सत्य और सद्भावना के प्रचारक प्रो.राम पुनियानी की जान ख़तरे में !


प्रोफेसर राम पुनियानी को आतंकित करने की इस हरकत के खिलाफ देश भर में आवाज़ बुलन्द हुई है,


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ठक ! ठक !! दरवाज़े पर कौन है ? राम पुनियानी के घर पहुँचनेवाले ‘अजनबी मुलाक़ाती’ कौन थे ?


सुभाष गाताडे


प्रोफेसर राम पुनियानी, बेहद मिलनसार शख्सियत और साम्प्रदायिक सदभाव और अमन के लिए संघर्षरत सतत अभियानी, जो 73 साल की उम्र में भी किसी युवा जैसा उत्साह रखते हैं और देश के अलग अलग हिस्सों में आयोजित सभा सम्मेलनों, कार्यशालाओं में किताबों, पुस्तिकाओं से भरे अपने खास बैग के साथ पहुंच जाते हैं – उनके यहां कुछ दिन पहले /9 मार्च/ अलग किस्म के मुलाकाती पहुंचे।

विचित्र बात यह थी कि मुलाकातियों की यह तिगड़ी – जो सादे कपड़ों में थे, और जो अपने आप को सीआईडी का अफसर बता रही थी, उन्होंने अपने पहचान पत्र भी ठीक से नहीं दिखाए तथा वह एक पासपोर्ट के आवेदन के संदर्भ में पूछताछ के लिए प्रोफेसर पुनियानी से मिलने आए थे, जो उन्होंनेे किया ही नहीं था और न ही उनके परिवार के सदस्यों में से किसी ने किया था। लाजिम था कि अपनी गलती सुधारते हुए उन ‘अफसरों’ को वहां से तत्काल रूखसत होना चाहिए था, और आई आई टी मुंबई जैसे प्रतिष्ठित संस्थान से रिटायर्ड इस प्रोफेसर से जिन्होंने सद्भाव एवं अमन की मुहिम में अपने आप को समर्पित करने के लिए ही नौकरी से स्वैच्छिक अवकाश लिया था, उनसे मुआफी मांगनी चाहिए थी। ऐसा कुछ नहीं नहीं हुआ, वह न केवल वहीं पर जमे रहे बल्कि प्रोफेसर पुनियानी एवं उनके परिवार के सदस्यों से तरह तरह के आपत्तिजनक/असुविधाजनक प्रश्न पूछते रहे।

गनीमत यही समझी जाएगी कि गैर-वाजिब पूछताछ या सन्देहास्पद निगाहों से प्रोफेसर एवं उनके परिवारजनों को मानसिक यातना पहुंचाने वाले मुलाकातियों की वह तिगड़ी बाद में वहां से निकल गयी। वरना ऐसी अवांछित मुलाकातों के कई बार कितने रक्तरंजित नतीजे होते हैं यह हम प्रोफेसर कलबुर्गी के मामले में पहले ही देख चुके हैं। कन्नड भाषा के प्रकांड विद्वान उन्हें मिलने आए ‘‘विद्यार्थियों’ ने किस तरह उनके घर में ही उनकी हत्या कर दी थी, जिनके लिए उन्होंने खुद दरवाज़ाा खोला था (30 अगस्त, 2015)।अभी भी हत्यारे और उनके मास्टरमाइंड पुलिस की गिरफ्त से बाहर हैं।

आखिर प्रोफेसर राम पुनियानी से मिलने और उन्हें मानसिक यातना पहुंचाने के लिए पहुंची वह तिगड़ी कौन थी ? क्या वह किसी हिन्दुत्व वर्चस्ववादी समूह के सदस्य थे जो उन्हें उनके लेखन और भाषणों के लिए – जो हमेशा भारत के संविधान में प्रदत्त अधिकारों की हिमायत पर, इस देश की गंगा जमुनी तहजीब पर आधारित होते हैं – जिसमें हमेशा साम्प्रदायिक, जातिवादी ताकतों को निशाना बनाया जाता है, उसके बारे में उन्हें धमकाने आए थे। देश भर में हजारों ऐसे युवा एवं प्रबुद्ध लोग होंगे जिन्होंने अलग अलग कार्यशालाओं में, सेमिनार हालों में यहां तक कि यूट्यूब पर भी उनके भाषण सुने होंगे और साम्प्रदायिक सदभाव पर चलने की कसम खायी होगी। क्या वह पुलिस महकमे से सम्बद्ध किसी स्पेशल सेल का हिस्सा थे जिन्हें ऐसे ही कामों को अंजाम देने के लिए प्रयोग किया जाता है जो फिर लापता हो जाते हैं। लगभग नौ साल पहले मुंबई में अपने ही चेम्बर में मार दिए गए युवा एवं साहसी वकील शाहिद आज़मी – जिन्होंने आतंकवाद के नाम पर गिरफतार कइयों को अदालती लड़ाइयों से रिहा करवाया था और इस दौरान तमाम धमकियों का भी मुकाबला किया था – उसके पीछे भी ऐसे ही समूहों की सक्रियता की बात चलती रहती है।

