अभिषेक श्रीवास्तव । सहारनपुर और मेरठ से लौटकर
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मौत के साये और पुलिस के पहरे के बीच बेटियों की शादी करने का अनुभव कैसा होता है, फ़कीरचंद से बड़ा इसका गवाह कोई नहीं होगा। उनकी बेटी प्रीति और मनीषा की शादी 26 मई को होना तय थी। एक की शादी दिन में होनी थी। दूसरी बारात शाम को आनी थी। कार्ड छप चुके थे। तैयारियां पूरी थीं। उनके गांव शब्बीरपुर पर 5 मई को अचानक एक संगठित हथियारबंद हमला हुआ। बलवाइयों ने सबसे पहले उनके मकान से दो मकान पीछे स्थित रविदास मंदिर पर धावा बोला। उसके बाद आग लगाते हुए उनके यहां पहुंचे। फ़कीरचंद और उनके बेटे खेतों में काम पर गए हुए थे। घर में औरतें और बच्चे थे। जिसे जो हाथ लगा, उसे शिकार बनाया गया। दरवाज़े तोड़ दिए गए। मोटरसाइकिलों को भी नहीं बख्शा गया। घर की तीन औरतें हमले में ज़ख्मी हो गईं। हमले ने उन्हें शादी का कार्यक्रम बदलने पर मजबूर कर दिया। उन्हें डर था कि अगर दूसरी बारात में शाम हुई, तो कुछ अनिष्ट हो सकता है। सो उन्होंने दोनों बारातों को सवेरे ही बुला लिया और शाम ढलने से पहले रवाना होने को कह दिया था।
उनके मकान के ठीक सामने रहने वाले सगे भाइयों रणिपाल और सेठपाल के परिवार उतना खुशकिस्मत नहीं थे। उनके घर पूरी तरह जला दिए गए थे। रणिपाल के मकान में घुसते ही आगज़नी की कालिख और बिखरी हुई गृहस्थी के बीच से एक बछड़े की बेचैन सी आवाज़ आई- ”बांsss”। उसे पुकारता देख उसकी मां को लगा कि शायद मालिक लौट आया है। गाय ने भी खिड़की में से अपना मुंह बाहर निकाला। दंगाइयों ने केवल इन्हीं दोनों को साबुत छोड़ दिया था और उनकी देखभाल करने के लिए रणिपाल की बूढ़ी मां बची थी, जो कुछ देर पहले हैंडपाइप से पानी भर कर कहीं निकली हुई थी। परिवार 5 मई की घटना के बाद गांव छोड़कर जा चुका है। इस परिवार को शनिवार, 27 मई को सहारनपुर के रुढाली गांव में हरपाल सिंह के यहां उनकी बेटी की शादी में होना था। कमरे में बिखरे हुए सामान के बीच पड़े शादी के कार्ड ने इसका पता दिया। कार्ड पर छपे फोन नंबर पर पूछने पर पता चला कि वे वहां नहीं हैं। कहां गए हैं, कोई नहीं जानता।
सहारनपुर के शब्बीरपुर गांव में 5 मई को जाटवों के करीब 60 घर जला दिए गए थे। कई लोग दहशत में अपने घर छोड़कर भाग गए। जो बचे, वे 23 मई की शाम हुए दूसरे हमले का खौफ़ झेल रहे हैं जब गांव में हुई बसपा प्रमुख मायावती की रैली से लौट रहे लोगों की गाड़ी पर घात लगाकर हमला किया गया। इस हमले में केवल दलित ही नहीं, बल्कि पिछड़ी जाति के दो लोग और एक मुसलमान भी ज़ख्मी हुआ है। ये सब बसपा के समर्थक थे। इस हमले में दो लोग मारे गए। बारह घायल सहारनपुर और छह घायल मेरठ में भर्ती हैं।
इस दोहरे खौफ़ से निजात पाने के लिए दिनदहाड़े शराब पीये दीप सिंह दो टूक शब्दों में कहते हैं, ”मरना है तो यहीं मरेंगे। ये अपना घर है। छोड़कर कहां जाएं। उनके पास तलवार है तो अपने पास भी दो हाथ हैं। वे चार मारेंगे तो हम दो मारेंगे।” रविदास मंदिर के ठीक बगल वाले मकान में एक आदमी खटिया पर लेटे हुए मिला। उसके हाथ में प्लास्टर बंधा था। वह भी 5 मई के हमले में घायल हुआ था। आज 25 मई है। वह अस्पताल से छूट कर आया है। उसका एक छोटा सा बेटा जो बमुश्किल पांच साल का होगा, अपनी सूजी हुई गरदन से जूझ रहा था। उस पर ज़ख्म के गहरे निशान थे। घर में औरतों का जमघट था। उसकी पत्नी टूटे हुए पंखे और बाइक दिखाकर पूछती है, ”भाई साहब, इन ठाकुरन के पास तलवार कहां से आवे है?” अनभिज्ञता जताने पर वह कहती है, ”इनके महाराणा प्रताप तो घास खाते थे। ये भी जाकर घास खावें। क्यों हमारी जिंदगी नरक किए हुए हैं?” औरतों की शिकायत है कि बीस दिन से मीडियावाले लगातार गांव में आ रहे हैं लेकिन किसी ने भी उनका पक्ष टीवी पर नहीं रखा। अब मीडिया को देखकर उन्हें गुस्सा आता है। ये दलित नेट पर ज्यादा भरोसा करते हैं। घायल व्यक्ति की बूढ़ी मां मुझसे पूछती है, ”नेट पर आओगो?” दूसरी बूढ़ी महिला मेरे जवाब से पहले उससे कहती है, ”आज सरकार ने नेट बंद कर दियो है। कहां से आओगो?”
