गीता यादव
इंटरनेट, सोशल मीडिया, ग्लोबल विलेज ये सारे शब्द सुनकर लगता है कि सारी दुनिया एक दूसरे से बहुत गहरे तरीके से जुड़ गई है. सोशल मीडिया में आप किसी से भी कनेक्ट हो सकते हैं. वह शख्स किसी भी धर्म, जाति, देश, विचार, लिंग का हो सकता है. इस मामले में इंटरनेट ने अलग अलग तरह के लोगों और धारणाओं से कनेक्ट होने के अंतहीन मौके उपलब्ध करा दिए हैं. लेकिन ये बात सिद्धांत रूप में ही सही है. हम किसी से भी कनेक्ट हो सकते हैं, लेकिन हम अक्सर अपने जैसे लोगों के साथ ही कनेक्ट हो जाते हैं.
सोशल मीडिया ने लोगों को विभिन्न गुटों या गिरोहों में बांट दिया है, जहां धारणाएं बदलती कम और मजबूत ज्यादा होती हैं. ये गिरोह देश और राज्य की सीमाओं से परे हो सकते हैं. विजुअल कम्युनिकेशन की वजह से ये कनेक्शन कई बार भाषा से भी परे हो जाते हैं. ये गिरोह किसी भी आधार पर बन सकते हैं. खान-पान की च्वाइस से लेकर सेक्सुअल ओरिएंटेशन, और विचारधारा से लेकर जाति और धर्म या नस्ल जैसी पहचान और राजनीतिक दलों या क्लब की सदस्यता इन गुटों के बनने के आधार हो सकते हैं. अगर हाल की ही घटना का उदाहरण लें तो इसे समझा सकता है.
पुलवामा में आतंकी हमला होने के बाद, फेसबुक-ट्विटर पर कई ग्रुप बन गए थे. एक खेमे में वे लोग थे जो तत्काल पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध चाहते थे. वे लगातार युद्ध के पक्ष में पोस्ट लिख रहे थे, शेयर और लाइक किये जा रहे थे. दूसरी तरफ वो थे, जो कूटनीति का रास्ता अपनाकर पाकिस्तान को सबक सिखाने के पक्ष में थे, और #SayNoToWar के हैशटैग के साथ पोस्ट्स/कमेंट/लाइक कर रहे थे.
इसके बाद भारतीय विंग कमांडर अभिनन्दन पाकिस्तान में पकड़े जाते है. उसके बाद फेसबुक, ट्विटर पर लगातार ऐसे ग्रुप और ज्यादा सक्रिय हो गए, जो युद्ध के पक्ष में लिख रहे थे. वो और ज्यादा कड़ी और आक्रामक भाषा में, युद्ध करके पाकिस्तान को धूल चटाने की बात करने लगे. पाकिस्तान का नाम निशां मिटाने, युद्ध की घोषणा करने, 1971 की तरह पाकिस्तान के दो टुकड़े करने जैसी तमाम तरह की पोस्ट्स सोशल मीडिया पर घूमने लगी. उसी समय दूसरी विचारधारा वाले लोग, जो युद्ध के खिलाफ थे, #NoWar जैसे हैशटैग के साथ ज्यादा से ज्यादा लिखने लगे. इस खेमे से, देश को युद्ध की तरफ ले जाने से रोकने वाली पोस्ट्स की बाढ़ आ गई. अमन शांति के तमाम लेख और पोस्टर भी आ गए.
इस बीच खबर आती है कि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री “पीस जेस्चर” के तौर पर बिना किसी शर्त के भारतीय पायलट को भारत को सौंप देंगे. पहला ग्रुप जो अभी तक युद्ध के पक्ष में लिख रहा था, अब लिखने लगा कि पाकिस्तान डर गया है. पाकिस्तान को घुटने पर ला दिया. विजयी गुणगान करने लगे. ‘मोदी है तो मुमकिन है’, जैसे स्लोगन की बाढ़ आ गई. ऐसा लगने लगा जैसे अपने देश का पायलट वापस नहीं आ रहा, बल्कि सारे आतंकवादी भारत ने पकड़ लिए हों. पाकिस्तानी प्रधानमंत्री की “पीस जेस्चर” की बात को सिरे से नकार दिया गया. वहीँ सोशल मीडिया पर, दूसरे ग्रुप के लोग पाकिस्तानी प्रधानमंत्री को खुलकर धन्यवाद कर रहे थे. ऐसे लोगों की संख्या कम थी. ये लोग पाकिस्तान की आवाम, जो वहां युद्ध के खिलाफ खड़े थे, उनका शुक्रिया अदा करने लगे. और इसे शांति की ओर पाकिस्तान का कदम बताने लगे. लेकिन इन लोगों ने एक और छोर पर जाकर, भारत सरकार के किसी भी तरह के योगदान को नकार दिया और पहले ग्रुप के जवाब में लिखने लगे अगर पाकिस्तान को भारत का इतना ही डर है तो कुलभूषण जाधव को पाकिस्तान भारत के हवाले क्यों नहीं कर देता. इस तरह लोग दो एक्सट्रीम ग्रुप्स में बंटे हुए दिखाई दिए जो एक दूसरे के खिलाफ लिख रहे थे.
ऐसे लोग कम ही दिखाई दिए जो इसे पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान के ”पीस जेस्चर” के साथ साथ भारतीय सरकार के योगदान की बात कर/ मान रहे हों. ऐसा तो नहीं हो सकता कि भारत की सरकार ने अपने विंग कमांडर को वापस लाने के लिए कुछ न किया हो. ऐसा भी नहीं था कि युद्ध टालने में इमरान खान की कोई भूमिका न हो.