वैसे यह बहुत सकारात्मक है कि प्रोफेसर राम पुनियानी को आतंकित करने की इस हरकत के खिलाफ देश भर में आवाज़ बुलन्द हुई है, सैकड़ों सामाजिक कार्यकर्ताओं, लेखकों, सांस्क्रतिक कर्मियों या सरोकार रखनेवाले नागरिकों ने इस सम्बन्ध में मुंबई पुलिस के कमीशनर से इस सम्बन्ध में जांच तथा दोषियों को दंडित करने की मांग की है। 

इसे विचित्र संयोग कहा जाना चाहिए कि प्रोफेसर राम पुनियानी को ‘‘सीआईडी’ अफसरों के नाम पर आतंकित करने की इन कोशिशों पर खुलासा उसी वक्त़ हुआ है जब भाजपा शासित दूसरे एक राज्य – सूबा उत्तर प्रदेश – से एक ‘अलग किस्म की अवार्ड वापसी’ का मामला सूर्खियां बना है। यह बात यहां रेखांकित करनेवाली है कि इस बार एवार्ड वापसी लेखक/लेखकों की तरफ से नहीं – जैसा कि 2015 में हुआ था, जब देश में बढ़ती असहिष्णुता के खिलाफ विभिन्न भाषाओं के लेखकों, कलाकारों ने उन्हें सरकार की तरफ से मिले पुरस्कार वापस किए थे, जिसने केन्द्र में सत्तारूढ भाजपा सरकार को बचावात्मक पैंतरा अख्तियार करना पड़ा था – बल्कि इस बार बिल्कुल उलट हुआ था।

प्रोफेसर रविकांत, जो लखनऊ विश्वविद्यालय में हिन्दी पढ़ाते हैं और जिन्होंने ‘राष्टवाद’ पर दो किताबों का सम्पादन किया है जो चर्चित भी हुई हैं, तथा जो ‘अदहन’ नाम से एक पत्रिका का भी संचालन करते हैं, उनके साथ यह वाकया हुआ। कुछ दिन पहले राज्य कर्मचारियों की संस्था ‘‘राज्य कर्मचारी साहित्य संस्थान’ जो साहित्य को बढ़ावा देने का काम करती है, उसने 28 फरवरी को एक लिखित पत्रा के जरिए उन्हें सूचित किया कि साहित्यिक योगदानों के लिए उन्हें प्रतिष्ठित ‘रमणलाल अग्रवाल पुरस्कार’ /11 हजार रूपए/ से सम्मानित करना चाहती है, जो उन्हें 17 मार्च को प्रदान किया जाएगा। अभी उन्हें पुरस्कार प्राप्ति की ख़बर अधिक चर्चा में आयी भी नहीं थी कि उसी संस्था ने 6 मार्च को एक दूसरा पत्र लिख कर उन्हें सूचित किया कि वह किसी विवाद से बचने के लिए उन्हें प्रदत्त एवार्ड वापस ले रही है। कारण यही बताया गया कि फेसबुक पर लिखी उनकी सरकारी नीतियों की आलोचनावाली टिप्पणियों के चलते वह इस कदम को बढ़ा रहे हैं।

अधिक आश्चर्यजनक बात यह थी कि प्रोफेसर रविकांत का सामाजिक-राजनीतिक नज़रिया कोई छिपा नहीं रहा है – जबकि उन्हें सुसंगत तरीके से हमेशा धर्म की राजनीति करनेवाली पार्टियों को निशाने पर लिया है और अलग अलग अवसरों पर मोदी-योगी सरकारों के कदमों पर प्रश्न उठाए हैं – और ऐसी बातों को उन्होंने अपनी सम्पादित किताबों, अदहन पत्रिका के माध्यम से तथा सेमिनार/सभाओं में अपने भाषणों के माध्यम से प्रस्तुत किया है।

दूसरी विचित्र बात यह थी कि संस्थान ने एक ऐसे व्यक्ति की शिकायत का संज्ञान लिया जिस शख्स का साहित्य की दुनिया से कोई वास्ता नहीं रहा है। दिल्ली में संचालित एक एनजीओ ‘हयूमन एण्ड एनिमल क्राइम कंटोल’ के संचालक ने कथित तौर पर यह शिकायत दर्ज की थी। संस्थान की इस मनमानी के विरोध में पूर्व मुख्यमंत्राी अखिलेश यादव ने भी टिवट किया:

‘‘दलितो पर भाजपा का हमला लगातार जारी है। आज लखनउ विश्वविद्यालय के प्रोफेसर रविकांत को भाजपा विरोधी द्रष्टिकोण रखने के चलते राज्य द्वारा प्रायोजित एक एवार्ड से वंचित किया गया। यही है उनके “राष्टवाद’’ का असली चेहरा  …..’’