नौजवान लड़के गांव में आए किसी बाहरी को लेकर सबसे ज्यादा उत्साहित हैं। वे अपने मोबाइल में दर्ज ऑडियो और वीडियो तुरंत ब्लूटूथ से ट्रांसफर करने को बेचैन दिखते हैं। वे घटना के एक-एक विवरण बताने में दिलचस्पी लेते हैं। अधेड़ थोड़ा आक्रोश में हैं। बूढ़े लोग इसे नियति मानकर दुखी हैं। गांव के वाल्मीकि अपने को राहत में महसूस कर रहे हैं क्योंकि उनके मकानों को दंगाइयों ने बख्श दिया था। केवल जाटवों को निशाना बनाया गया था। इनके अलावा गांव से लेकर शहर तक 17 किलोमीटर की पट्टी में केवल पुलिस का जमावड़ा है। पिछली रात डीएम और एसपी का तबादला हुआ है। दिन में नए डीएम और एसपी इस गांव का चक्कर लगाकर जा चुके हैं।
गांव के रविदास मंदिर को छावनी बना दिया गया है। रास्ते में दिख रहे आम के बगीचों में पुलिसवाले चारपाई डाले पहरा दे रहे हैं। बहनजी की रैली को दो दिन ही बीते हैं इसलिए बसपा की झंडियां और बैनर जस के तस लगे हुए हैं। जलाए गए घरों में फर्श पर राशन बिखरा पड़ा है। चूल्हे इतने ठंडे हो चुके हैं कि उनके भीतर राख तक नहीं बची है। बच्चों की प्लास्टिक की सायकिल भी टूटी पड़ी है। बिजली के कनेक्शन काट दिए गए हैं। केबल टीवी के एंटीना को भी तोड़ा गया है। देश के इस छोटे से हिस्से में बीते तीन हफ्ते से वक्त तकरीबन ठहरा हुआ है। अपने कमरे में चारपाई पर लेटे एक बुजुर्ग मिट्टी की फर्श पर लगे खून के धब्बे दिखाकर कहते हें, ”यहीं मेरे बेटे को मारा था तलवार से।” उनके पड़ोसी फ़कीरचंद कल आने वाली बारात को लेकर थोड़ा परेशान हैं। घर के लड़के उन्हें घेरे हुए हैं। भीतर औरतें काम पर लगी हुई हैं। शुक्र है कि अगले दिन सब कुछ ठीकठाक रहा। उनके बेटे ने शुक्रवार की शाम फोन पर बताया कि शादी अमन-चैन से बीत गई। बारात वापस चली गई है।
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शब्बीरपुर को राष्ट्रीय सुर्खियों में बने जल्द ही महीना भर हो जाएगा। कोई यह आरोप नहीं लगा सकता कि मीडिया ने दलितों पर लगातार तीन बार हुए हमले की जघन्य घटना को कवर नहीं किया। इस बार हालांकि इस कवरेज में एक बड़ी पेंच है। उस पेंच का नाम है भीम आर्मी। धूमिल लिख गए थे कि एक आदमी रोटी खाता है और दूसरा आदमी रोटी बेलता है। जिस तीसरे अदृश्य आदमी पर उन्होंने सवाल खड़ा किया था, ऐसा लगता है कि मीडिया को उसकी चिंता ज्यादा है। सहारनपुर की घटना की कवरेज में मार खाए दलितों और मारने वाले ठाकुरों पर उतनी बात नहीं की गई, जितना भीम आर्मी नाम के तीसरे पक्ष पर समय ज़ाया किया गया। इसका एक नुकसान हुआ है और एक फायदा। नुकसान यह हुआ है कि मूल मुद्दे से ध्यान को भटका दिया गया है। फायदा यह हुआ है कि गांव-गांव में टीवी देखकर लोग भीम आर्मी को जान गए हैं।
मेरठ के जिला अस्पताल में 23 मई की घटना के घायलों को देखने के लिए जब हम अगले दिन पहुंचे, तो वहां हमारी मुलाकात एडवोकेट चमन भारती से हुई। घायलों की सहायता करने के लिए वहां कई दलित संगठनों के नुमाइंदे पहुंचे हुए थे। भारती उन्हीं में एक थे, जो काफी आक्रोश में दिख रहे थे। वे इस बात को लेकर चिंतित थे कि भीम आर्मी जैसे संगठनों का बेस शहर हैं, लेकिन हिंसा गांवों में हो रही है जिस पर उनका कोई नियंत्रण नहीं है। संयोग से तीन दिन पहले दिल्ली के जंतर-मंतर पर भीम आर्मी का बड़ा प्रदर्शन था जिसमें वहां मौजूद सभी लोग गए हुए थे। ये सब पढ़े-लिखे दलित हैं जो व्यवस्था में ठीकठाक जगहों पर बैठे हुए हैं। भारती का मानना है कि बात अब भीम आर्मी से काफी आगे जा चुकी है और यह पूरे दलित समाज का सवाल बन चुका है। मीडिया हालांकि अब भी भीम आर्मी पर ही अटकी हुई है।
इसकी एक ठोस वजह है। अव्वल तो भीम आर्मी पर फोकस करने से घटना की सूक्ष्मता और विवरणों को पेश करने से बचा जा सकता है। दूसरे, भीम आर्मी का खौफ़ दिखाकर शहरी सवर्ण दर्शक के दिमाग में ठीक उलटा नैरेटिव बैठाया जा सकता है। यह ज़हर अब असर करने लगा है। न्यूज़ नेशन चैनल का एक पत्रकार जो तकरीबन रोज़ मुझसे मिलता है, मेरे लौटने के बाद सहारनपुर का जिक्र आते ही पहला सवाल पूछता है, ”वहां दलित मिलकर ठाकुरों को मार रहे हैं न?” यह पूछे जाने पर कि कैसे वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा, उसका कहना है कि उसके चैनल का रिपोर्टर जो भेजता है उसके आधार पर वह ऐसा कह रहा है। फिर अगले ही वाक्य में वह भीम आर्मी को भाजपा प्रायोजित बता देता है क्योंकि चैनलों पर बसपा सुप्रीमो मायावती का बयान खूब चला है।
ऐसी धारणा सुनियोजित रूप से बनाई जा रही है। ऐसा नहीं है कि अखबारों और पत्रिकाओं ने हालात की सही रिपोर्टिंग नहीं की है, लेकिन अंतिम असर टीवी का होता है और नेशनल टीवी तीसरे आदमी पर फोकस किए हुए हैं। यह तीसरा आदमी यानी चंद्रशेखर आज़ाद सहारनपुर के ग्रामीण नौजवानों के मोबाइल में एबीपी न्यूज़ के साक्षात्कार के माध्यम से कैद हो चुका है। वे उसके बारे में कुछ नहीं जानते, लेकिन हर अगले को उसका वीडियो दिखाते हैं। उनके पास मायावती की एक काट आ चुकी है और वे पूरे भ्रम में हैं कि किस पर भरोसा किया जाए। जो भ्रम दिल्ली में फैलाया जा रहा है, वह सहारनपुर तक अपना असर छोड़ रहा है।
