अभिषेक श्रीवास्तव
देश भर में पत्रकारों को अपना काम करने देने से रोकने का एक पैटर्न स्पष्ट रूप से उभरकर सामने आ चुका है। आप अगर खोजी पत्रकारिता कर के कोई हकीकत सामने लाते हैं, तो आप पर मुकदमा हो सकता है। मुकदमा करने वाला कोई भी हो सकता है- जिसके खिलाफ स्टोरी है वो या उसका कोई शुभचिंतक। हालिया उदाहरण दि ट्रिब्यून का है, जिसमें आधार जारी करने वाली एजेंसी यूआइडीएआइ का कहना है कि उसकी साख को चोट पहुंची। आप अगर भ्रष्टाचार से जुड़ी किसी अदद खबर को रिपोर्ट कर रहे हैं तब भी आप पर मुकदमा हो सकता है- वनांचल एक्सप्रेस, मीडियाविजिल और नवजीवन पर यूपी के रॉबर्ट्सगंज में फर्जी नियुक्तियों में आरएसएस की भूमिका की खबर लिखने पर रिपोर्टर शिवदास व अश्विनी सिंह सहित इन वेबसाइटों पर उन लोगों ने मुकदमा कर दिया है जिनके खिलाफ पहले से ही शासन की एफआइआर दर्ज है। इनका कहना है कि खबर इनकी ‘प्रतिष्ठा’ धूमिल करने की साजिश है। दि वायर ने अमित शाह के बेटे जय शाह पर खबर की, तो सरकार मैदान में उतर आई गोया उसकी ‘प्रतिष्ठा’ धूमिल हो रही हो। ईपीडब्लू ने सरकार पर खबर की तो सरकार के लाभार्थी अडानी ने मुकदमा कर दिया, गोया उनकी ‘प्रतिष्ठा’ धूमिल हो रही हो। नेहा दीक्षित ने बाल तस्करी पर कहानी लिखी तो आरएसएस की ‘प्रतिष्ठा’ को चोट पहुंच गई और उसने मुकदमा कर दिया।
ये जो ‘प्रतिष्ठावान’ लोग मानहानि और अन्य आपराधिक मुकदमे पत्रकारों पर लगातार कर रहे हैं, इनके बीच एक समानता दिखती है- ये सभी ताकतवर लोग हैं या ताकतवर लोगों से नाभिनालबद्ध होने के नाते खुद को ताकतवर मानते हैं। ताकतवर का आशय केंद्रीय सत्ता से है। सत्ता में बीजेपी की बहुमत वाली सरकार है। बीजेपी की सत्ता ही आरएसएस की सत्ता है। आरएसएस की सत्ता का मतलब है उसके समान विचार वाले संगठनों और व्यक्तियों समेत उसके लाभार्थियों की अपनी सत्ता। इसके अलावा यह सत्ता उनकी भी बराबर है जिन्होंने बीजेपी को सत्ता में लाने में मदद की है। इसमें अडानी-अंबानी जैसे कारोबारी आते हैं। ज़रूरी नहीं कि ऐसे ताकतवर लोगों का कोई वैचारिक एका काम कर रहा हो। वैचारिक एका के बल पर बनी सत्ताओं का प्रभाव इतना वृहद नहीं होता, जैसा देखा जा रहा है। इसमें लाभ-लोभ का भी बराबर हाथ है।
इस तरह एक विचित्र तंत्र बनता है जहां शहर का बेहद नामालूम सा शम्भूलाल नाम का कोई आदमी अचानक एक हत्या कर के तंत्र से जुड़े लोगों का रातोरात आइकन बन जाता है। यह उस आदमी की ताकत नहीं है, तंत्र की ताकत है। इसी तंत्र की ताकत के बल पर उसके अनैतिक, भ्रष्ट और बेईमान सदस्यों को अपनी ‘प्रतिष्ठा’ और ‘छवि’ का झूठा गुमान हो आता है। वे मुगालता पाल लेते हैं कि चूंकि सत्ता उनके अनुकूल है, तो वे इज्जतदार लोग हैं जिनके सही-गलत पर उंगली दिखाना अपराध है। फिर वे अपनी इस स्वयंभू व्याख्या को कानूनी जामा पहनाते हैं। कानून सबके लिए बराबर है। मुकदमा कोई भी कर सकता है लेकिन झूठी प्रतिष्ठा के दंभ में मुकदमा वे ही करते हैं जो सबसे ज्यादा पतित होते हैं। मुकदमे उनके खिलाफ किए जाते हैं