एक संपादक के ‘नए नज़रिये’ में झाँकता जाति का ‘पुराना’ खेल !

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‘हिंदुस्तान’ एक तरक्कीपसंद समाचार पत्र है। आपका प्रिय अख़बार पत्रकारिता के उच्च मानदंडों का पालन करता है। जातीय तनाव या अलगाव ना बढ़े, इसलिए हम सहारनपुर की घटनाओं में हमलावरों या पीड़ित व्यक्ति की जाति का उल्लेख नहीं कर रहे हैं। ‘ -संपादक

यह ऐलान हिंदुस्तान के संपादक शशिशेखर का है। जब पूरी दुनिया यह बात अच्छी तरह जान गई है कि सहारनपुर में दलितों और ठाकुरों में संघर्ष हुआ और उसका कारण सिर्फ़ और सिर्फ़ जाति और उसकी परंपरागत स्थिति में आया बदलाव है…राजपूतों का दलितों का मोटरसाइकिल से चलता गवारा नहीं… उन्हें नाराज़गी है कि दलित लड़के ‘बड़े लोगों’ को सम्मान देने की परंपरा छोड़ रहे हैं,  तो संपादक जी नहीं चाहते कि इस संघर्ष को लेकर जाति को चिन्हित किया जाए।

हाँलाकि हाल तक ‘हिंदुस्तान’ लगातार राजपूत और दलित लिखता रहा। हाँ, दलितों के साथ हुए अत्याचार, हत्या, आगज़नी वाली तस्वीरें चाहे अहमियत देकर ना छापी गई हों राजपूतों के दर्द के लिए जगह की कमी कभी नहीं पड़ी। अख़बार ने यह बात भी अहमयित से छापी कि दलितों का अंदाज़ बताता है कि भीम आर्मी के पीछे नक्सलवादी भी हो सकते हैं।

बहरहाल, जब संपादक शशिशेखर जी कह रहे हैं कि जाति का नाम नहीं लिखना चाहिए तो ठीक ही कह रहे होंगे। वे अपने नाम के साथ ‘चतुर्वेदी’  भी कहाँ लगाते हैं। यह तो दूसरों की दिक़्क़त है कि उनका ‘चतुर्वेदी’ होना किलोमीटर भर दूर से सूँघ लेते हैं। उन्होंने तो मुलायम सिंह के सत्ता में रहते, इटावा के रिश्ते से उन्हें लगातार अपना चाचा लिखा, जो उनके जाति से ‘मुक्त’ होने का प्रमाण है। पर दुष्ट लोग इसे उनकी ‘सिंहासन निष्ठा’ से जोड़ते हैं और मोदी-योगीराज से जुड़े तमाम हालिया लेखों का प्रमाण देते हैं।

शशिशेखर जी के साथ ऐसी गफ़लत हमेशा होती है। जब वे ‘अमर उजाला’ में थे तो उन्होंने उस समय बरेली में बैठ रहे संपादक, हिंदी के वरिष्ठ कवि स्वर्गीय वीरेन डंगवाल की इच्छा के ख़िलाफ़ वरुण गाँधी की ‘हाथ काट वीरता’ का जमकर प्रचार किया था। वीरेन जी ने ख़फ़ा होकर इस्तीफ़ा दे दिया था जबकि वह सिर्फ़ पत्रकारिता के धर्म का पालन करते हुए वरुण गाँधी की ‘अभिव्यक्ति’ को जगह देने का लोकतांत्रिक दायित्व निभा रहे थे। वीरेन जी को इस घटना में ‘दाँव’ देने वाले पत्रकार को जब उन्होंने हिंदुस्तान पहुँचकर एक राज्य की गद्दी सौंपी तो तमाम लोगों को उसका ब्राह्मण होना ही नज़र आया। जबकि संपादक जी ने सिर्फ़ पत्रकारिता के पथ पर साथ चलने वाले सिपाही का हौसला बढ़ाया था।

पत्रकारिता के मूल्यों के प्रति संपादक जी की आस्था नई नहीं है। राममंदिर आंदोलन के दौरान उन्होंने कारसेवकों को चाहे जितना छापा हो, उनकी जाति कभी नहीं लिखी थी। सुना जाता है कि तब वे जिस अखबार की कमान संभाल रहे थे, वह भयानक रूप से मंदिरमय हो गया था। तब भी वे सिर्फ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का झंडा बुलंद कर रहे थे। अगर उनके चारो ओर कारसेवक ही कारसेवक ‘अभिव्यक्त’ हो रहे थे तो अख़बार के पन्ने पर और क्या छपता । सरयू कारसेवकों के ख़ून से लाल हो गई जैसी बात हवाओं में थी और प्रेस काउंसिल को नहीं नज़र आई तो संपादक जी क्या करते।

हिंदुस्तान तरक्कीपसंद अख़बार है और भारत तरक्कीपसंद देश। यहाँ जाति की बात करना मना है। जाति के आधार पर नफ़रत कर सकते हैं, हत्या कर सकते हैं, किसी का घर चाहे जला सकते हैं ! पर यह बात बताना पत्रकारिता के उसलों के ख़िलाफ़ है। जब सदियों से पीटे जाने वाले प्रतिवाद कर रहे हों, तब तो यह और भी ज़रूरी हो जाता है। जी की जय हो।

.बर्बरीक