इसके पीछे एक वजह संपादकों की चतुराई भी है। जिन संपादकों को तमाम मसलों पर दूसरे पक्ष की याद नहीं आती, उन्हें बड़ी बेसब्री से ठाकुरों की बाइट की प्रतीक्षा है। न्यूज़ वर्ल्ड और इंडिया टुडे ग्रुप के संवाददाताओं पर दबाव है कि वे ठाकुरों का पक्ष लेकर आएं। संपादक फोन पर संवाददाता को समझाता है कि एकतरफ़ा खबर वह नहीं चला सकता क्योंकि यह उसूलों के खिलाफ़ होगा। इसलिए ठाकुरों का पक्ष जानना ज़रूरी है। लल्लनटॉप का संपादक अपने संवाददाता से फोन पर कहता है, ”आखिर एक ठाकुर मरा है। उनका पक्ष जानना ज़रूरी है।” वह सुमित राणा की बात कर रहा है जो पत्थर लगने के बाद दम घुटने से मर गया था। उसकी पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट में मरने का कारण ”एसफिक्सिया” बताया गया है, जिसे फॉरवर्ड प्रेस को दिए साक्षात्कार में पुलिस अधीक्षक ने खुद पुष्ट किया। पुलिस अधीक्षक का कहना था कि उसकी मौत दम घुटने से हुई और पत्थर से लगी चोट इतनी बड़ी नहीं थी कि उससे जान जा सकती थी। लल्लनटॉप हो या कोई और मीडिया, हवा में शर्त लगाई जा सकती है कि किसी ने भी फॉरवर्ड प्रेस की स्टोरी या साक्षात्कार को नहीं पढ़ा होगा। किसी ने समित राणा की पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट भी नहीं देखी होगी। राणा की पत्नी के खाते का विवरण सोशल मीडिया पर घूम रहा है और उसके परिवार की मदद के लिए पैसे भेजे जा रहे हैं। बिना यह पता किए कि कौन है इस कैम्पेन के पीछे, मीडिया एक ठाकुर की मौत को हत्या मानकर दूसरे पक्ष के आग्रह तले तलवारों से कटी दो दर्जन दलित गरदनों से बहता खून अनदेखा कर रहा है।
डॉ. शाकिर सहारनपुर में अपना क्लीनिक चलाते हैं। पहले ‘कलयुग दर्शन’ नाम का अखबार निकालते थे। देश-विदेश में घूमे हुए हैं। वे मीडिया के बारे में एक दिलचस्प बात कहते हैं, ”मीडिया को शब्बीरपुर में खतरा है- दलितों से भी और राजपूतों से भी।” दलितों से उस मीडिया को खतरा है जिसने राजपूतों का पक्ष दिखाया है। राजपूतों से उस मीडिया को खतरा है जिसने दलितों का पक्ष दिखाया है। अजीब बात है कि हमला एकतरफ़ा है, उसके बावजूद रिपोर्टिंग पक्षों की हो रही है। मीडिया ने अपनी हालत ऐसी बना ली है कि उसका परिचय ही उसके लिए खतरा बन गया है। दिलचस्प यह है कि पक्षपातपूर्ण रिपोर्टिंग से बचने की कोशिश में बाकी मीडिया ने चंद्रशेखर आज़ाद को ”रावण” बना डाला है। सहारनपुर में लोगों को इस बात का डर है कि पुलिस कहीं उसका एनकाउंटर न कर दे। यह डर बेबुनियाद नहीं है। इस डर के पीछे वह ताकत है जो गोरक्षनाथ पीठ से आ रही है। इस डर के पीछे वह भरोसा है जो लखनऊ से दिलवाया जा रहा है।
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इतिहास खुद को दोहराता है ।।
क्षत्रिय राजपूतों के राज में युग कैसे करवट बदलता है ।।
इसका प्रत्यक्ष प्रमाण ।।
प्रस्तुत करता हूँ ।।
उज्जैन के राजा भृतहरि ने राज छोड़कर श्री गुरू गोरक्ष नाथ जी से योग की दीक्षा ले ली और तपस्या करने जंगलों में चले गए , राज अपने छोटे भाई विक्रमदित्य जी को दे दिया , वीर विक्रमादित्य जी ने भी श्री गुरू गोरक्ष नाथ जी से गुरू दीक्षा लेकर राजपाट सम्भालने लगे और आज उन्ही के कारण सनातन धर्म बचा हुआ है, हमारी संस्कृति बची हुई है
महाराज विक्रमदित्य ने केवल धर्म ही नही बचाया उन्होंने देश को आर्थिक तौर पर सोने की चिड़िया बनाया, उनके राज को ही भारत का स्वर्णिम राज कहा जाता है। विक्रमादित्य के काल में भारत का कपडा, विदेशी व्यापारी सोने के वजन से खरीदते थे भारत में इतना सोना आ गया था की, विक्रमादित्य काल में सोने के सिक्के चलते थे , आप गूगल इमेज कर विक्रमादित्य के सोने के सिक्के देख सकते हैं। और सर्वोपरि विक्रम संवत भी महाराजा विक्रमादित्य की दें है ।।
#पूज्य_महंत_योगी_आदित्यनाथ_जी_महाराज भी श्री गुरु गोरक्षनाथ जी के दीक्षित शिष्य हैं ।।
आगे आप सब बुद्धिमान हैं , भविष्य उज्जवल और सुरक्षित है ।।
स्वर्णिम भविष्य के आप गवाह बनेंगे ये तय है,
पूज्य योगी आदित्यनाथ जी महाराज
को अपना तन मन धन से साथ दे कर मजबूत बनाएं ।।
भारत सोने की चिड़या फिर बनेगा ।।
क्षत्रिय जब भी संपूर्ण वर्चस्व के सत्ता में आया है परिवर्तन का गवाह ये संसार बना है ।।
जय क्षात्र धर्म ।।
जय जवान जय किसान ।।।
यह ‘पुंडीर, क्षत्रिय राजपूत’ नाम के फेसबुक पेज पर 1 अप्रैल को पोस्ट किया गया स्टेटस है जो क्षत्रियों को संबोधित करते हुए कहता है, ”आगे आप सब बुद्धिमान हैं, भविष्य उज्ज्वल और सुरक्षित है”। इस स्टेटस को 105 बार शेयर किया गया है। इस पेज के कवर पर महाराणा प्रताप की तस्वीर है। इसे करीब 30,000 लोगों ने लाइक किया है जो ज़ाहिर तौर पर राजपूत हैं। डॉ. शाकिर राजपूत की परिभाषा कुछ यूं बताते हैं, ”राजपूत मतलब जिसका राज, उसका पूत।” गोरखनाथ पीठ के महंत योगी आदित्यनाथ जाति से राजपूत हैं। क्षत्रियों को इस बात का निहितार्थ समझाने की बहुत ज़रूरत नहीं है, इसीलिए लिखने वाला कहता है, ”आगे आप सब बुद्धिमान हैं…।”
शब्बीरपुर गांव में हमारी निगाह एक मकान पर पड़ती है। उसके मुख्य द्वार पर गाढ़े पेंट से बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा हुआ है, ”जय राजपुताना”। राजस्थान को छोड़ दें, तो बाकी भारत के गांवों में ऐसी तस्वीर मैंने पहले कभी नहीं देखी, वह भी उत्तर प्रदेश में। ग्रामीण सवर्ण ठाकुर घरों के बाहर दीवारों पर ‘शुभ लाभ’ से लेकर मालिक का नाम या शादी का न्योता तक तो पेंट हो सकता है, लेकिन ‘जय राजपुताना’ लिखना एक नई रवायत है। फेसबुक पर सर्च में ‘जय राजपुताना’ लिखकर खोजिए, पचास से ज्यादा एक ही नाम के समूह मिल जाएंगे। गूगल पर सर्च करने से कई ऐसे पेज मिलते हैं जो राजपूतों का ‘गौरवशाली’ इतिहास बखान करते हैं। इस गौरव का गान इधर बीच तेज़ी से बढ़ा है। जितने भी फेसबुक पेज राजपूत अस्मिता के हैं, वे सब बीते दो-तीन साल की पैदाइश हैं। दिल्ली से 2014 में एक पत्रिका पंजीकृत हुई है जिसका नाम है ‘सिंह गर्जना‘ और आरएनआइ में पंजीकरण संख्या DELHIN/2014/56501 है। इस पत्रिका के पहले अंक के कवर पर गृहमंत्री राजनाथ सिंह और पूर्व जनरल व बीजेपी सांसद वी.के. सिंह की तस्वीर है। ऐसी एक नहीं, कई पत्रिकाएं बीते तीन साल में निकली हैं। ‘सिंह गर्जना’ का दावा है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जिस इलाके को जाटलैंड कहा जाता है, वह दरअसल राजपूत लैंड है। पत्रिका दूसरे राजपुताने के निर्माण का आह्वान करती है।
