एनडीटीवी पर 6 अक्टूबर को बरखा दत्त द्वारा लिया गया पूर्व केंद्रीय मंत्री पी. चिदंबरम का साक्षात्कार गिराए जाने और उसकी जगह नई संपादकीय नीति के तहत चैनल के स्टाफ को एक आंतरिक ईमेल भेजे जाने की ख़बर आखिर दर्शकों को इतनी चौंकाने वाली क्यों लगी? इस फैसले के बारे में सबसे पहले 8 अक्टूबर को अपनी वेबसाइट दि वायर पर आलोचनात्मक रिपोर्ट छापने वाले सिद्धार्थ वरदराजन ने ऐसा कौन सा उद्घाटन कर दिया जो कथित तौर पर एनडीटीवी की संपादकीय नीति के लिहाज से एक ”नाटकीय मोड़” कहा जा सकता है? क्या एनडीटीवी ने पहली बार सरकार के आगे घुटने टेके हैं या सिद्धार्थ वरदराजन इस चैनल को एक्सपोज़ करने की आड़ में बिरादराना हितों को निभा रहे हैं? जो दिख रहा है, वह आखिर कितना सच है और कितना झूठ?
दि वायर की अपनी रिपोर्ट में सिद्धार्थ चैनल के अधिकारियों को भेजे अपने सवालों के राधिका रॉय द्वारा दिए जवाब की व्याख्या करते हुए ”एविडेंस” शब्द पर ज़ोर देते हैं। वे लिखते हैं- ”एविडेंस (यानी साक्ष्य) पत्रकारिता का केंद्रीय तत्व है, लेकिन ‘एविडेंस’ एक ऐसा शब्द भी है जिसने पिछले हफद्य्ते की राजनीतिक बहस को मोड़ दिया है… यह बहस इसलिए खड़ी हुई क्योंकि सरकार ने अनावश्यक रूप से ऑप्रेशंस के बारे में सूचनाओं को रोक दिया जो भारत के सार्वजनिक दायरे में होनी चाहिए थीं क्योंकि यह पाकिस्तान की सेना को पहले ही ज्ञात है।”
वे आगे लिखते हैं, ”अगर महत्वपूर्ण राजनेता- चाहे वे विपक्ष से हों या सरकार से- ”बिना किसी साक्ष्य” के अनर्गल बयान देते हैं या कीचड़ उछालने में लिप्त होते हैं, तो क्या पत्रकारों को भी इसे जनता से छुपा लेना चाहिए?” या फिर उन्हें संदर्भ, पृष्ठभूमि और विश्लेषण के साथ अपनी टिप्पणियां दर्शकों और पाठकों तक पहुंचानी चाहिए ताकि वे अपनी राय बना सकें? जैसा कि एनडीटीवी ने स्पष्ट रूप से किया, पहला विकल्प चुनने का खतरा यह है कि सत्ताधारी पार्टी और विपक्ष को एक जैसा बरतने में दिक्कत पैदा हो जाती है।”
एनडीटीवी का काला अतीत और वर्तमान अपनी जगह, लेकिन सिद्धार्थ वरदराजन का उसके बारे में यह विश्लेषण एकबारगी सही जान पड़ता है, बशर्ते कि पत्रकारिता में साक्ष्य को लेकर एक संपादक के बतौर उनका अपना व्यवहार निष्पक्ष होता। यहां यह बात बताई जानी ज़रूरी है कि बीते 13 जून को इस पत्रकार ने दि वायर के संस्थापक संपादक सिद्धार्थ वरदराजन से फोन पर बात करने के बाद उन्हें मथुरा के जवाहरबाग गोलीकांड पर एक स्टोरी भेजी थी जिसमें बताया गया था कि कैसे उत्तर प्रदेश की सरकार में राजनीतिक दबावों के चलते न्यायिक प्रक्रियाओं का उल्लंघन हो रहा है। इस स्टोरी में सिद्धार्थ के लिखे के मुताबिक ”संदर्भ, पृष्ठभूमि और विश्लेषण के साथ” रिपोर्टर की अपनी टिप्पणी थी और रिपोर्टर खुद उस घटनाक्रम का गवाह रहा था जो रामवृक्ष यादव के अधिवक्ता के साथ मथुरा की जिला अदालत में घटी थी।
इस स्टोरी के जवाब में सिद्धार्थ वरदराजन ने जो दो पंक्ति का जवाब भेजा उसे यहां मैं सार्वजनिक कर रहा हूं- ”Boss we will pass up on this story. It is alll very complicated, but also vague, and at the end of the day we don’t know what to believe!” (भाई, हम इस स्टोरी को नहीं लेंगे। यह काफी जटिल है व अस्पष्ट भी, और अंत में हम नहीं जानते कि आखिर किस पर विश्वास किया जाए!”)