जो पतन को सामने लाते हैं। इस तरह पूरी व्यवस्था सिर के बल खड़ी हो जाती है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, उसकी केंद्र सरकार और उसके लाभार्थियों के साथ इस मामले में एक कुंठा भी अतिरिक्त प्रोत्साहन का काम करती है। महात्मा गांधी की हत्या के बाद ‘संघी’ होना एक बदकार था इस समाज के लिए। अचानक बीते तीन साल में स्थिति उलटी है। सत्तर साल का बदला लिया जा रहा है उन लोगों से, जो संघविरोधी हैं या जो अपने नियमित कर्तव्यों के निर्वहन में कहीं न कहीं संघ के आड़े आ जा रहे हैं। रॉबर्ट्सगंज से लेकर दिल्ली तक कहानी एक है। बस फ़र्क इतना है कि छोटे शहरों के छोटे पत्रकारों की आवाज़ कोई नहीं उठा रहा जबकि बड़े शहरों के बड़े पत्रकार समानांतर सत्ता-संरचनाओं के सहारे संघर्ष की स्थिति तक पहुंच पा रहे हैं और कुछ तो इंसाफ भी पा जा रहे हैं। भयावह संघी प्रतिशोध के इस दौर में परंजय गुहा ठाकुरता का अडानी से मानहानि का मुकदमा ‘जीतना’ देश भर में पत्रकारों के साथ हो रही नाइंसाफियों पर एक टिप्पणी है।
सुप्रीम कोर्ट ने पिछले साल राहुल गांधी, अरविंद केजरीवाल, सुब्रमण्यन स्वामी और अन्य द्वारा दायर अलग-अलग याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान मानहानि के कानून के दंडात्मक प्रावधानों की संवैधानिक वैधता को पुष्ट करते हुए फैसला दिया था कि अभिव्यक्ति की आज़ादी का अधिकार ”निरपेक्ष” नहीं है। मानहानि कानून में आइपीसी की धारा 499 और 500 समेत सीआरपीसी की धारा 119 को खत्म करने के संबंध में चली इस लंबी न्यायिक बहस में केंद्र की बीजेपी सरकार का कड़ा पक्ष था कि इस कानून को बनाए रखा जाए क्योंकि इसके खत्म होने से अराजकता आ जाएगी और व्यक्तियों की प्रतिष्ठा को धूमिल करना आसान हो जाएगा।
SC Verdict on criminal defamation: scary, chilling effect on journalism, say editors
इस खबर की रिपोर्टिंग में दो बातें भुला दी गईं। पहली, सुप्रीम कोर्ट की वह टिप्पणी जिसमें उसने देश भर के मजिस्ट्रेटों को चेतावनी दी थी कि व्यक्तियों द्वारा किए गए मानहानि के मुकदमों में समन भेजने में वे सावधानी बरतें। दूसरी बात जो जुलाई 2015 में सुनवाई के दौरान सरकारी वकील मुकुल रोहतगी को कोर्ट ने कही थी, वो यह है कि राज्य को ऐसे मामलों से खुद को दूर रखना चाहिए और जिस व्यक्ति की मानहानि हुई है, मुकदमा सीधे उसी को करना चाहिए। कोर्ट ने यह भी कहा था कि किसी एक व्यक्ति के अभिव्यक्ति की आज़ादी के अधिकार को दूसरे के प्रतिष्ठा के अधिकार से संतुलित किया जाना होगा।
यह ‘प्रतिष्ठा’ वाला मामला थोड़ा जटिल है। इसकी सबसे ज्यादा चिंता केंद्र सरकार को थी जिसने इसी के बिनाह पर आपराधिक मानहानि कानून के अप्रासंगिक हो जाने को चुनौती दी थी। किसी की अभिव्यक्ति की आज़ादी के अधिकार से आखिर ‘प्रतिष्ठा’ किसकी धूमिल होती है? ज़ाहिर है, उसकी जो ‘प्रतिष्ठित’ हो। ‘प्रतिष्ठित’ होने का सीधा सा प्राथमिक अर्थ यह बनता है कि जिसके खिलाफ भ्रष्टाचरण और अनैतिकता की कोई शिकायत पहले से न हो। इस अर्थ में इस देश का हर सामान्य नागरिक ‘प्रतिष्ठित’ है जिसका दामन पाक-साफ़ है। इसका मतलब यह भी बनता है कि हर नागरिक अपनी प्रतिष्ठा के नाम पर मानहानि का केस किसी पर ठोक सकता है।