जातिगत पहचान की राजनीति के दौर में भले यह सब उतना अटपटा न लगता हो, लेकिन सवाल उठता है कि सहारनपुर के एक मामूली से गांव में मकानों पर ‘जय राजपुताना’ लिखने का 5 मई की घटना के संदर्भ में क्या महत्व हो सकता है और क्यों? इसका जवाब भी 5 मई के हमले में मिलता है। जिस वक्त पचासेक ठाकुर युवकों ने शब्बीरपुर पर हमला बोला, उस वक्त पड़ोस के गांव शिमलाना में एक भव्य कार्यक्रम चल रहा था। शिमलाना राजपूत बहुल गांव है। शब्बीरपुर की तरह ही यह सहारनपुर-देवबंद मुख्य मार्ग से कुछ भीतर की ओर है और करीब पांच किलोमीटर दूर दूसरी दिशा में है। इस गांव के राजपूतों का इलाके में प्रभाव केवल एक तथ्य से समझा जा सकता है कि गांव के बीचोबीच इलाके का इकलौता डिग्री कॉलेज बीते छह दशकों से खड़ा है- महाराणा प्रताप डिग्री कॉलेज। यही वह कॉलेज है जिसके मैदान में 5 मई को हजारों की संख्या में राजपूत महाराणा प्रताप की जयन्ती मनाने के लिए जुटे थे। वे केवल स्थानीय लोग नहीं थे, बल्कि हरियाणा, पंजाब और उत्तराखण्ड से भी आए थे। कार्यक्रम के पोस्टरों पर मुख्य अतिथि सुरेश राणा का नाम छपा था, जिसे आज भी कॉलेज के मुख्य द्वार पर चिपका देख जा सकता है लेकिन मुख्य आकर्षण फूलन देवी के हत्यारे शेर सिंह राणा की मौजूदगी थी। शेर सिंह राणा उर्फ पंकज सिंह पुंडीर उम्रकैद की सज़ा काट रहा है जो पिछले दिनों ज़मानत पर बाहर आया है।
शिमलाना और शब्बीरपुर के बीच 5 मई को घटी कहानी अनुराग कश्यप की फिल्म ‘गुलाल’ से काफी कुछ मेल खाती है, जिसमें एक वर्चस्वशाली राजपूत नेता का किरदार निभा रहे के.के. मेनन मुंह पर लाल गुलाल पोते राजपूतों को याद दिलाते हैं कि गुलाल मलने से कुछ नहीं होगा, ‘क्रांति करनी है तो चेहरे पर खून की लाली होनी चाहिए’। बिलकुल यही भाषा और लहजा ‘पुंडीर, क्षत्रिय राजपूत’ नाम के फेसबुक पेज की तमाम पोस्टों में देखने को मिलता है। 5 मई की कहानी का नायक शेर सिंह राणा है। पड़ोस के गांव चंदपुर के लड़के बताते हैं कि राणा ने उस दिन यहां एक भाषण दिया था जिसके बाद हिंसा बड़े पैमाने पर भड़की। शेर सिंह राणा खुद कार्यक्रम में मौजूद होने की बात फॉरवर्ड प्रेस को दिए एक साक्षात्कार में कुबूल करता है। लड़के एक वीडियो दिखाते हुए दावा करते हैं घोड़े पर बैठा शख्स राणा है।
राणा को राजपूत अपनी बिरादरी का आइकन मानते हैं क्योंकि उसने राजपूतों की हत्या करने वाली फूलन देवी को मारा और तिहाड़ जेल से भागकर अफगानिस्तान गया जहां से राजपूतों के नायक पृथ्वीराज चौहान की समाधि के अवशेष लेकर भारत आया। दो साल तक फ़रार रहने के बाद उसने 2006 में पुलिस को सरेंडर कर दिया था। उसके बाद से शेर सिंह राणा राजपूत अस्मिता का सबसे बड़ा प्रतिनिधि बनकर उभरा। राजपुताना को हासिल करने का आवाहन करने वाली तमाम वेबसाइटें शेर सिंह राणा का जीवन परिचय देते हुए एक ही कहानी सुनाती हैं कि पृथ्वीराज चौहान की समाधि के अवशेषों को वापस लाने की प्रेरणा उसे भाजपा के नेता और तत्कालीन विदेश मंत्री जसवंत सिंह से मिली थी जो उस वक्त कंधार में हाइजैक हुए एयर इंडिया का विमान वापस लाने के लिए वहां गए थे और वापस आकर उन्होंने समाधि के हो रहे अपमान पर दुख जताया था।
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सहारनपुर एक दौर में पुंडीर राजपूतों (पुरंदरों) की रियासत रहा है। यहां उनकी कुलदेवी शाकुम्भरी देवी का शक्तिपीठ स्थित है। इस पीठ के तार राजस्थान के नागौर से जुड़ते हैं। वहां भी शाकुम्भरी देवी का एक पीठ है जो पुंडीरों और चौहानों की कुलदेवी है। देखने में चाहे कितना ही हास्यास्पद क्यों न लगे, लेकिन फेसबुक से लेकर वॉट्सएप तक राजपूत समूहों के बीच फैले संदेशों को अगर पढ़ा जाए तो आपको कुछ शब्द समान रूप से हर जगह मिलेंगे: ‘बाईसा’, ‘बन्ना’, ‘हुकुम’, ‘क्षत्राणी’, ‘क्षात्र धर्म’, ‘जय मॉं भवानी’, ‘रॉयल राजपुताना’, इत्यादि। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में राजस्थान के राजपुताने की भाषा के संबोधन का वापस लौटना दिलचस्प परिघटना है। भाषा में ही नहीं, बल्कि ‘पुंडीर, क्षत्रिय राजपूत’ के फेसबुक पेज पर लगी बंदूकधारी नौजवानों की ठसक भरी तस्वीरों और दलितों को हड़काते वीडियो में भी राजपुताने का अतीतगामी गौरव देखा जा सकता है। यह परिघटना केवल देश तक ही सीमित नहीं है। ऑस्ट्रेलिया के मेलबर्न में कुछ राजपूत युवकों को एक किस्म की टीशर्ट पहने महाराणा प्रताप जयन्ती मनाते हुए दिखाया गया है।
सहारनपुर की घटना के संदर्भ में सजातीय लोगों से 25 मई को निम्न आह्वान किया गया है:
#सहारनपुर
स.पुर पीडित किसी ठाकुर भाई को हाईकोर्ट आना पड़ा तो निःशुल्क मुकदमा लडेंगे हम 9536990211
इस पहल के लिए भाई का आभार।।
धन्यवाद।।
देश के बाहर कहां-कहां महाराणा प्रताप की जयन्ती मनाई जा रही है, उसका सारा विवरण इस पेज पर है। इसके अलावा एक दिलचस्प पोस्ट छत्तीसगढ़ के सुकमा में पिछले दिनों मारे गए 20 नक्सलियों की खबर पर है जिसमें सीआइएसएफ और एसटीएफ की टीम की अगुवाई करने वाले पुलिस महानिरीक्षक देवेंद्र सिंह चौहान का अभिनंदन किया गया है क्योंकि वे जाति से राजपूत हैं। पोस्ट से ज्यादा दिलचस्प दैनिक जागरण की क्लिपिंग है। खबर में दो बार लिखा गया है कि सुकमा में 20 नक्सलियों को मार गिराने की खबर जब मैनपुरी पहुंची तो चौहान के पैतृक जिले मैनपुरी में ”हर्ष की लहर दौड़ गई”।
भाई शेर सिंह राणा का जन्मदिवस:
शेर सिंह राणा का जन्म 17 मई 1976 को उत्तराखंड के रुड़की में हुआ था।
आज भाई शेर सिंह राणा जी का जन्मदिवस है, आधुनिक वीर शिरोमणि,क्षत्रिय हृदय सम्राट “शेर सिंह राणा“।
शेर सिंह राणा उर्फ़ पंकज सिंह पुण्डीर, वो शूरवीर जिसने 21 निर्दोष राजपूतों की हत्यारिन डकैत फूलन का संहार किया, वो वीर जो जेल से फरार होकर अपनी जान पर खेलकर भारतवर्ष के अंतिम हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चौहान की समाधि के अवशेष भारत वापस लाया—
