हमेशा मुश्किल से ही मुट्ठी में आएगा चाँद !

चंद्रभूषण चंद्रभूषण
ग्राउंड रिपोर्ट Published On :


विक्रम लैंडर का जरा सा रास्ता भटकना इसरो के वैज्ञानिकों का दिल बैठा देने के लिए काफी था। तभी अचानक वह स्क्रीन से गायब हो गया। प्रयोगों में विफलता के लिए वैज्ञानिक तैयार रहते हैं। लेकिन जितनी दूर तक हो सके, उम्मीद बनाए रखना उनके सहज मिजाज का हिस्सा होता है। इसीलिए इसरो ने लैंडर से संपर्क टूटने की बात कही। उसके गिरने, टूटने या नष्ट हो जाने के बारे में कुछ नहीं कहा। प्रक्षेपण के तीसरे दिन ऑर्बिटर ने जब चंद्रमा की सतह पर लैंडर की तस्वीरें पकड़ीं तो भी संस्था की ओर से यही बयान आया कि विक्रम की सॉफ्ट लैंडिंग हुई हो, ऐसा लगता नहीं है, लेकिन नुकसान उसे कितना हुआ है, कुछ कह नहीं सकते।

किसी अदालती बयान के रूप में यह बात बिल्कुल सही मानी जाएगी, लेकिन कॉमनसेंस के लिहाज से इसका कोई मतलब नहीं है। करीब सात हजार फुट की ऊंचाई से इंसानी बनावट वाली किसी भी चीज का अनियंत्रित होकर गिरना उसके पुर्जे बिखेर देने के लिए काफी है। ऐसे में विक्रम से दोबारा संपर्क होने की संभावना राजनेता ही जता सकते थे। कम लोगों को पता होगा कि कुछ समय पहले लैंडर की टेस्टिंग के दौरान उसकी एक टांग टूट गई थी। लेकिन चंद्रयान-2 के मामले में इसरो को इतनी सारी अड़चनें झेलनी पड़ी हैं कि इस छोटी सी परेशानी का जिक्र भी गैरजरूरी लगता है। कम से कम छह बार तो इसकी लांचिंग टालनी पड़ी थी।

इस सदी में चंद्रमा पर कामयाब सॉफ्ट लैंडिंग सिर्फ चीन की रही है। अमेरिका, रूस और यूरोपियन स्पेस एजेंसी, तीनों की कोशिशें इधर मंगल पर खोजी यान उतारने पर केंद्रित हैं, जिसके लिए बिल्कुल अलग टेक्नॉलजी चाहिए होती है। वहां धरती के सौवें हिस्से के बराबर हवा मौजूद है, सो लैंडर उतारने में पैराशूट और गुब्बारों का सहारा लिया जा सकता है। चंद्रमा पर हवा के नाम पर निल बटे सन्नाटा है, तो यहां लैंडर को धीमा करने से लेकर उसे संतुलित करने तक का सारा काम रिवर्स रॉकेटों से ही करना पड़ता है। आने वाले समय में विक्रम लैंडर द्वारा भेजे गए आखिरी डेटा के विश्लेषण से शायद कुछ अंदाजा लगे कि गड़बड़ी तकनीकी प्रणाली में रही या परिस्थितियों को समझने में कुछ चूक हो गई।

चंद्रयान-2 की लांचिंग से पहले इसरो की समकक्ष चीनी संस्था नेशनल स्पेस साइंस सेंटर के डाइरेक्टर वू ची ने इस मिशन से जुड़ी कठिनाइयां दूसरे एंगल से गिनाई थीं। उनका कहना था कि चंद्रमा के 70 डिग्री साउथ में, दक्षिणी ध्रुव से मात्र 600 किलोमीटर की दूरी पर विक्रम लैंडर को उतारने में सबसे बड़ी समस्या रोशनी की है। सूरज की रोशनी वहां बहुत कम पहुंचती है, लिहाजा लैंडर और रोवर, दोनों को ऊर्जा का उपयोग बड़ी कंजूसी से करना होगा। इसमें कोई शक नहीं कि चंद्रमा पर अब तक की सबसे कठिन सॉफ्ट लैंडिंग वू ची के नेतृत्व में ही हुई है। चीनी यान चांग ई-4 को उन्होंने चांद की पिछली सतह पर उतारा, जो हमेशा धरती की नजरों से ओझल रहती है। लेकिन उसके उतरने का ठिकाना 47 डिग्री साउथ में ऐटकिन बेसिन के वॉन कारमान क्रेटर में था। विक्रम के लक्षित 600 किलोमीटर की तुलना में चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव से कोई 1000 किलोमीटर की दूरी पर।