क्या भ्रष्टाचार के किसी मामले में दोषी व्यक्ति अपने बारे में खबर लिखे जाने पर खबरनवीस के खिलाफ मुकदमा कर सकता है? कोई अगर पहले से ही किसी मामले में अदालत द्वारा दोषी ठहराया जा चुका है, तो इस बात की रिपोर्टिंग करने से उसकी छवि कैसे धूमिल हो जाती है? अगर वह ऐसा कर रहा है, तो क्यों न माना जाए कि उसकी मंशा पत्रकार पर दबाव बनाने की है ताकि भ्रष्टाचार की और परतों को दबाए रखा जा सके?
इसका एक दिलचस्प उदाहरण उत्तर प्रदेश के रॉबर्ट्सगंज में देखने को मिला है जहां के संस्कृत विद्यालयों में हुई फर्जी नियुक्तियों की जांच में बाकायदा दोषी पाए गए कुछ लोगों ने इस संबंध में खबर लिखने वाले रिपोर्टरों और खबर छापने वाले प्रकाशनों पर एफआइआर दर्ज करवा दी, जबकि इन लोगों पर पहले से शासकीय एफआइआर कायम है। अजीब बात है कि जिन्हें दोषी पाए जाने और भ्रष्टाचार संबंधी एफआइआर में नामजद होने से खास दिक्कत नहीं थी, उन्हें इस संबंध में खबर छपने से दिक्कत हो गई। अजीब यह भी है कि शासकीय एफआइआर के बावजूद इन भ्रष्टाचारियों को अब तक पकड़ा नहीं गया है और ये खुलेआम न केवल घूम रहे हैं बल्कि अपनी ‘प्रतिष्ठा’ को बचाने के नाम पर पत्रकारों को ही निशाने पर ले रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट और केंद्र द्वारा ‘प्रतिष्ठा’ वाला तर्क यहां कैसे काम करेगा?
फर्जी नियुक्तियों में RSS की भूमिका को उजागर करने वाले पत्रकारों समेत वनांचल एक्सप्रेस, मीडिया विजिल और नवजीवन पर FIR
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जिसकी मानहानि हुई है, मुकदमा सीधे उसी को करना चाहिए। कौन सुन रहा है कोर्ट की बात? इकनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली और दि वायर के मामलों से हम सब परिचित हैं- ईपीडब्लू में परंजय गुहा की स्टोरी सरकार के खिलाफ थी कि उसने कैसे अडानी को करोड़ों का लाभ पहुंचाया, लेकिन मानहानि का मुकदमा पलट कर अडानी ने कर डाला। इसमें अडानी की मानहानि कैसे हुई? दि वायर की स्टोरी अमित शाह के बेटे जय शाह के बारे में थी और गनीमत है कि मुकदमा भी शाह ने ही किया, लेकिन स्टोरी सामने आते ही केंद्र सरकार के कैबिनेट मंत्री क्यों उचक कर शाहपुत्र का बचाव करने मैदान में उतर आए? क्या इस स्टोरी से पीयूष गोयल की प्रतिष्ठा धूमिल हुई थी, केंद्रीय कैबिनेट की, प्रधानमंत्री मोदी की या अमित शाह की? अगर पिता होने के नाते अमित शाह की ‘प्रतिष्ठा’ धूमिल हुई, तो अव्वल सवाल यह है कि वे हैं कौन? केंद्र सरकार में तो वे हैं नहीं। न ही निर्वाचित प्रतिनिधि हैं जनता के। सत्ताधारी पार्टी के अध्यक्ष हैं। यह कोई संवैधानिक पद तो है नहीं। फिर उनके बेटे के बचाव में सरकार क्यों आएगी? क्या इसी दिन के लिए केंद्र ने मानहानि कानून समाप्त किए जाने का विरोध ‘प्रतिष्ठा’ के नाम पर किया था?
