अतुल देव / The Caravan / 11 फरवरी 2018
भारत के अग्रणी फॉरेन्सिक विशेषज्ञों में एक डॉ. आरके शर्मा- जो दिल्ली के भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में फॉरेन्सिक मेडिसिन और टॉक्सिकोलॉजी विभाग के प्रमुख रह चुके हैं और 22 साल तक इंडियन असोसिएशन ऑफ मेडिको-लीगल एक्सपर्ट्स के अध्यक्ष रहे हैं- ने जज बृजगोपाल हरकिशन लोया की मौत से जुड़े मेडिकल कागज़ात की जांच करने के बाद इस आधिकारिक दावे को खारिज कर दिया है कि लोया की मौत दिल का दौरा पड़ने से हुई थी। शर्मा के अनुसार ये कागज़ात दिखाते हैं कि लोया के मस्तिष्क को संभवत: कोई आघात पहुंचा हो और यह भी मुमकिन है कि उन्हें ज़हर दिया गया हो।
शर्मा ने लोया की पोस्ट-मॉर्टम रिपोर्ट और संबंधित हिस्टोपैथोलॉजी रिपोर्ट- जिसमें लोया के बिसरा का नमूना शामिल था जिसे केमिकल अनालिसिस के लिए भेजा गया था- में केमिकल अनालिसिस के नतीजों पर द कारवां से बात की। इनमें से कुछ दस्तावेज़ सूचना के अधिकार के आवेदन के माध्यम से हासिल किए गए हैं जबकि कुछ अन्य कागज़ात महाराष्ट्र सरकार की ओर से सुप्रीम कोर्ट में महाराष्ट्र गुप्तचर विभाग की रिपोर्ट के पूरक के तौर पर साथ में नत्थी कर के जमा कराए गए हैं। गुप्तचर विभाग की रिपोर्ट का निष्कर्ष है कि लोया की मौत को लेकर कोई संदेह नहीं है। शर्मा की राय इस निष्कर्ष से जुदा है।
शर्मा ने बताया, ”हिस्टोपैथोलॉजी रिपोर्ट में म्योकार्डियल इनफार्कशन का कोई साक्ष्य नहीं है। इस रिपोर्ट के नतीजे दिल के दौरे की ओर इशारा नहीं करते। इनमें बदलाव दर्शाए गए हैं, लेकिन यह दिल के दौरे से नहीं जुड़ा है।”
शर्मा ने कहा, ”पोस्ट-मॉर्टम रिपोर्ट यह भी कहती है कि उनकी धमनियों में कैल्सीकरण दिखाई दे रहा है। जहां कैल्सीकरण होता है, वहां दिल का दौरा नहीं हो सकता। एक बार धमनियों में कैल्शिम जम जाए तो वे रक्त प्रवाह को बाधित नहीं करेंगी।”
बताया गया है कि लोया ने अपनी मौत की रात करीब 4 बजे तबियत खराब होने की शिकायत की थी और उन्हें सुबह 6.15 बजे मृत घोषित कर दिया गया। शर्मा कहते हैं, ”इसका मतलब दो घंटे लगे, यदि (दिल के दौरे) के लक्षण के बाद 30 मिनट से ज्यादा कोई जिंदा रह जाए तो दिल में साफ़ बदलाव देखे जा सकेंगे। यहां कोई स्पष्ट बदलाव नहीं दिख रहा।”
पोस्ट-मॉर्टम रिपोर्ट कहती है कि मौत का संभावित कारण ”कोरोनरी आर्टरी इनसफीशियेंसी” थी। शर्मा ने बताया, ”इन कागज़ात के मुताबिक दिल में कुछ बदलाव देखे गए हैं लेकिन इनमें से कोई भी इस निष्कर्ष तक नहीं पहुंचाता कि ‘कोरोनरी आर्टरी इनसफीशियेंसी’ कही जा सके। बाइपास सर्जरी वाले किसी भी मरीज़ में ये लक्षण देखे जा सकते हैं।”