लेकिन लोग अपने अपने छोर पर खड़े नजर आए. दरअसल सोशल मीडिया के अलॉगरिद्म के कारण लोग अपने जैसे लोगों से ज्यादा कनेक्ट होते हैं. हारवर्ड लॉ स्कूल के प्रोफेसर कास आर. संस्टेन इसे ‘एको चैंबर’ यानी ऐसी जगह कहते हैं, जहां लोगों की अपनी ही आवाज गूंजकर उन तक पहुंचती है. इसे एक्सप्लेन करते हुए वे ‘ग्रुप पोलराइजेशन’ यानी समूहों के ध्रुवीकरण के बारे में बताते हैं कि सोशल मीडिया पर लोग कैसे खेमों में बंट जाते हैं. दरअसल लोगों के विचार अक्सर पहले से फिक्स होते हैं जो उनकी परवरिश से लेकर उनके जन्म और उनके आस पास रहने वाले लोगों, विचारों और कई और बातों से तय होता है और बदलता है. सोशल मीडिया इन विचारों का अड्डा है और एक जैसे विचारों और पसंद के लोग एक जगह इकट्ठा हो जाते हैं और पहले से बने हुए विचारों को ही मजबूत करते हैं.
एक जैसे लोग आपस में ज्यादा संवाद करते हैं, इसलिए सोशल मीडिया का अलॉगरिद्म इसी तरह बनाया गया है. आप जब कोई वीडियो देखते हैं, तो वीडियो प्लेटफॉर्म आपकी रूचि का अंदाजा लगाते हुए वैसे ही और वीडियो सजेस्ट करता है. दरअसल ये प्लेटफॉर्म इस बात का डाटा रखते हैं कि बाकी जिन लोगों ने वो वीडियो देखा था, वे अगला वीडियो किस तरह का देखते हैं. या फिर इस बात का भी अंदाजा लगाया जा सकता है कि आपकी फ्रेंड लिस्ट के लोग और क्या देखते हैं. वैसे ही ‘वीडियो सजेशन’ के तौर पर आपके सामने आ जाते हैं.
इस तरह इंटरनेट और सोशल मीडिया कहने के लिए अनंत विचारों और अनंत संभावनाओं की जगह है लेकिन दरअसल लोग एक तरह के कंटेंट से घिरे रहते हैं. संस्टेन इसे लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं मानते. राष्ट्रपति चुनावों में जॉर्ज डब्ल्यू बुश और एल गोर और बिल क्लिंटन पर चले इंपीचमेंट यानी महाभियोग के दौरान सोशल मीडिया का अध्ययन करके उन्होंने बताया कि किस तरह से अमेरिकी जनता इंटरनेट पर दो समूहों में बंटकर संवाद कर रही थी. जब लोग ऐसे ग्रुप्स के संपर्क में आए तो उनकी पहले से बनी हुई अवधारणाएं और मजबूत हो गईं.
सामाजिक मनोविज्ञान में ग्रुप पोलराइजेशन पर काफी अध्ययन हुआ है और ये पाया गया है कि किसी समूह में आपसी चर्चा के बाद लोग अक्सर मध्यमार्गी होने की जगह ज्यादा कट्टर बन जाते हैं. वे उदाहरण देते हैं कि अफर्मेटिव एक्शन का विरोध करने वाले लोग आपस में चर्चा करने के बाद अफर्मेटिव एक्शन के ज्यादा कट्टर विरोधी बन जा सकते हैं. जो लोग ये मानकर चल रहे थे कि क्लिंटन पर चल रहा महाभियोग किसी दक्षिणपंथी साजिश की वजह से है, ऐसे लोगों ने जब आपस में चर्चा की तो उनकी ये धारणा और मजबूत हो गई.
इसकी वे दो वजह बताते हैं. पहली वजह तो ये है कि जब आप अपने जैसे विचार के लोगों से घिरे होते हैं तो किसी मुद्दे पर आप एक पक्ष में तरह तरह की बातें सुनते हैं. इसकी वजह से आपके पास नए-नए तर्क इकट्ठा हो जाते हैं. इसके मुकाबले आपके पास दूसरे पक्ष की बातें कम आती हैं और आपको लगने लगता है कि वह पक्ष और भी ज्यादा कमजोर है.
दूसरी वजह ये है कि हम सब लोग अपने बारे में एक राय रखते हैं और हम इस बात की परवाह करते हैं कि बाकी लोग हमें किस रूप में देखते हैं. हम अपने को खास मानते हैं और हमें लगता है कि सोचने समझने की शक्ति हममें औरों से ज्यादा है. इसलिए जब हम ऐसे लोगों के बीच होते हैं, जो किसी मामले में एक विचार रखता है तो अक्सर हम उसे और भी आक्रामक रूप से पेश करके अपनी एक छवि बनाने की कोशिश करते हैं. अगर ऐसे समय में, हमें लग सकता है कि अगर हम अपनी पहले ही पोजिशन पर टिके रहें तो हम ज्यादा नरमपंथी या विचारों में कमजोर नजर आएंगे.
अगर हम युद्ध विरोधी हैं, तो युद्धविरोधियों के बीच और भी ज्यादा आक्रामक युद्ध विरोधी दिखने की कोशिश करेंगे. वैसे ही अगर हम युद्ध समर्थक हैं तो अपने जैसे विचार वालों के साथ ऐसी बात करेंगे कि आज ही हमला हो जाना चाहिए.
(लेखिका पीएचडी शोधकर्ता है)