाभाविक होने पर संदेह उठना स्वाभाविक है।

जज लोया के शव पर चोट के निशान थे। उनके परिवार ने हत्या का शक जताया था। बेटे ने कहा था कि हाईकोर्ट के जज मोहित शाह से परिवार को ख़तरा है। लेकिन बाद में जब मुद्दा गरमाया तो उसने कहा कि उसे अब कोई संदेह नहीं है। इसे दबाव का नतीजा माना गया। जज लोया की मौत के कुछ दिन बाद ही अगले जज ने अमित शाह को तमाम आरोपों से बरी कर दिया गया और वे मोदी की पसंद बतौर बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनकर सक्रिय हो गए। जज लोया के मामले में मीडिया विजिल ने लगातार ख़बरें छापी हैं जिनसे आप पूरा मामला समझ सकते हैं।

याद होगा कि जज लोया की मौत के ख़िलाफ़ वक़ीलों ने सड़क पर उतर कर प्रदर्शन किया। लेकिन सबसे ज़्यादा हिली हुई जज बिरादरी लगती है। कुछ समय पहले, जज लोया के मित्र रहे, मुबई हाईकोर्ट के पूर्व जज और जज लोया के मित्र बी.जी.कोलसे पाटिल ने यह कहकर सनसनी फैला दी थी कि इस मामले में दो और जजों की जान ली जा चुकी है और अब उनका नंबर है। उन्होंने कहा कि वे इस मामले में गवाह हैं और जज लोया की संदिग्ध मौत को देखते हुए उनका ऐसा सोचना लाजिमी है। मुंबई हाईकोर्ट के पूर्व जज का इस तरह कहना तूफ़ान लाने वाला हो सकता था, लेकिन भारतीय मीडिया की मौजूदा स्थिति जैसी है, उसमें यह उम्मीद करना बेमानी है। उसने बड़े करीने से न सिर्फ़ इस ख़बर को, बल्कि कैरवान पत्रिका के तमाम रहस्योद्घाटनों पर भी मिट्टी डालने का काम किया।

जस्टिस कोलसे पाटिल कुछ दिन पहले दिल्ली आए थे। उन्होंने मीडिया विजिल को बताया कि जज लोया ने उनसे कहा था कि “उन्हें सौ करोड़ रुपये देकर ऐसा फ़ैसला देने को कहा जा रहा है, जो उन्हें लिखकर दिया जाएगा। इसे लेकर लोया काफ़ी तनाव में थे। इस मामले की अगर क़ायदे से जाँच नहीं हुई तो सरकार पर बहुत बड़ा दाग़ लगा रहेगा। न्यायपालिका की आज़ादी बेहद ज़रूरी है। ऐसा कैसे हो सकता है कि जजों को धमकाकर अपने मतलब के फ़ैसले कराए जाएँ। ऐसे तो लोकतंत्र ही नष्ट हो जाएगा।” समझा जा सकता है कि जस्टिस पाटिल को सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले से कैसी तक़लीफ़ हुई होगी।

आख़िरी में एक कहानी छत्तीसगढ़ में जज रहे प्रभाकर ग्वाल की भी सुन लीजिए। छत्तीसगढ़ में भी बीजेपी की ही सरकार है। अनुसूचित जाति के जज प्रभाकर ग्वाल ने छत्तीसगढ़ के आदिवासियों को न्याय देने की ठानी थी। उनके तमाम फ़ैसलों से छत्तीसगढ़ सरकार और पुलिस की किरकिरी हो रही थी। माओवाद को लेकर गढ़ी गई तमाम कहानियाँ फ़र्ज़ी साबित हो रही थीं। नतीजा ये हुआ कि 2016 में प्रभाकर ग्वाल को बरख़ास्त कर दिया गया। कहा जाता है कि सरकार में एक चपरासी को भी बिना नोटिस और सुनवाई के बरख़ास्त नहीं किया जा सकता, लेकिन एक जज को बिना कोई कारण बताये बरख़ास्त कर दिया गया। यह अपने आप में इतिहास की पहली घटना है, लेकिन सामान्य ज्ञान को बढ़ावा देने के लिहाज़ से भी दिल्ली के मीडिया ने इस ख़बर में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। प्रभाकर ग्वाल अपनी लड़ाई सुप्रीम कोर्ट तक ले आए हैं, पर अभी तक उन्हें न्याय नहीं मिला है। मीडिया विजिल ने इस संबंध में विस्तार से ख़बर लिखी थी जिसे आप यहाँ पढ़ सकते हैं

पुनश्च: चलते-चलते सितंबर 2017 की उस ख़बर की भी याद कर लीजिए जिसमें कहा गया था कि  इशरत जहां केस की जांच सीबीआई को सौंपने वाले जज जयंत पटेल ने इस्तीफा दे दिया। कहा गया था कि जज जयंत पटेल वरिष्ठता क्रम में ऊपर होने के बावजूद किसी हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस न बनाए जाने से नाराज थे। जज जयंत पटेल कर्नाटक हाईकोर्ट में दूसरे सबसे वरिष्ठ जज के तौर पर काम कर रहे थे। उनका ट्रांसफर इलाहबाद किया जा रहा था जहां वो तीसरे सबसे सीनियर जज होते। कर्नाटक आने से पहले वे गुजरात में कार्यवाहक मुख्य न्याधीश थे।

सुप्रीम कोर्ट को पूरा अधिकार है कि वह जज लोया या तमाम दूसरे मामलों में जाँच न कराए। लेकिन पारदर्शिता की कसौटी पर बात होगी तो इस फ़ैसले पर सवाल उठेगा ही। जहाँ सीता की पवित्रता की मान्यता अग्निपरीक्षा से जुड़ी हो, वहाँ सुप्रीमकोर्ट किसी जज की मौत से जुड़ी पीआईएल को आपराधिक मानहानि जैसी बताकर क्या साबित करना चाहता है, वही तय करे। आख़िर वह सर्वोच्च है।

 

डॉ.पंकज श्रीवास्तव, मीडिया विजिल के संस्थापक संपादक हैं।