वू ची की चिंता से निपटने का उपाय इसरो के वैज्ञानिकों ने दूसरे रूप में सोच रखा था। उन्होंने विक्रम को मैंजिनस सी और सिंपेलियस एन क्रेटरों के बीच की ऊंची जगह पर उतारने की योजना बनाई थी, जहां सूरज की रोशनी ज्यादा रहती है। वैज्ञानिक प्रयोगों को वहां केंद्रित करने के दो फायदे थे। एक तो अमेरिका और रूस के सारे जमीनी प्रेक्षण चंद्रमा की भूमध्य रेखा के आसपास हुए थे, ध्रुवीय इलाके में लिए जाने वाले चंद्रयान-2 के प्रेक्षण इस अंतरिक्षीय पिंड की तात्विक बनावट को लेकर दुनिया की समझदारी में कुछ नया जोड़ सकते थे। दूसरे, अगर 14 पृथ्वी दिवसों की निर्धारित अवधि में चंद्रमा की सतह पर कोई हल्का सा भी भूकंपीय कंपन दर्ज हो पाता तो इसकी भीतरी बनावट के बारे में काफी कुछ नया जाना जा सकता था। कारण यह कि भूकंपीय तरंगें जब ऊंचे पठारी या पहाड़ी इलाकों से गुजरती हैं तो उनसे पिंड की आंतरिक संरचना को लेकर कुछ ज्यादा सूचनाएं उजागर होती हैं।

दरअसल, चंद्रमा को लेकर दुनिया की सारी दौड़ अभी वैज्ञानिक सूचनाओं के लिए ही है। बाकी दोनों बातें- वहां से खनिज खोदकर लाना और ज्यादा दूर की यात्राओं के लिए बेस कैंप बनाना- फिलहाल दूर की कौड़ी हैं। जिस एकमात्र खनिज को चंद्रमा से ढोकर लाना फायदे का सौदा हो सकता है, वह है हीलियम-3। लेकिन जिस फ्यूजन पावर प्लांट के ईंधन के रूप में उसकी उपयोगिता सोची जा रही है, उसके कामकाजी स्तर तक आने का समय अब सन 2050 से पहले नहीं आने वाला। पिछले बीस वर्षों में फ्यूजन पावर की टाइमलाइन कई बार आगे बढ़ चुकी है। सन 2000 में इसे 2020 माना जा रहा था, फिर बीच में ही 2035 कहा जाने लगा और कुछ समय पहले 2050 का वक्त दिया गया है। यह बात अमेरिकियों का जोश ठंडा कर देने के लिए काफी है। लेकिन चीनियों का फोकस सूचना पर है। जैसे ही उन्होंने चांद की पिछली सतह पर अपना रेडियो टेलिस्कोप जमाया, हर साल करोड़ों डॉलर की कमाई उसी से करने लगेंगे।

इसरो की अगली चुनौती गगनयान है। रूस से थोड़ा-बहुत तकनीकी सहयोग लेते हुए दिसंबर 2021 तक भारतीय अंतरिक्षयात्रियों को अपने रॉकेट से कुछ दिन पृथ्वी की कक्षा में घुमाना। उसके बाद की मुहिम चंद्रमा पर बूट उतारने की होगी, लेकिन दोनों के बीच चंद्रयान-2 का अधूरा छूटा मिशन हमें एक या शायद दो बार दोहराना पड़े। वह भी इतने ताकतवर रॉकेटों के साथ, जो अभी की तरह डेढ़ महीने में नहीं, अपोलो-11 की तरह सिर्फ तीन दिन में धरती से चांद तक पहुंचा सकें। याद रहे, एवरेस्ट पर दूसरी बार पहुंचना पहली बार का आधा भी मुश्किल नहीं था, लेकिन चंद्रमा पर सौवीं बार यान उतारना भी कमोबेश पहली बार जितना ही कठिन रहेगा।