जिन्हें इसकी जानकारी नहीं है, उन्हें बता दें कि बॉम्बे यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट्स ने आज से बरसों पहले मानहानि कानून को खत्म करने के लिए एक अभियान चलाया था और इस कानून को पत्रकारों और अभिव्यक्ति की आज़ादी के लिए खतरा बताया था। यह बहस बहुत पुरानी है लेकिन बहुसंख्य की बहुमत वाली सत्ता आने पर अचानक इसके दुष्परिणाम सामने आने लगे हैं। अगर आपकी दिलचस्पी बॉम्बे यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट्स की मानहानि बिल पर रिपोर्ट में है तो उसे आप नीचे पीडीएफ प्रारूप में विस्तृत पढ़ सकते हैं।
15. Bombay Union of Journalists Scrap Defamation Bill Bombay...प्रतिष्ठा के नाम पर कानूनी धाराओं के बेज़ा इस्तेमाल की यह समस्या नई नहीं है। बस सरकार बदलने पर चीज़ें दिख जा रही हैं, वरना यूपीए के दौर में भी लोगों की ‘मानहानि’ होती थी और मुकदमे का स्वर शिकायती के सामाजिक रसूख से ही तय होता था। आज से कोई आठ साल पहले दिल्ली के कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं और पत्रकारों ने एक महिला के मीडिया ट्रायल पर सवाल खड़ा किया था। मीडिया पर सवाल उठाया गया था कि कैसे उक्त महिला को एक ताकतवर शख्स की शह पर बदनाम किया जा रहा है और गलत खबरें चलायी जा रही हैं। यह शायद इधर बीच के मानहानि के मुकदमों के लिए एक प्रस्थान-बिंदु जैसा होगा- जिस मीडिया को कठघरे में खड़ा किया गया उसे दर्द नहीं हुआ, दर्द हुआ उस शख्स को जिसने मीडिया में अपने तरीके से खबरें चलवायी थीं। उक्त व्यक्ति ने 12 सामाजिक कार्यकर्ताओं और पत्रकारों के समूह पर अपनी मानहानि का मुकदमा अपने एक कर्मचारी से करवा दिया। इतना ही नहीं, संडे इंडियन नाम की एक पत्रिका में इस बारे में रिपोर्ट करने वाले एक पत्रकार की नौकरी उसने खा ली। कुछ बरस बाद इस शख्स को शांति का नोबेल पुरस्कार मिल गया।
कैलाश सत्यार्थी ने अपने एक कर्मचारी से आठ साल पहले कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं व पत्रकारों पर मुकदमा करवाया था कि उनकी मानहानि हुई है। जो रिपोर्ट मानहानि के पक्ष में रखी गई, उसमें मीडिया ट्रायल पर सवाल था, सत्यार्थी कहीं नहीं थे। यानी मानहानि किसी की हुई हो चाहे नहीं लेकिन एक व्यक्ति ने मान लिया कि मानहानि उसी की हुई है। फिर मुकदमा किया किसी और ने। मुकदमा आज भी कायम है। एक सामाजिक कार्यकर्ता की मौत हो चुकी है। बाकी आठ साल से अदालत में हाजिरी लगा रहे हैं। यह लेखक भी उनमें एक है। जिसकी कथित मानहानि हुई थी, उसे दुनिया का सबसे बड़ा सम्मान मिल चुका है लेकिन नोबेल पुरस्कार के गौरव के मुकाबले इस शख्स को एक कथित फैक्ट फाइंडिंग रिपोर्ट से कहीं ज्यादा दिक्कत है।