विद्वानों, सामाजिक कार्यकर्ताओं पर पहुंचते ‘अजनबी मुलाक़ाती’ या असहमति रखनेवाले प्रोफेसरों से पुरस्कार लौटाने की तिकडमें या इंजिनीयरिंग कालेज के एक अध्यापक को केन्द्र सरकार की युद्धखोर नीतियों की आलोचना करने के लिए हिन्दुत्व के गुंडों द्वारा सरेआम बेइज्जत किए जाने तथा घुटना टिका कर माफी मांगने के लिए मजबूर किया जाना और ऐसे आततायियों के खिलाफ पुलिस में शिकायत भी दर्ज न होना   या विश्वविद्यालयों द्वारा आलोचनात्मक चिंतन को बढ़ावा देने वाली किताबों को पाठयक्रमों से बाहर कर देना ,आखिर हम कहां बढ़ रहे हैं ?
एक दूसरे से अलहदा दिखनेवाली ऐसी तमाम घटनाएं दरअसल उसी मानसिकता की उपज हैं जो असहमति रखनेवाली हर आवाज़ में ‘आंतरिक दुश्मनों’ को ढूँढ लेती है। ऐसी घटनाएं इस बात की झलक देती है कि रफ्ता-रफ्ता यह मुल्क क्या बन गया है ? याद रहे अभी चंद रोज पहले जाने-माने जनबुद्धिजीवी प्रोफेसर प्रताप भानु मेहता ने ‘इंडिया टुडे’ कान्क्लेव में अपने सरोकारों को साझा करते हुए कहा था :
“हमारे लोकतंत्र के साथ कुछ ऐसा हो रहा है जो लोकतांत्रिक आत्मा को ख़त्म कर रहा है. हम गुस्से से उबलते दिल, छोटे दिमाग और संकीर्ण आत्मा वाले राष्ट्र के तौर पर निर्मित होते जा रहे हैं।”

क्या आने वाले चुनावों के बाद हमें नफरत एवं विभाजन के इस वातावरण से, आलोचनात्मक चिंतन पर बढ़ते हमलों से मुक्ति मिल सकेगी ? क्या भारत के विचार पर जो संगठित आक्रमण दिखाई दे रहा है तथा ‘न्यू इंडिया’ के नाम पर एक असमावेशी, बहुसंख्यकवादी राष्ट को जो गढ़ा जा रहा है, उससे मुक्ति मिलेगी ? हालांकि ऐसे मामलों में किसी भी तरह की भविष्यवाणी करना नामुमकिन है मगर हम इतिहास इस बात का गवाह है कि वर्ष 2004 में जबकि वाजपेयी सरकार नए जनादेश के लिए मैदान में उतरी, और आज की ही तरह मीडिया के अच्छे खासे हिस्से ‘‘इंडिया शाइनिंग’’ के उसके नारे के वाहक बन गए, और जिन्होंने यह दावा तक करना शुरू किया कि केन्द्र में भाजपा सरकार की वापसी हो रही है, तबभी कई लोगों को लग रहा था कि वाजपेयी सरकार बनने जा रही है और उसे सत्ता से बेदखल होना पड़ा था। 

आज भी इतिहास अपने आप को दोहराता दिख रहा है कि गोदी मीडिया तथा कार्पोरेट सम्राट मिल कर मौजूदा सरकार के पक्ष में माहौल बनाते दिख रहे हैं, यही कहते दिख रहे हैं कि मोदी सरकार लौट रही है, मगर जनता की वास्तविक समस्याओं बढ़ती बेरोजगारी, किसान आबादी का संकट तथा बढ़ती महंगाई जैसे मुददों के चलते असंतोष का लावा क्या रूप ग्रहण करेगा, भारत की ‘‘जिन्दा कौमें’ चुपचाप बरदास्त करेंगी, यह कहना उनके विवेक को कम करके आंकना होगा।

जैसा कि प्रोफेसर अमर्त्य सेन ने पिछले दिनों कहा था कि इन सबमें सबसे अहम बात है कि किस तरह नागरिक ‘‘मानवीय मूल्यों की बुनियाद को बहाल करते हैं’, किस तरह वह जनतंत्रा में ‘‘सहभागिता एवं बहस मुबाहिसे’ की प्रक्रिया को जारी रखते हैं और किस तरह सरकारों पर प्रश्न उठाते हैं जब वह गलत कदम उठाती दिख रही हों, भले ही इसके लिए उन्हें राष्टविरोधी कह दिया जाए।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और विचारक हैं।


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