पुंडीर क्षत्रिय पेज परिवार की और से शेरसिंह राणा जी को जन्मदिवस की सुभकामनाए उनको कोटि कोटि नमन।।
जय राजपूताना।।
जय क्षात्र धर्म।।
यह संदेश 17 मई को शेर सिंह राणा के जन्मदिवस पर पुंडीरों के फेसबुक पेज पर पोस्ट किया गया। स्थानीय पत्रकारों का कहना है कि इंटेलिजेंस की रिपोर्ट के मुताबिक राणा न सिर्फ 5 मई के पहले से ही इलाके में डेरा डाले हुए था, बल्कि उसके जन्मदिन का अभिनंदन समारोह भी शिमलाना गांव में 17 मई को आयोजित किया गया। 23 मई को जब मायावती की रैली शब्बीरपुर में होनी थी, उस दिन सुबह-सुबह कई राजपूतों के कुर्ते-पाजामे में तिलक लगाए इकट्ठा होने की खबर आसपास के कुछ गांव वालों को मिली थी। चंदपुर गांव का एक दलित लड़का जो महाराणा प्रताप डिग्री कॉलेज का ही छात्र है, बताता है कि उस दिन राजपूतों ने इकट्ठा होकर पूजी की थी और ‘धर्मयुद्ध’ छेड़ने की कसम खाई थी। जबरदस्त पुलिस सुरक्षा के बीच वे आम के बाग में दिनभर अपने मौके का इंतज़ार करते रहे और आखिरकार शाम को रैली से लौट रही एक जीप पर उन्होंने हमला बोल दिया।
यह घटना चंदपुर से करीब एक किलोमीटर आगे बड़गांव के क्षेत्र में मुख्य मार्ग पर हुई थी। यह इलाका चंदपुर में नहीं आता, हालांकि थाना बड़गांव का ही लगता है। चंदपुर के लोगों का कहना है कि घटना को जबरन चंदपुर में घटा दिखा दिया गया जबकि उनके गांव का इससे कोई लेना-देना नहीं है। पुलिस यह नहीं दिखाना चाहती थी कि घटना बड़गांव की सीमा में घटी है और मीडिया ने भी घटना का क्षेत्र चंदपुर ही दिख दिया, जबकि घटनास्थल चंदपुर की सीमा से 500 मीटर आगे है। ग्राम प्रधान महेंद्र सिंह के छोटे भाई कहते हैं, ”मीडिया ने उसे यहां गेर दिया, तबाह हो गए हम। रिश्तेदारों के फोन दर फोन आ रहे हैं जी…।” जब हम हमले के स्थान पर पहुंचे, तो जीप का टूटा हुआ कांच जस का तस सड़क पर बिखरा हुआ था और सड़क पर काले पड़ चुके खून के धब्बे साफ़ नज़र आ रहे थे। उस दिन केवल जीप को ही निशाना नहीं बनाया गया बल्कि रैली से लौट रही एक बस पर भी हमला हुआ था। अगले दिन इस हमले के आरोपी ठाकुरों की गिरफ्तारी चंदपुर गांव से हुई।
चंदपुर के प्रधान महेंद्र सिंह बताते हैं कि मायावती की रैली से लौट रही बस को जब हथियारबंद राजपूतों ने रोका, तो ड्राइवर ने काफी चतुराई दिखाते हुए पहले ब्रेक मारा और फिर अचानक रफ्तार बढ़ा दी। इसके चलते बस के ठीक पीछे जो जीप आ रही थी, वह बस से छू गई जिसका फायदा उठाकर राजपूतों ने उसमें सवार बसपा समर्थकों को तलवार से मारा जिसमें एक आदमी की मौत हो गई। बाद में जब वह बस चंदपुर के आगे अम्हेटा चांद गांव पहुंची, तो वहां बस से उतार कर लोगों को यह कहते हुए मारा गया कि ”वहां तो तुम बच गए थे, यहां नहीं बच पाओगे।” उसी के बाद कुतबा माजरा गांव में भी ऐसी ही मारकाट हुई। वे बताते हैं कि इस किस्म की मारकाट की घटनाएं ससूढ़ी, लकादरी आदि कई जगहों पर हुई हैं लेकिन रिपोर्ट नहीं की गई हैं। उनके मुताबिक जहां कहीं किसी राजपूत के हाथों कोई दलित लड़का लग जा रहा है, उसे बख्शा नहीं जा रहा।
रैली से लौट रही बस में बैठा चंदपुर निवासी एक दलित घटना का चश्मदीद गवाह था। उसने बताया, ”मैं जैसे ही रैली से लौटकर आया, बच्चों ने खबर दी कि रास्ते में दो लड़के मार दिए। लड़के बहुत उत्तेजित थे। हमने उन्हें रोक दिया कि इस मामले में नहीं पड़ना है। पुलिस भी आई थी पूछताछ करने, हमने कह दिया कि हमारे यहां से इसका लेना-देना नहीं है।” चंदपुर के लोग बताते हैं कि 23 मई को हमला करने वाले कुछ लोग उन्हीं के गांव के थे। वे बताते हैं कि 5 मई के हमले के अगले दिन एक लड़का मुंह पर कपड़ा लपेटे और हाथ में तलवार लिए हुए सड़क पर दलितों को गाली देते हुए खुलेआम घूम रहा था। एक ग्रामीण कहते हैं, ”हम तो मजदूर आदमी हैं जी, कौन बोले और पूछने जाए…। वैसे भी हमारा सारा काम उस दिन के बाद से ठप पड़ा हुआ है। कोई आदमी मजदूरी पर नहीं गया है।”
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चंदपुर में कुल 6000 बीघा कृषि भूमि का रकबा है जिसमें बमुश्किल डेढ़ दो सौ बीघा ही दलितों के पास है। चार-पांच दलित परिवारों को छोड़ दें तो सारे दलित राजमिस्त्री या बेलदारी का काम करते हैं। महेंद्र प्रधान के भाई कहते हैं, ”अकेला आदमी डर के मारे कहीं नहीं जा सकता। एक दिन की ढाई सौ दिहाड़ी भी मुहाल हो गई है। सब हाथ के दस्तकार हैं या कारखाने में काम करते हैं। आज सब खाली बैठे हैं।”
शब्बीरपुर की आर्थिक स्थिति इस मामले में काफी बेहतर है। लोग बताते हैं कि गांव में मतदाताओं की संख्या तो कमोबेश चंदपुर जितनी ही है लेकिन जमीन का रकबा ज्यादा है। शब्बीरपुर में कुछ दलित परिवार ऐसे हैं जिनके पास सवा सौ बीघा तक ज़मीन है। यह संपन्नता शब्बीरपुर में साफ़ देखी भी जा सकती है। मोटरसाइकिल तो तकरीबन हर घर में है। सभी के घर में केबल टीवी लगा है। मोबाइल सबके हाथ में होना आम बात है। इसके अलावा इस गांव के लोग प्राइवेट नौकरियों में भी लुधियाना आदि जगहों पर काम करते हैं।
मेरठ अस्पताल में 23 मई की घटना के घायलों को देखने आईं लखनऊ की रहने वाली दलित कार्यकर्ता संगीता बताती हैं कि पूर्वांचल का दलित दो जून की रोटी जुगाड़ने का ही संघर्ष कर रहा है, लेकिन पश्चिमी उत्तर प्रदेश में वह इससे काफी आगे बढ़ चुका है। एडवोकेट भारती कहते हैं, ”हम लोग पढ़-लिख कर सरकारी नौकरियों में आ गए या प्राइवेट नौकरी कर रहे हैं। ज़ाहिर है, हम कमाएंगे तो हमारी आर्थिक हालत सुधरेगी। मान लो कि हमने एक बाइक खरीद ली। कुछ सुख-सुविधाएं जुटा लीं। अब बाइक तो ऐसी चीज़ है जो प्रत्यक्ष दिखती है। उन लोगों की आंखों में यही गड़ता है कि साला सायकिल से चलने के लायक जो नहीं था, वह आज बाइक से कैसे चल रहा है।” संगीता कहती हैं, ”मैं तो लखनऊ से हूं। मैंने यहां आकर साफ़ फ़र्क देखा। वहां यह टकराव नहीं है तो उसकी वजह वहां की गरीबी है।”
