वरिष्ठ पत्रकार सुमंत बनर्जी की टिप्पणी जो 12 सितंबर, 2018 के इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित है
मेरा दोस्त गौतम नवलखा इन दिनों नजरबंद है। उस पर आरोप है कि उसने माओवादियों के साथ मिल कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हत्या की साजिश तैयार की। मैं पिछले तीन दशकों से भी ज्यादा समय से गौतम को जानता हूं। अगर उस पर कोई आरोप लगाया जा सकता है तो यही कि उसने कभी कोई काम छिप कर नहीं किया और हमेशा साजिशों का विरोधी रहा। मौजूदा निजाम के लिए यह एक अपराध हो सकता है जिसके मूल्य ही एकदम अलग हैं और काम का तौर-तरीका भी पूरी तरह अलग है। यह निजाम अपने कुकृत्यों को ‘आफ्सपा ’और ‘यूएपीए’ (जिसके तहत गौतम को नजरबंद किया गया है) जैसे जनविरोधी और दमनात्मक कानूनों की आड़ में छिपाने की कोशिश करता है और नागरिकों को उनके बुनियादी अधिकारों से वंचित रखता है। यह संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकार आयोग को कश्मीर जाने से इसलिए रोकता है ताकि उसे वहां के असली हालात का पता न चल सके। यह विदेशी धन्ना सेठों और सरकारों के साथ गुप्त समझौते करता है और जनता को उन समझौतों की शर्तें बताने से कतराता रहता है।
रहस्य की इस दीवार को तोड़ने का ही काम गौतम नवलखा, सुधा भारद्वाज और मेरे अन्य मानवअधिकारवादी दोस्त कर रहे थे जिन्हें इस समय उनके घरों में कैद रखा गया है। पिछले अनेक दशकों से उन्होंने देश के ऐसे अँधेरे गुमनाम हिस्सों में जाकर काम करने का साहस किया जहां राज्य की सुरक्षा एजेंसियां और राज्य का सैन्य बल असंतोष को दबाने में लगा है और मानव अधिकारों का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन कर रहा है। इन लोगों ने उन इलाकों में हो रहे अत्याचारों को उजागर किया, वहां के बारे में रिपोर्ट तैयार की और वहां के पीड़ितों के लिए हर तरह की कानूनी सहायता उपलब्ध कराई ताकि वे सत्ता के दमन से निजात पा सकें।
पीयूडीआर (पीपुल्स यूनियन फार डेमोक्रेटिक राइट्स) के एक सदस्य के रूप में और अन्य जांच टीमों के साथ मुझे कई बार गौतम के साथ विभिन्न जगहों में जाने का मौका मिला और मैंने पाया कि कितनी बारीकी के साथ गौतम सबूतों को इकट्ठा करते थे ताकि वह रिपोर्ट ज्यादा से ज्यादा प्रामाणिक हो सके। आज भारत में मानव अधिकार समूहों की रपटों को जो विश्वसनीयता प्राप्त है उसके पीछे गौतम नवलखा जैसे लोगों की बहुत बड़ी भूमिका है जिन्होंने हमेशा यह प्रयास किया कि इस तरह की कोई भी रिपोर्ट पक्षपातपूर्ण न लगे। यही वजह है कि ईमानदारी और बिना किसी पूर्वाग्रह के तैयार की गयी हमारे यहां की ऐसी रपटों को सारी दुनिया में गंभीरता से लिया जाता है। यह याद रखना महत्वपूर्ण होगा कि इन साहसी और ईमानदार लोगों ने, जिन पर भाजपा की मौजूदा सरकार तरह-तरह के गंभीर आरोप लगा रही है, हमेशा मानव अधिकारों के उल्लंघन के खिलाफ आवाज उठाई भले ही केंद्र में किसी भी पार्टी की सरकार क्यों न हो। मिसाल के तौर पर 1979 में, जिस समय जनता पार्टी की सरकार थी इन लोगों ने उत्तर भारत में सांप्रदायिक हिंसा रोकने में सरकार की विफलता के खिलाफ आवाज बुलंद की। 1984 में ‘अपराधी कौन हैं?’ (हू ऑर दि गिल्टी?) शीर्षक से पीयूडीआर और पीयूसीएल की बहुचर्चित रिपोर्ट आई जिसमें दिल्ली में सिखों के खिलाफ हुए नरसंहार में कांग्रेस की भूमिका का पर्दाफाश किया गया था। 1990 में मानव अधिकारवादियों के एक समूह ने कश्मीर की यात्रा की और ‘इंडियाज कश्मीर वार’ शीर्षक से जो रिपोर्ट आई उससे सारी दुनिया को पता चला कि कश्मीर में कितने बड़े पैमाने पर मानव अधिकारों का उल्लंघन हो रहा है। 1992 में बाबरी मस्जिद गिराई गई। उस समय प्रधानमंत्री के पद पर कांग्रेस के पी.वी.नरसिंहा राव थे। इन मानव अधिकारवादियों ने एक जन-सुनवाई यानी पीपुल्स ट्रिब्यूनल का गठन किया और उन लोगों के बयान जुटाए जो अयोध्या में उस समय प्रशासन की भूमिका के बारे में बता रहे थे।
इस तरह की तमाम खोजबीन में गौतम ने हमेशा एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उसके विश्लेषण का तरीका आलोचनात्मक और अपक्षपातपूर्ण था। उसकी इस विशिष्टता का प्रमाण उस समय बहुत ठोस ढंग से मिला जब एक पत्रकार के रूप में उसने दंडकारण्य के माओवादी इलाकों की यात्रा की और महत्वपूर्ण दस्तावेजों के साथ उसकी पुस्तक ‘डेज ऐंड नाइट्स इन दि हार्टलैंड ऑफ रेबेलियन’ प्रकाशित हुई। माओवादियों के प्रति अपनी राजनीतिक सहानुभूति व्यक्त करने का साहस दिखाने के साथ ही उसने उनकी गलतियों और अपराधों की भी खुल कर आलोचना की। इस संदर्भ में उसकी पुस्तक का यह अंश मैं उद्धृत करना चाहूंगाः ‘‘सुंदरगढ़ जिले में कुल्टा आयरन वर्क्स के ट्रेड यूनियन नेता थामस मुंडा का सिर माओवादियों ने इसलिए काट दिया क्योंकि उन्होंने माओवादियों के आह्वान पर आयोजित बंद में हिस्सा नहीं लिया था। इससे माओवादी शायद ही उनके प्रिय हो सकें जो उनके साथ नहीं हैं जबकि ऐसे लोगों को अपने पक्ष में करने की जरूरत है…दस्तों के सदस्यों द्वारा किए जाने वाले निकृष्टतम अपराधों से समूचा आंदोलन बदनाम होता है, हजारों ईमानदार और निःस्वार्थ माओवादी कार्यकर्ताओं की मेहनत बेकार जाती है और वे लोग भी कुछ नहीं बोल पाते जो माओवादियों से यह अपेक्षा करते हैं कि वे उच्चतर नैतिक मानदंडों की स्थापना करेंगे।’’
(अनुवाद: आनंद स्वरूप वर्मा)