शर्मा ने कहा, ”ज्यादा अहम यह है कि पोस्ट-मॉर्टम रिपोर्ट के अनुसार ड्यूरा कंजस्टेड (अवरोधित) है। ड्यूरा मैटर मस्तिष्क को घेरने वाली सबसे बाहरी परत होती है। यह ट्रॉमा (सदमे) की स्थिति में क्षतिग्रस्त होता है, जिससे समझ में आता है कि दिमाग पर किसी किस्म का हमला हुआ है। कोई शारीरिक हमला।”
लोया की बहन डॉ. अनुराधा बियाणी जो कि महाराष्ट्र सरकार में सेवारत चिकित्सक हैं, उन्होंने पहले ही द कारवां को बताया था कि उन्होंने जब मौत के बाद पहली बार अपने भाई की लाश देखी तो उस वक्त ”गरदन पर और शर्ट पर पीछे की ओर खून के निशान पड़े हुए थे।” बियाणी नियमित डायरी लिखती हैं। लोया की मौत के वक्त अपनी डायरी में उन्होंने दर्ज किया था कि ”उनके कॉलर पर खून लगा था”। लोया की दूसरी बहन सरिता मांधाने ने भी द कारवां से बातचीत में ”गरदन पर खून” का जि़क्र किया था और कहा था कि ”उनके सिर पर चोट थी और खून था… पीछे की तरफ”। जज के पिता हरकिशन लोया ने द कारवां को बताया था कि उन्हें याद है कि उनके ”कपड़ों पर खून के धब्बे थे”।
सुप्रीम कोर्ट में महाराष्ट्र सरकार ने जो कागज़ात जमा कराए हैं, उनमें लोया के नाम पर काटा गया नागपुर के मेडिट्रिना अस्पताल का एक बिल है जहां उन्हें मृत घोषित किया गया था। मेडिट्रिना के अधिकारी जहां यह मानते हैं कि लोया को दिल की शिकायतों के साथ वहां लाया गया था, वहीं बिल में ”न्यूरोसर्जरी” का जि़क्र है।
पोस्ट-मॉर्टम रिपोर्ट साफ़-साफ़ नहीं बताती कि ड्यूरा में कितना अवरोध पाया गया। शर्मा का कहना था कि उन्हें यह बात हैरत में डालती है कि ”आखिर ड्यूरा में अवरोध की वजह क्यों नहीं लिखी गई”।
पोस्ट-मॉर्टम रिपोर्ट देखते हुए शर्मा कहते हैं, ”मुमकिन है कि उन्हें ज़हर दिया गया हो। हर एक अंग में रुकावट है।” जिन अंगों में रुकावट (कंजेस्टेड) की बात रिपोर्ट में कही गई है उनमें लिवर, पैंक्रियाज़, स्प्लीन, किडनी, इसोफेगस और फेफड़ों के अलावा अन्य हैं।
लोया के बिसरा के रासायनिक विश्लेषण के परिणाम उनकी मौत के 50 दिन बाद आए थे जिसमें किसी ज़हर का जि़क्र नहीं है। यह विश्लेषण नागपुर की क्षेत्रीय फॉरेन्सिक साइंस लैब में किया गया था। इसमें यह दर्ज है कि बिसरे की जांच की शुरुआत 5 जनवरी 2015 को शुरू हुई यानी 30 नवंबर और 1 दिसंबर 2014 की दरमियानी रात हुई लोया की मौत के कुल 36 दिन बाद जबकि यह कुल 14 दिन बाद 19 जनवरी 2015 को पूरी हुई। शर्मा पूछते हें, ”अनालिसिस में इतना लंबा वक्त क्यों लगा? इसमें तो आम तौर से एक-दो दिन लगता है (जांच पूरी करने में)।”
