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साड़ी की बुनाई करके घर चलाने वाले अनवारुल हक़ उदास हैं। उनकी पत्नी ज़रीना खातून की आंखें दरवाजे की तरफ टकटकी लगाए किसी को खोज रही हैं। इनके बच्चे भी किसी के इंतज़ार में हैं। इन्हें नहीं पता कि ये जिसकी आस में बैठे हैं, वह कब आएगी। कम से कम इस साल तो बिलकुल भी नहीं।
अनवारुल और ज़रीना की सबसे बड़ी बेटी सानिया बनारस की जेल में बंद है। सानिया चार भाई बहन हैं। सानिया सबसे बड़ी हैं। नौकरी करके अपने परिवार का भरण-पोषण करने में अपने पिता का हाथ बंटाती हैं। अनवारूल की बुनकारी से मामूली पैसा निकलता है। बनारस के जुलाहों की हालत वैसे ही बहुत खराब है। पिछले कुछ वर्षों में कबीर की नगरी में किसानों के अलावा अगर किसी ने खुदकुशी की है तो वे बुनकर हैं। आज एक बुनकर की बेटी को जेल भी हो गयी है।
बनारस में 19 दिसम्बर को नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ बेनियाबाग में हुए शांतिपूर्ण प्रदर्शन में सानिया भी शामिल थी। उन्हें क्या पता था उनके खिलाफ दंगा भड़काने, आगजनी, बलवा आदि का केस लगाकर जेल में डाल दिया जाएगा। सीएए के खिलाफ शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे 69 व्यक्तियों को हिरासत में लेकर जेल भेज दिया था। इसमें बीएचयू और महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ के छात्र शामिल थे। इनके अलावा शहर के कुछ जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ता और राजनीतिक दलों के पदाधिकारी भी जेल में हैं।
अमन के दिन हों या संघर्ष के, अकसर हम उन्हीं के बारे में जान पाते हैं जिनके बारे में मीडिया हमें बताता है। जो चमकदार चेहरे होते हैं, मीडिया के करीबी होते हैं, संपन्न होते हैं। दस दिन हुए 69 लोगों को जेल गए, हम अब तक नहीं जानते कि ये सभी लोग कौन-कौन हैं। कुछ सामाजिक कर्यकर्ताओं और छात्रों की प्रोफाइल मीडिया में बेशक आयी है लेकिन किसी ने यह बताने की ज़रूरत नहीं समझी कि एक जुलाहे की एमए पास बेटी भी जेल की सज़ा काट रही है।
सानिया पढ़ाई-लिखाई में बहुत तेज हैं। महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ से राजनीति विज्ञान से एमए की वे गोल्ड मेडलिस्ट हैं। खुद पर्यावरण के मुद्दे से जुड़ी हैं और इसी पर काम भी करती हैं। उन्हीं का असर है कि घर-परिवार में पढ़ाई का माहौल है। उनका छोटा भाई उमर अभी विद्यापीठ से बीकॉम की पढ़ाई कर रहा है।
सानिया के भाई बताते हैं- “आपी का मानना है कि स्वच्छ पर्यावरण और शुद्ध हवा सबका मौलिक अधिकार है। सभी मौलिक अधिकार एक दूसरे से कहीं न कहीं जुड़े हुए हैं। समाज में नफरती माहौल में भी सांस लेना मुश्किल है। समाज में स्वच्छ पर्यावरण के साथ साथ प्रेम भरा माहौल चाहिए, इसके लिए आपी उस एक्ट का शांतिपूर्ण तरीके से विरोध करने बेनियाबाग गईं थीं।”