दलितों में पढ़ाई-लिखाई का माहौल देखना हो तो सहारनपुर शहर के रविदास छात्रावास का रुख करना चाहिए, जिसके भीतर और बाहर 5 मई के बाद से ही पुलिस का तगड़ा पहरा है। पुलिस की दलील है कि यह छात्रों की सुरक्षा के लिए किया गया है। छात्रों को इससे कोई खास मतलब नहीं है क्योंकि उनकी परीक्षाएं चल रही हैं और किसी से भी बात करने का उनके पास वक्त नहीं है। आइटीआइ में पढ़ रहे सचिन अपनी कसी हुई दिनचर्या में से थोड़ा सा वक्त निकाल कर हमें वे नफ़रत भरे वीडियो दिखाते हैं जिसे राजपूत युवाओं ने अपनी बिरादरी के बीच प्रसारित किया है। इस वीडियो में दो राजपूत युवक अपनी मूंछ पर ताव देते हुए दलितों को गाली दे रहे हैं और उन्हें मार डालने की धमकी दे रहे हैं। हम वीडियो देख रहे होते हैं, तभी बगल से एक छात्र गुज़रता है और वीडियो पर नज़र पड़ते ही उसके भीतर दबा आक्रोश जबान पर आ जाता है और भद्दी सी गाली निकल पड़ती है।
हमें बताया गया था कि कुल सोलह कमरों वाला यह सरकारी छात्रावास सहारनपुर का मिनी जेएनयू है। इस मिनी जेएनयू की हालत यह है कि नहाने और पीने के लिए केवल एक सरकारी नल है। एक कमरे में चार से पांच छात्र भयंकर गर्मी में रहते हैं। कॉमन रूप के सामने पानी छानने की एक नई आरओ मशीन लगी है, लेकिन छात्रों ने खुद उसे लगवाया है। वह अब तक चालू नहीं हुई है। फर्श को छात्रों ने खुद अपनी मेहनत से सीमेंट से पक्का किया है। मैदान में खेलने कूदने की सुविधाएं भी छात्रों ने की है। जो हलका फुलका बाग बगीचा दिख रहा है, वह भी श्रमदान का परिणाम है। सरकार का फंड कहां जाता है, यह किसी को पता नहीं है।
छात्रों से मिलने पर तो इसके मिनी जेएनयू होने का कोई खास अंदाजा नहीं लगता, लेकिन वार्डन के प्रतिनिधि राजेश लाघव से लंबी बातचीत में पता लगता है कि इस छात्रावास में कभी-कभार ‘समाज’ के संगठन बैठक करते हैं। सचिन कहते हैं, ”हम लोगों को अपने खर्चे-पानी और सुविधाओं के लिए इन संगठनों से मदद चाहिए होती है। ये लोग हमारी सुनते हैं और मदद भी करते हैं। बदले में हम इनके सांगठनिक कामों में हाथ बंटाते हैं।” भीम आर्मी के नेता चंद्रशेखर आज़ाद ने भी यहां एक बैठक की है। वे बताते हैं कि 2016 में घड़कोली की घटना (जिसमें बाबासाहब की प्रतिमा पर ठाकुरों ने कालिख पोत दी थी और जहां से सारा टकराव शुरू हुआ था) के बाद छात्रावास में दलित समाज की एक बैठक हुई थी जिसमें चंद्रशेखर आया था। वे कहते हैं, ”चंद्रशेखर का मेन फोकस दलित समाज में शिक्षा पर है क्योंकि अगर हमारे समाज का बच्चा पढ़-लिख कर आगे बढ़ेगा तो हम कभी पीछे नहीं रहेंगे। लड़ाई से हम कभी नहीं जीत सकते हैं।”
दलितों में पढ़ाई-लिखाई को लेकर उत्साही माहौल का बेहतरीन उदाहरण चंदपुर गांव है जहां अधिसंख्य दलित दिहाड़ी मजदूर हैं, फिर भी दलित युवाओं रोज़ प्रतियोगी परीक्षाओं का ट्यूशन लेते हैं। ग्राम प्रधान के आंगन में एक वाइट बोर्ड लगा हुआ है। गांव के ही एक युवक संदीप यहां दलित युवाओं को प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करवाते हैं। अधिकतर तैयारी बी ग्रेड सरकारी नौकरियों की होती है, जैसे एसएसी, बैंक, आदि। मामला केवल दिमागी जमाखर्च तक ही सीमित नहीं है। दलितों के बीच कुछ लोग आत्मरक्षा का कौशल भी हासिल कर के उसका मुफ्त में प्रसार कर रहे हैं। इन्हीं में एक हैं सेन्सई मुकेश सिद्धार्थ, जो ग़ाजि़याबाद के मोदीनगर में रहते हैं ओर दलित समाज की लड़कियों को आत्मरक्षा की तकनीकें सिखाते हैं। वे मोदीनगर में मार्शल आर्ट एकेडमी चलाते हैं, डॉ. आंबेडकर स्पोर्ट्स फाउंडेशन के संयोजक हैं और इंटरनेशनल कराटे यूनियन के सदस्य भी हैं। मुकेश चीन के शाओलिन टेंपल से प्रशिक्षण प्राप्त कर के लौटे हैं। अगले साल फिर से उन्हें चीन जाना है। अभी पूरी तरह प्रशिक्षित होने में उन्हें एक स्टेज पार करना बाकी रह गया है।
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पश्चिमी उत्तर प्रदेश के शहरों में दलित समाज के तमाम संगठन पढ़े-लिखे दलितों की मदद से चल रहे हैं जो सहारनपुर की घटना में घायल दलितों को लगातार सहायता मुहैया करवा रहे हैं। उनकी दवाएं ला रहे हैं। उनके परिवारों का खयाल रख रहे हैं। मुकेश बताते हैं कि इन संगठनों में कुछ लोग ऐसे भी घुसे हुए हैं जो अपनी जातिगत पहचान का लाभ उठाकर ”दोनों तरफ़ रोटियां सेंक” रहे हैं। 24 मई की दोपहर मेरठ जिला अस्पताल में घायलों को देखने आए ‘समाज’ के लोगों के बीच चल रही गंभीर चर्चा में अचानक एक भारी आवाज़ दखल देती है, ”और बताओ जी, आगे क्या करना है?” मध्यम कद के ये सज्जन अपना परिचय डॉ. रवि प्रकाश के रूप में देते हैं और खुद को युनिवर्सिटी का पुराना लीडर व समता सैनिक दल का राष्ट्रीय सचिव बताते हैं। वे पूरे अधिकार से वहां खड़े लोगों से पूछते हैं कि 23 की घटना की क्या प्रतिक्रिया होनी चाहिए। लोगों की आधी-अधूरी राय लेने के बाद वे सबको ज्ञान देना शुरू करते हैं, ”देखो, आधा ज्ञान बड़ा खतरनाक होता है। अपनी जानकारी पूर्ण रखो। मजबूत कार्रवाई रखो1 जब बड़े अधिकारी से, बड़े नेता से बात करोगे तो अपना कागज़ मज़बूत रखना होगा।”