कैलाश सत्यार्थी के बचपन बचाओ आंदोलन द्वारा किया गया वह मुकदमा सुप्रीम कोर्ट के 2016 में मानहानि कानून पर बहस के दौरान दिए निर्देशों का खुला उल्लंघन है, लेकिन मुकदमा कायम है। ऐसा इसलिए क्योंकि मामला सत्तातंत्र का है। सत्यार्थी जैसे कुछ लोग हर सत्तातंत्र में नमक की तरह घुले रहते हैं। कुछ और लोग नई सत्ताओं के साथ नए सिरे से ताकतवर बन जाते हैं, जैसे अडानी। कुछ लोग सत्ता के करीबी आभास से कानून की बांह मरोड़ते हैं, जैसा कि आरएसएस के लोगों द्वारा देश भर में तमाम लोगों के खिलाफ दर्ज कराए सैकड़ों मामलों में हम देखते हैं। मसलन, कमल हासन एक बयान देते हैं। बयान टीवी पर चलता है। बनारस में एक वकील जो सनातन संस्था का प्रभारी है उस बयान को देखकर मान लेता है कि यह करोड़ों हिंदुओं की भावना का अपमान है और एक मुकदमा दायर कर देता है। अगर मानहानि करोड़ों हिंदुओं की हुई है तो मुकदमा सनातन संस्था का आदमी क्यों दायर करेगा? यह ताकत है, जो सत्ताभास से पैदा होती है। सुप्रीम कोर्ट अपनी सदिच्छा में प्रतिष्ठा को संतुलित करने के लिए अभिव्यक्ति की आज़ादी पर मानहानि का पहरा बिठाए रखने की बात करता है लेकिन इस बात पर गौर नहीं करता कि जो अपनी ‘प्रतिष्ठा’ धूमिल होने का दावा कर रहे हैं वे कौन लोग हैं।
अदालत की सदिच्छा अपनी जगह, लेकिन मानहानि कानून पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद बीते डेढ़ साल के दौरान जिस धड़ल्ले और बेशर्मी से खबरनवीसों को सत्ता और सत्ता पोषित व्यक्तियों/संगठनों द्वारा कानूनी निशाना बनाया गया है, वह आज किसी से छुपा नहीं रह गया है। खासकर दि वायर पर अमित शाह के बेटे जय शाह के संबंध में चली स्टोरी पर करोड़ों की मानहानि का मुकदमा और इकनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली में कारोबारी अडानी को लाभ पहुंचाए जाने के संबंध में परंजय गुहा ठाकुरता की स्टोरी पर हुआ मानहानि का मुकदमा राष्ट्रीय सुर्खियों में रहे जिससे इस विशिष्ट पैटर्न की ओर लोगों का ध्यान गया। दि वायर का मुकदमा, ईपीडब्लू पर केस, आउटलुक में नेहा दीक्षित की स्टोरी पर हुआ आरएसएस का मुकदमा, पिछले दिनों ट्रिब्यून में आधार घोटाले के खुलासे पर रिपोर्टर के खिलाफ दर्ज केस, इन सब की चर्चा राष्ट्रीय स्तर पर हुई है क्योंकि इनमें शामिल लोग रसूख वाले हैं और ये प्रकाशन भी काफी बड़े हैं। इनमें नामी लोग शामिल हैं। यहां तक कि ईपीडब्लू के केस में तो एक वाक्य हटाने का आदेश देते हुए अदालत ने मानहानि का केस ही खारिज कर दिया जिसे अभिव्यक्ति की आज़ादी के लिहाज से बड़ी जीत माना जाना चाहिए।