उमर ने बताया कि चूंकि सानिया घर सबसे बड़ी हैं और जब वे स्कूल जाने लगीं, कालेज में पहला स्थान लाईं तो उनको देख कर उनकी कौम के बहुत से लोगों ने अपनी बेटियों को स्कूल भेजना शुरू किया। मुस्लिम समुदाय में और वो भी पूर्वांचल जैसे देश के पिछड़े इलाके में मुस्लिम महिलाएं बहुत कम ही शिक्षित हो पाती हैं और अपने हक के लिए सड़कों पर आवाज उठा पाती हैं। ऐसे में इस कौम की महिलाओं के लिए सानिया एक उम्मीद की तरह हैं। सानिया अपने समुदाय के लिए प्रेरणा बन चुकी हैं लेकिन इसके उलट यूपी की सरकार और पुलिस उन्हें उपद्रवी मानती है।
सानिया की ही तरह जेल में ऐसे बहुत से छात्र हैं जिनके घर पर बहुत सारी परेशानियां हैं। अनंत शुक्ला इनमें एक हैं। वे बीएचयू के छात्र हैं। वे पुलिस से कहते रह गए कि उनकी परीक्षाएं हैं लेकिन पुलिस ने उनकी एक न सुनी। अनंत की परीक्षाएं छूट गईं। सामान्य तौर पर ऐसा होता है कि जेल में बंद लोगों की परीक्षा दिलवाने पुलिस ले जाती है लेकिन अनंत के साथ ऐसा नहीं हुआ।
राज अभिषेक समेत कई छात्रों को बीएचयू में गत 24 दिसंबर को हुए दीक्षांत समारोह में डिग्री मिलनी थी पर जेल में होने के कारण वे डिग्री नहीं ले पाए। अपने इन्हीं मित्रों के समर्थन में एक छात्र ने दीक्षांत समारोह में डिग्री लेने से इनकार कर दिया। इन्हीं में एक छात्र हैं दीपक, जिनके पिता बहुत बीमार रहते हैं। उनको हर हफ्ते डायलिसिस करवाने गांव से बनारस लाना पड़ता है। इसकी जिम्मेदारी दीपक की ही थी लेकिन वे आज जेल में हैं और उनका परिवार अकेला पड़ गया है।
दिवाकर सिंह जो बीएचयू आइआइटी में रिसर्च स्कॉलर हैं, उनकी पत्नी पिछले छह महीने से बीमार हैं और इसी बीमारी की हालत में उनका एक बच्चा भी हुआ जो अभी एक माह का है। उनकी पत्नी अभी कुछ ही दिन पहले ही आइसीयू से बाहर आई हैं। ऐसे में दिवाकर की पत्नी और बच्चे को दिवाकर की आज सबसे ज्यादा जरूरत थी, लेकिन वे भी जेल में हैं।
सानिया के साथ जेल में बंद हर एक युवा की अपनी अलग कहानी है। आम तौर से यह धारणा बनायी गयी है कि नागरिकता संशोधन कानून का विरोध केवल मुसलमान कर रहे थे और वे ही जेल में हैं। यह सच है कि जितनी मौतें उत्तर प्रदेश में सामने आयी हैं, सब मुसलमानों की ही हैं लेकिन जेल में बंद लोगों की सूची को देखें तो पता चलता है कि यह आंदोलन हिंदुओं और मुसलमानों का साझा था। रामप्रसाद बिस्मिल और अशफ़ाक की साझा शहादत के मौके पर अगर समाज ने अपनी आवाज़ उठायी है तो उसकी कीमत अकेले एकता को नहीं, सानिया को भी उठानी पड़ी है।
“बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ” का नारा देने वाली सरकार ने दमन के एक झटके में अपने नारों को खुद झुठला दिया है। वरना क्या वजह थी कि एक गरीब बुनकर के परिवार से निकलकर एमए करने के बाद पर्यावरण जैसे गंभीर मुद्दे पर काम करने वाली सानिया का शांतिपूर्ण विरोध तक सरकार पचा नहीं सकी? सानिया को तो बनारस की शान होना था। अपने समाज की आन होना था। उसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र का गुमान होना था। अगर पढ़ने लिखने वाली बेटियों के साथ सरकारों का यही सुलूक रहा तो कल को कौन अपनी बेटियों को घर से बाहर निकलने देगा?
फिलहाल दमनचक्र में मदमस्त यह सरकार क्या वास्तव में समझ पा रही है कि उसने पढ़ने-लिखने वाली बिरादरी को कैद में डालकर कितनी बड़ी ग़लती की है?
लेखक भारतीय जनसंचार संस्थान में पत्रकारिता के छात्र हैं और बीएचयू से पढ़े हैं