इसके बाद उन्होंने पूरी घटना में हुई गिरफ्तारियों और कार्रवाई का विवरण देना शुरू किया, ”मुकदमा कायम हुआ था। जब तक डीजीपी वहां गया तब तक 17 लोग गिरफ्तार हुए जिसमें सात चमार थे और दस ठाकुर थे। 9 तारीख की घटना के बाद 34 चमार और गिरफ्तार हुए जो दनमकारी नीति थी पुलिस की। इसके बाद जो भी काम हमने किया वह रणनीतिक रवैया था। एडीजी से मैंने आदेश दिलवा दिया था 12 तारीख को कि अब किसी भी शिड्यूल कास्ट के लोगों की गिरफ्तारी नहीं होगी। उसके बाद ये आदेश आया कि अगर किसी पर शक है तो उसे नोटिस जारी होगा। रासुका जैसी चीज़ पर कोई ऐक्शन नहीं लिया गया। जहां तक नक्सली कनेक्शन की बात थी उस साले कप्तान की, एडीजी ने उसके खिलाफ़ भी बयान दिया। हम लोगों को वो भी समझना चाहिए। सारी जगह दलित मज़बूत नहीं हैं। शहर में बोये हुए बीज गांव में वो लोग काटें बेचारे जो दस-दस पंद्रह-पंद्रह लोगों के परिवार लेकर रह रहे हैं… हमें प्रयास तो ये करना चाहिए कि हम प्रेशर तो बनाएं बेइंतहां, लेकिन कोई भी काम ऐसा न करें जिससे गांव में रहने वाले लोगों को दिक्कत हो जाए।”
सबने उनकी बात में हां में हां मिलायी। मैंने उनसे पूछा कि भीम आर्मी के बारे में उनका क्या खयाल है। वे बोले, ”चंद्रशेखर भी अपना ही लड़का है। सबका अपना-अपना क्षेत्रीय संगठन है। क्या होता है न कि परिस्थितियां ही नेताओं का निर्माण करती हैं… तो आगजनी के बाद लोगों में गुस्सा तो था ही… फ्रस्ट्रेशन था कि सरकारें एकतरफ़ा कार्रवाई क्यों करती हैं। बड़ी घटना क्या हुई… पुलिस को मेंटली और साइकोलॉजिकली तैयार रहना चाहिए था कि ज्ञापन धरना प्रदर्शन तो होता ही। तो ज्ञापन धरना प्रदर्शन के लिए भीम आर्मी के लोग बैठक कर रहे थे। उनके बीच दो ढाई सौ लड़के थे। एक एमपी सिंह नाम का दरोगा है, उसने जाकर लाठी बजा दी। इसके बाद रिएक्शन हुआ है। चुपचाप ज्ञापन ले लेते उससे। इसके बाद एक बड़ी महत्वपूर्ण बात ये हुई कि एसएसपी ने नक्सली कनेक्शन बता दिया, डीएम ने कहा गोली मारो… बॉर्डर पर तो गोली चल नहीं रही, यहां गोली लगवा रहा तू प्रदर्शनकारियों पर… तो ये सब चीजें हैं..। अब ये दिल्ली वाला जो मामला है, वहां पहुंची भीड़ पूरे देश के सामाजिक संगठनों की भीड़ है, किसी एक संगठन की नहीं है। वो तब गए हैं जब बीएसपी ने पल्ला झाड़ लिया और दिल्ली पुलिस ने भी मना कर दिया था।”
इसके बाद जब डॉ. रवि प्रकाश वहां से निकल गए, तो संगीता ने एक साथी से कहा, ”उन्होंने ये क्यों नहीं बताया कि वो बीजेपी के सदस्य हैं। हमारे समाज के अच्छे वक्ता हैं, लेकिन उन्होंने अपना बीस साल पुराना परिचय क्यों दिया?” एडवोकेट भारती टिप्पणी करते हैं, ”आप सरकार के नुमाइंदे हो, आप अंदर जा रहे हो। हम बाहर हैं, मैडम बाहर हैं। हमें तो पता नहीं कि आप किसके लिए काम कर रहे हो।” संगीता कहती हैं, ”हमें तो भीम आर्मी के लोग या समाज के संगठन ही बताते हैं कि क्या हो रहा है।” अंत में इस बात पर सहमति बनी कि ऐसा ‘डबल गेम’ खेलने वाले लोग तो हर जगह होते हैं।
भीम आर्मी के साथ यही ‘डबल गेम’ हुआ है। पहले उसे नक्सली बताया गया। अब उसे आरएसएस प्रायोजित बताया जा रहा है। दोनों परस्पर दो छोर के आरोप हैं। आरोप लगाने वाले को देखें, तो पता चलता है कि ऐसी ऊटपटांग बातें क्यों हो रही हैं। नक्सली बताने वाली भारतीय जनता पार्टी की राज्य सरकार थी। चंद्रशेखर को आरएसएस का एजेंट बताने वाली बहुजन समाज पार्टी की प्रमुख मायावती हैं। जो मीडिया दलित एजेंडे पर काम कर रहा था, वह दोनों के बीच फंस कर रातोरात अपनी विश्वसनीयता खो चुका है। सवर्ण हितों के लिए काम करने वाला मीडिया पहले से बदनाम है, तो वह भीम आर्मी को और उछाल रहा है। उसे दोनों तरफ़ से लाभ ही लाभ है। अगर चंद्रशेखर का नक्सल कनेक्शन है, तो यह सवर्णों के हित में होगा। अगर वह आरएसएस का एजेंट है, तो उसे सकारात्मक प्रचार मिलेगा। दोनों ही सूरतों में मीडिया ने यह बताने की ज़हमत नहीं उठायी है कि चंद्रशेखर और भीम आर्मी का शब्बीरपुर, चंदपुर या शिमलाना के गांवों में चल रही घटनाओं से रत्ती भर भी लेना-देना नहीं है। भीम आर्मी वास्तव में शहरी बीज है जिसकी फसल गांव के राजपूत काट रहे हैं और सज़ा ग्रामीण दलित भुगत रहे हैं।
मीडिया ने आंखों देखी को भी नहीं दिखाया है। देवबंद से सहारनपुर के बीच ‘भगवा यात्रा’ और ‘श्रीराम सेना’ के तमाम पोस्टर चिपके हुए हैं जिन पर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की तस्वीर है। बड़गांव में चौराहे पर महाराणा प्रताप की एक विशाल प्रतिमा है जो अष्टधातु की बनी है और जिसे राजपूत अपनी अस्मिता का प्रतीक मानते हैं। बड़गांव से कुछ दूरी पर महेशपुर का एक पेट्रोल पंप है। उधर से गुज़रने वाली गाडि़यों ने जरूर एक बार रुक कर वहां तेल भरवाने के बारे में सोचा होगा। या हो सकता है नहीं भी। किसी ने भी यह जानने की कोशिश नहीं की कि उस पेट्रोल पंप पर लगी दोनों मशीनें क्यों टूटी पड़ी हैं। ठाकुरों ने शब्बीरपुर पर हमले के लिए 5 मई को यहीं से पेट्रोल लिया था। महाराणा प्रताप इंटर कॉलेज का एक स्थानीय छात्र पंप दिखाते हुए हमें बताता है कि हमलावरों ने जबरन दोनों मशीनों से तेल लूटा और उन्हें तोड़-फोड़ कर चले गए। पंप का मालिक ज़ाहिर तौर पर एक ठाकुर ही है। मीडिया इन तमाम छवियों को सामने लाने से अब तक बचता रहा है।
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सहारनपुर फिलहाल ठंडा पड़ चुका है, तो कुछ और बातें हैं जो कही जानी चाहिए। सहारनपुर के कलक्टर आवास से दो किलोमीटर की दूरी पर एक देव गार्डन कॉलोनी है। इस कॉलोनी में सतबीर सिंह कांट्रैक्टर एक बड़े से मकान में अपने पार्टनर के साथ रहते हैं। सतबीर सिंह शब्बीरपुर के पास निर्माणाधीन एक सरकारी अस्पताल के ठेकेदार हैं। उनके पार्टनर मो. समाद हैं, जो बीस साल से उनके साथ खाते हैं, पीते हैं और सोते हैं। दोनों के बीच ग़ज़ब का प्रेम और सौहार्द है। समाद पहले डॉक्टर हुआ करते थे। बाद में वे बिजनेस में उतर गए। बीस साल के कारोबारी सफ़र में दोनों पार्टनरों के बीच रत्ती भर का भी मतभेद नहीं आया, मनभेद तो दूर की बात है। आखिर दलित-मुसलमान, ठाकुर-मुसलमान और ठाकुर-दलित के विभाजन वाले समाज में यह कारोबारी जोड़ी कैसे बरसों से ऐसे ही बनी हुई है? क्या इनके ऊपर अपने समाज में घट रहे हादसों का असर नहीं पड़ता?