मामला दरअसल ”विश्वास” का है और विश्वास साक्ष्यों से आता है। एक संस्थान के संस्थापक संपादक होने के नाते वरदराजन ने जून में एक पत्रकार के साथ वही किया जो एनडीटीवी ने अपनी पत्रकार बरखा दत्त के साक्षात्कार के साथ किया- फ़र्क बस इतना है कि एनडीटीवी ने ज्यादा सफ़ाई से अपनी संपादकीय नीति घोषित कर दी जबकि वरदराजन ने एक स्वतंत्र पत्रकार की कहानी में कमियों की पहचान कराने के बजाय उसे ”जटिल और अस्पष्ट” कह कर भरोसे का सवाल खड़ा कर दिया।
पत्रकारिता संस्थानों में कुर्सी के उस पार बैठे प्रबंधन के तर्क ब्लैक एंड वाइट नहीं होते। वे सुविधाजनक ढंग से गढ़े जाते हैं। सिद्धार्थ वरदराजन के व्यवहार को एकबारगी टाला जा सकता है क्योंकि वह किसी व्यापक हित को नुकसान नहीं पहुंचाता, लेकिन एनडीटीवी ने जो किया है उसका लेना-देना राष्ट्रीय सुरक्षा और सेना से है। एनडीटीवी के मामले में स्टेट यानी राज्यसत्ता एक हितधारक के रूप में सामने आती है, बशर्ते आप यह भूल चुके हों कि यह वही चैनल है जिसका उद्घाटन इंद्र कुमार गुजराल के प्रधानमंत्री आवास से हुआ था और जिसकी मूल कंपनी न्यू देल्ही टेलीविज़न प्राइवेट लिमिटेड की 25वीं सालगिरह और कहीं नहीं, बल्कि राष्ट्रपति भवन में मनाई गई थी।
एनडीटीवी पत्रकारिता का एक उदार संस्थागत चेहरा है। लोग उस चेहरे को देखते हैं। उस चेहरे के सामने सिद्धार्थ वरदराजन महज एक पत्रकार के बतौर हैं, अब तक संस्थान नहीं बने हैं। इसीलिए जब चेहरे पर दाग़ लगा तो टीवी दर्शकों का उदार तबका छनछना उठा गोकि उसे पता है कि पी. चिदंबरम के साथ एनडीटीवी के क्या रिश्ते रहे हैं और एनडीटीवी के उत्थान-पतन में इस राज्यसत्ता की क्या भूमिका रही है।
मीडियाविजिल एनडीटीवी के इस प्रकरण को दि वायर पर छपी स्टोरी से काफी आगे ले जाकर पूरे विस्तार से बरतेगा और अलग-अलग आगामी किस्तों में बताएगा कि कैसे इस चैनल ने अपने उदार व प्रगतिशील चेहरे के पीछे ऐसे कांड किए हैं जो यदि साबित हुए तो अक्षम्य की श्रेणी में आएंगे और पत्रकारिता का कलंक कहलाएंगे। मीडियाविजिल कई स्रोतों से अपने दर्शकों के सामने आगामी दिनों में वे सूचनाएं लेकर आएगा जो एनडीटीवी की कार्यप्रणाली, अतीत, अर्थव्यवस्था और वित्तीय प्रबंधन का उद्घाटन करने के लिहाज से ज़रूरी होंगी।
अगली किस्त से पहले हालांकि एक सवाल दि वायर और सिद्धार्थ वरदराजन से ज़रूर बनता है। वो ये है कि 8 अक्टूबर की अपनी स्टोरी में और उसके बाद उन्होंने चिदंबरम के एनडीटीवी के साथ नापाक रिश्ते, बरखा दत्त के राडिया टेप कांड, कर चोरी के मामले, सेबी द्वारा लगाए गए दंड, आयकर अधिकारी एसके श्रीवास्तव की जांच और चैनल के मालिकाने में मुकेश अम्बानी की हिस्सेदारी के संबंध में एक भी शब्द क्यों नहीं लिखा? कहीं ऐसा तो नहीं कि ”राष्ट्रीय सुरक्षा” के बहाने चिदंबरम का साक्षात्कार रोककर एनडीटीवी अपनी वित्तीय अनियमितताओं को ढंकना चाह रहा है ताकि मोदी सरकार में कहीं उसकी फाइल दोबारा न खुल जाए?
सवाल सीधा है- ”राष्ट्रीय सुरक्षा” के नाम पर एनडीटीवी को एक्सपोज़ करने के बहाने सिद्धार्थ वरदराजन कहीं असल में प्रणय-राधिका रॉय को बचाने की कोशिश तो नहीं कर रहे?
अगली किस्तों के लिए मीडियाविजिल पर नज़र बनाए रखें।