पोस्ट-मॉर्टम के बाद लोया के बिसरा का नमूना किन-किन हाथों से होकर गुज़रा, इसका पता नहीं लगता और लगता है कि चेन ऑफ कमांड टूट गई थी। महाराष्ट्र सरकार की ओर से सुप्रीम कोर्ट में जमा कराए गए कागज़ात के मुताबिक लोया की मौत से संबंधित ज़ीरो एफआइआर पहले नागपुर के सीताबल्दी थाने में दर्ज की गई। सीताबल्दी थाने ने पंचनामे का इंतज़ाम किया जो नागपुर के सरकारी मेडिकल कॉलेज में 1 दिसंबर को सुबह 10.55 से 11.50 तक चला। उसी वक्त रासायनिक विश्लेषण के लिए नमूने इकट्ठा कर लिए गए। अभी तक यह वजह साफ़ नहीं है कि आखिर क्यों एफआइआर को सदर थाने में स्थानांतरित कर दिया गया। रिकॉर्ड दिखाते हैं कि शाम 4 बजे सदर थाने में एफआइआर दर्ज की गई। सदर थाने ने ही लोया के टिश्यू नमूने ज़रूरी पत्र के साथ जांच के लिए भिजवाए। यह साफ़ नहीं है कि पोस्ट-मॉर्टम से लेकर सदर थाने में एफआइआर दर्ज होने के बीच गुज़रे वक्त में लोया के टिश्यू नमूने कहां और किनके पास थे या फिर किसकी निगरानी में इसे सदर थाने को सौंपा गया। यह भी स्पष्ट नहीं है कि सीताबल्दी थाने ने आखिर पोस्ट-मॉर्टम के ठीक बाद ये नमूने फॉरेन्सिक लैब को क्यों नहीं भेजे।
इसके अलावा एक सवाल यह भी है कि लोया की लाश और उनकी मौत के संभावित कारण पर पोस्ट-मॉर्टम की रिपोर्ट व नमूना जांच के लिए भेजे गए लोया के बिसरे के साथ नत्थी रिपोर्ट के बीच परस्पर मेल क्यों नहीं है जबकि बिसरे के साथ भेजे जाने वाली रिपोर्ट पूरी तरह पोस्ट-मॉर्टम पर ही आधारित होती है। जांच के वक्त देह कितनी कठोर है, इसका हाल दर्ज करने के लिए एक श्रेणी होती है जिसका नाम है ”रिगर मॉर्टिस”। इस श्रेणी में पोस्ट-मॉर्टम रिपोर्ट लिखती है, ”ऊपरी हिस्से में हलका मौजूद और निचले हिस्से में नहीं” जबकि बिसरे की रिपोर्ट में इसी श्रेणी के अंतर्गत लिखा है, ”वेल मार्क्ड”। ऐसा मुमकिन नहीं है कि एक ही वक्त रिगर मॉर्टिस ”हलका मौजूद” भी हो और ”वेल मार्क्ड” भी। पोस्ट-मॉर्टम रिपोर्ट में एक विषय है ”मौत की संभावित वजह पर राय”। रिपोर्ट कहती है- ”कोरोनरी आर्टरी इनसफीशियेंसी”। बिलकुल इसी विषय के अंतर्गत बिसरा की रिपोर्ट में नोट है, ”ए केस ऑफ सडेन डेथ” (अचानक हुई मौत का मामला)। ”स्टोरी ऑफ केस” नाम की श्रेणी के अंतर्गत बिसरा रिपोर्ट में लिखा है- ”ए केस ऑफ नैचुरल डेथ” (प्राकृतिक मौत का मामला)। इसमें ”नैचुरल डेथ” के नीचे एक लाइन खींची गई है। इन सब के बावजूद लाश को पंचनामे के लिए भेजने से पहले सीताबल्दी थाने में जो रिपोर्ट दर्ज की गई थी, वह हादसे में हुई मौत की बात कहती है।