सतबीर सिंह कहते हैं, ”देखो जी, सहारनपुर को किसी की नजर लग गई है वरना यह शहर ऐसा नहीं था। यहां सब मिलकर रहते थे। वो तो इन्होंने नाक की लड़ाई न बनाई होती तो आज भी सब कुछ ठीक ही है।” शब्बीरपुर में 5 मई को हुए हमले के बारे में वे कहते हैं कि अगर ठाकुर मना कर रहे थे तो दलितों को चुपचाप मान लेना चाहिए था। उसी तरह अगर दलितों को ठाकुरों के डीजे पर आपत्ति थी तो उन्हें भी समझना चाहिए था। वे कहते हैं, ”एक-दूसरे के भगवानों का ये सम्मान नहीं करते, इसीलिए झगड़े होते हैं।” शब्बीरपुर में रविदास मंदिर की ज़मीन के बारे में वह कहते हैं कि वह विवादित है, इसीलिए राजपूतों ने आपत्ति की थी। इस बात की पुष्टि हम नहीं कर सके। दलित उसे अपनी ही ज़मीन मानते हैं।
देव गार्डेन कॉलोनी के पीछे अपना क्लीनिक चलाने वाले डॉ. शाकिर बताते हैं कि सहारनपुर लकड़ी का शहर है। यहां सड़कों पर रात में लकड़ी से लदे ट्रकों के अलावा और कुछ नहीं होता। कुछ साल पहले तक रात के अंधेरे में वे पैदल ही अपने घर चले जाया करते थे। वे कहते हैं, ”अब भी हालात बहुत नहीं बदले हैं, लेकिन सरकार बदलने के बाद राजपूतों को ऐसा लगने लगा है कि उनकी सरकार आ गई है। जब समाजवादी पार्टी की सरकार होती है, तब यादवों को भी ऐसा ही लगता है। अगर मायावती सरकार में होतीं तो दलित मज़बूत होते। बस इतनी सी बात है।”
सहारनपुर में आरक्षण बचाओ संघर्ष समिति के रणधीर सिंह दलित आंदोलन का पुराना चेहरा हैं। वे मायावती पर सवाल खड़ा करते हैं कि अगर उन्हें 19 दिनों तक सहारनपुर के दलितों की याद नहीं आई तो अचानक 23 मई को यहां आने का क्या औचित्य था। वे कहते हैं, ”वे नहीं आई होतीं तो बवाल नहीं हुआ होता।” उनके मुताबिक मायावती के आने से ही माहौल बिगड़ा है। चंद्रशेखर जैसे नेताओं को लेकर वे बहुत उत्साहित नहीं दिखते। उनकी बात से उनका दर्द झलकता है कि तीस साल आंदोलन के साथ काम कर के भी उन्हें जो चीज़ हासिल नहीं हो सकी, वह लोकप्रियता चंद्रशेखर को रातोरात मिल गयी। उन्हें असली शिकायत हालांकि मीडिया के पक्षपातपूर्ण रवैये और राज्य सरकार की भूमिका से है। वे कहते हैं, ”एक महीने के अंदर युवाओं के गले में इन्होंने भगवा गमछा डाल दिया।”
अलग-अलग प्रतिक्रियाओं और आशंकाओं के बीच 26 मई को शब्बीरपुर से पहली अच्छी ख़बर यह आई कि फकीरचंद की बेटियों की शादी में कन्यादान कुछ ठाकुरों ने किया। इनमें गांव के एक पुराने प्रधान भी शामिल थे। तनाव का नतीजा कह लें या फकीरचंद की किस्मत, कि शादी में पुलिस-प्रशासन के तमाम आला अधिकारी सुरक्षा के लिहाज से मौजूद थे। जले हुए मकानों और टूटी हुई छप्परों के बीच दो सगी बहनों की विदाई हो गई।
इसे टकराव का अंत समझना भूल होगी। सियासत ने अभी-अभी इस गांव में अपने पांव रखे हैं। सहारनपुर से बीजेपी के सांसद राघव लखनपाल ने शब्बीरपुर को गोद लेने की बात कही है। ये वही सांसद हैं जिन्होंने 14 अप्रैल को बाबासाहब आंबेडकर की जयंती पर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के संगठन हिंदू युवा वाहिनी के साथ मिलकर दूधली गांव से एक ‘शोभा यात्रा’ निकालने की योजना बनाई थी जिसके बाद हालात बिगड़े। दलितों की योजना यात्रा को गांव में किसी और रास्ते से लेकर जाने की थी, लेकिन सांसद चाहते थे कि उस यात्रा को मुसलमानों के इलाके से ले जाया जाए। आंबेडकर जयंती को भाजपा और हिंदूवादी संगठनों द्वारा हाइजैक करने की यह खतरनाक कोशिश थी, जिसमें लखनपाल की अगुवाई में ‘जय भीम’ की जगह ‘जय श्री राम’ और ‘मंदिर वहीं बनाएंगे’ के नारे लगे, जिसके बाद मुसलमानों की ओर से पत्थरबाज़ी की गई और मीडिया ने इसे दलित-मुस्लिम संघर्ष बताकर प्रचारित किया। बाद में 5 मई को राजपूतों के जुलूस में भी राघव लखनपाल को शामिल पाया गया और आरंभ में उनके ऊपर दंगे भड़काने का आरोप लगा था।
शब्बीरपुर को गोद लेने का उनका ताज़ा प्रस्ताव प्रोजेक्ट राजपुताना का एक खतरनाक पड़ाव जान पड़ता है। पूरा देश भीम आर्मी पर बहस में उलझा हुआ है, जबकि शब्बीरपुर में भेडि़या खुद भेड़ों को गोद लेने पहुंच चुका है। सहारनपुर से देवबंद के बीच हाइवे पर पसरा सन्नाटा किसी बड़े अनिष्ट की ओर संकेत कर रहा है।