सवाल उन संसाधनविहीन पत्रकारों और प्रकाशनों का है जिनके पास मुकदमा लड़ने को न तो पैसा है, न वकील। रॉबर्ट्सगंज के संस्कृत विद्यालयों में नियुक्ति में संघ की भूमिका पर खबर लिखने वाले पत्रकार शिवदास पर दो बार बनारस में हमला हो चुका है। वे फेसबुक पर लिख चुके हैं कि उनकी जान को खतरा है। उनकी आवाज़ नक्कारखाने की तूती है। हर अगली रात रवीश कुमार जब कहते हैं कि उन्हें धमकी मिल रही है और सरकार उनके पीछे पड़ी हुई है, तो सहानुभूति की राष्ट्रीय लहर उमड़ पड़ती है। उधर उत्तर-पूर्व में पैरामिलिटरी कमांडेंट का इंटरव्यू लेने गए एक पत्रकार को गिराकर गोली मार दी जाती है और कोई चूं तक नहीं करता। विडंबना यह भी है कि छोटे शहर का छोटा पत्रकार जिन जगहों पर लिखता है, वे भी धनबल से उतने ही कमज़ोर मंच हैं जो अपने रिपोर्टर का बचाव नहीं कर सकते।
प्रस्तुत मामले की एफआइआर में मीडियाविजिल, वनांचल एक्सप्रेस और नवजीवन का नाम है। नवजीवन कांग्रेस की वेबसाइट है। उसे न इस एफआइआर की चिंता है न इस खबर को छापने से कोई मतलब। मीडियाविजिल एक अलाभकारी वेबसाइट है जिसे कायदे से डेढ़ बेरोज़गार पत्रकार चलाते हैं। एक अदद नोटिस आ जाए तो हमें नहीं पता कि हम क्या करेंगे, हमारी दरिद्रता का आलम ऐसा है। वनांचल एक्सप्रेस खुद शिवदास चलाते हैं। ईमानदार बेरोज़गार पत्रकार हैं, फिर भी लिख रहे हैं। सवाल यह है कि क्या छोटे शहर का कमजोर पत्रकार खबर लिखना छोड़ दे? क्या धनबल और संसाधन से विपन्न हमारे जैसे मंच पत्रकारिता करना छोड़ दें?
सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ अधिवक्ता इंदिरा जयसिंह ने पिछले साल कोर्ट में मानहानि कानून पर चल रही सुनवाई के दौरान दि वायर पर एक एक विस्तृत लेख लिखकर बताया था कि मानहानि के कानून को खत्म करने की आज ज़रूरत क्यों है। उस पर समय रहते खास चर्चा नहीं हुई।
It is Time to Get Rid of the Law of Criminal Defamation
इस सवाल पर आज नहीं तो कल उन बड़े मंचों और संपादकों को सोचना होगा जो फिलहाल रसूखदार व्यक्तियों की ओर से दायर किए करोड़ों के मानहानि के मुकदमे झेल रहे हैं और वीरबहादुर कहला रहे हैं। सोचना तो सुप्रीम कोर्ट का भी बनता है कि प्रतिष्ठा, इज्जत और छवि के नाम पर पत्रकारों और पत्रकारिता को ही क्यों निशाना बनाया जा रहा है? कहीं ऐसा तो नहीं कि जिन्हें इस देश की न्यायपालिका प्रतिष्ठावान मानती है वे वाकई नंगे हैं? क्या अदालत हमें इतना कहने की छूट देगी कि उसने अभिव्यक्ति की आज़ादी के अधिकार को प्रतिष्ठा के अधिकार के साथ संतुलित करने का जो कारनामा पिछले साल किया है, वह इज्जत के नाम पर की जाने वाली हत्याओं को उसकी मौन सहमति है?
यु नो ”ऑनर किलिंग”… माइ लॉर्ड? माइ लॉर्ड, क्या आप देख पा रहे हैं कि चौतरफा हमले, धमकियों, मुकदमों और खतरों के मुहाने पर खड़ा एक अदद पत्रकार आखिर किस साहस के साथ अब भी पत्रकारिता कर पा रहा है? उसकी प्रेरणा देखिए, उसका दर्द समझिए…।
लेखक मीडियाविजिल डॉट कॉम के कार्यकारी संपादक हैं