पोस्ट-मॉर्टम रिपोर्ट और बिसरा रिपोर्ट दोनों को नागपुर के सरकारी मेडिकल कॉलेज में तैयार किया गया। सूचना के अधिकार के तहत आवेदन से हासिल बिसरा रिपोर्ट का प्रपत्र साफ़ कहता है कि उसमें दर्ज सूचना को पोस्ट-मॉर्टम पर आधारित होना चाहिए और इसे पोस्ट-मॉर्टम के तुरंत बाद उसी डॉक्टर द्वारा तैयार किया जाना चाहिए जिसने पंचनामा किया हो। लोया के मामले में नागपुर के सरकारी मेडिकल कॉलेज के फॉरेन्सिक विभाग द्वारा भरे गए बिसरा के प्रपत्र का शीर्षक है ”फॉर्म इन विच रिपोर्ट ऑफ पोस्ट-मॉर्टम एग्जामिनेशन टु बी यूज़्ड वेन फॉरवर्डिंग विसेरा टु द केमिकल एनलाइज़र” (वह प्रपत्र जिसमें बिसरा रासायनिक विश्लेषक के पास भेजते वक्त पंचनामे की रिपोर्ट का प्रयोग किया गया हो)। दिल्ली के एम्स स्थित फॉरेन्सिक विभाग में काम करने वाले एक डॉक्टर ने बताया कि मानक प्रक्रिया के तहत ”प्रपत्र में पोस्ट-मॉर्टम की सूचना की प्रतिलिपि लगा दी जाती है” और इसे बिसरा के साथ केमिकल एनलाइज़र के पास भेजा जाता है। शर्मा ने भी बिलकुल यही बात कही।
लोया के मामले में पोस्ट-मॉर्टम और बिसरा दोनों की रिपोर्ट पर डॉ. एनके तुमाराम के दस्तखत हैं जो सरकारी मेडिकल कॉलेज में लेक्चरार हैं। बावजूद इसके इसी डॉक्टर ने बिलकुल साथ में तैयार की जाने वाली दो रिपोर्टों में स्पष्टत: विरोधाभासी सूचनाएं दर्ज की हैं, यहां तक कि मौत की संभावित वजह को लेकर भी दोनों रिपोर्टों में विरोधाभास मौजूद है। द कारवां ने जब तुमाराम से संपर्क साधा, तो उन्होंने यह कह कर बात करने से इनकार कर दिया कि मामला अदालत में है।
लोया मौत के वक्त 48 साल के थे, न तो धूम्रपान करते थे और न ही शराब पीते थे। दिल की बीमारी का उनके परिवार में कोई चिकित्सीय अतीत भी नहीं था। अनुराधा बियाणी ने द कारवां को बताया था, ”हमारे माता-पिता 80-85 साल के हैं और स्वस्थ हैं, उनकी कोई कार्डियक हिस्ट्री नहीं है।” उन्होंने बताया था कि ”लोया केवल चाय पीते थे, बरसों से रोज़ाना दो घंटा टेबल टेनिस खेलते थे, न उन्हें मधुमेह था और न ही रक्तचाप।”
डॉ. आरके शर्मा ने फॉरेन्सिक और मेडिको-लीगल विषयों पर पांच पुस्तकें लिखी हैं और कई मौकों पर उन्होंने जजों और सरकारी वकीलों को व्याख्यान व प्रशिक्षण भी दिया है। वे केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआइ) के सलाहकार रह चुके हैं। उन्हें अमेरिका के फेडरल ब्यूरो ऑफ इनवेस्टिगेशन (एफबीआइ) जैसी एजेंसियों ने अंतरराष्ट्रीय सेमीनारों में बुलाया है और फॉरेन्सिक मेडिसिन व टॉक्सिकोलॉजी पर उन्होंने तमाम राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय सेमीनार आयोजित किए हैं।
लोया की मौत से जुड़े दस्तावेज़ों को पढ़ते हुए शर्मा ने कहा, ”इसमें इनवेस्टिगेशन होना चाहिए।” फिर वे बोले, ”इन कागज़ात में जैसे हालात नज़र आते हैं, वे एक जांच को अनिवार्य तो बनाते हैं।”
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