व्यालोक
राजसमंद की हत्या पर धूल पड़े चार दिन हो रहे हैं। इस बीच ब्रेकिंग ‘न्यूज’के चक्कर में हम सभी ‘क्विक ऑर्गैज्म’का शिकार हो गए और हमें पता भी नहीं चला। ‘एक इंसान की हत्या किसी भी रूप में निंदनीय है’- कायदे से हमारा प्रस्थान-बिंदु यही होना चाहिए। यह किसी भी तर्क की आधारभूमि होनी चाहिए, लेकिन विडंबना देखिए कि राजनीतिक नारों तले संवेदनशील लोग भी इसी मूल बात को डाइल्यूट किए दे रहे हैं।
प्रस्थान बिंदु तो प्राकृतिक है, देय है। उस पर बात क्या करनी? बात इस पर होनी चाहिए कि एक व्यक्ति पूरे इत्मीनान से हत्या करता है, उसकी वीडियो बनाता है, मने कोई दूसरा भी है, उसके बाद उस वीडियो को पूरी दिलेरी से इंटरनेट पर डाल देता है। फिर शुरू होता है तमाशा। वीडियो कुछ ही देर में वायरल हो जाता है। समाचार चैनलों पर बहसें शुरू हो जाती हैं। बात दरअसल उस व्यक्ति की इस दरिंदगी और पाशविक व्यवहार तक पहुंचने पर होनी चाहिए थी, इस पड़ाव तक पहुंचने में उसकी यात्रा की होनी चाहिए थी, कानून के डर की समाप्ति और हत्यारे के मनोरोग की होनी चाहिए थी। हो क्या रहा है? ”हिंदू आतंकी ने एक गरीब मुसलमान की हत्या की”, ”फासीवादी सरकार के राज में हत्याएं” से लेकर लिंचिस्तान और न जाने क्या-क्या की बात हो रही है। एक दिन दिल्ली में इस घटना के विरोध में मानव श्रृंखला बनाई गई। नारा दिया गया, ”मुस्लिम लाइव्स मैटर”। इसका मतलब समझते हैं? एक शख्स की पाशविकता को ”मुसलमानों के इंसान होने” से जोड़ देने का राजनीतिक रिडक्शन कितना घातक है? इसके ठीक उलट, कुछ हलकों में हत्या को उचित ठहराया जा रहा है। क्रिया की प्रतिक्रिया बताया जा रहा है। हत्यारे के समर्थन में वॉट्सएप ग्रुप बना दिए गए हैं। उसके परिवार को पैसे पहुंचाए जा रहे हैं।
एक समाज के तौर पर 1947 से 2017 की हमारी यात्रा में राजनीति तो हमेशा से पुंश्चली रही है। वह वैसी ही रहेगी, थोड़ी-बहुत ऊपर-नीचे होकर, पर समाज के तौर पर हमने खुद को क्या बना लिया है? एक बीमार मुल्क, जो दहकते हुए ज्वालामुखी के दहाने पर खड़ा है। इतिहास में दिए गए सबसे बड़े घाव 1947 के वक्त भी मुल्क की ज़मीन तकसीम हुई थी, लेकिन आज इस देश की रूह, आत्मा बंट गई है। यूरोप दो महायुद्धों की विभीषिका से इसलिए बच सका कि उसने अपने घाव खोल दिए, उनका ऑपरेशन किया और स्वस्थ हो गया। हमने हश्श…हश्श कहते हुए जितना भी अपने घाव को छुपाया, वह नासूर बनता गया। हमने गंदगी को जितना कालीन के अंदर बुहारा, वह उतना ही उघड़ती चली गई। यूरोप ने दो महायुद्ध झेले, रंगभेद, गुलामों की मंडी, वगैरह सबकुछ झेला। वहां क्या हुआ? एक-एक घाव को उधेड़कर दवा दी गयी, विषाणुओं को हटाया गया, फिल्में बनीं, सूचना दी गयी, नाटक-नृत्य-इतिहास-साहित्य रचा गया, नाज़ी जर्मनी के बारे में पूरी दुनिया को बताया गया। रंगभेद पर इतनी फिल्में, इतनी कविताएं, इतने पेंटिंग, उपन्यास, कि कुछ छुपा ही नहीं रहा। यूरोप आगे बढ़ गया, जख्मों को भर कर। मानवरोधी अपराध वहां भी हैं, लेकिन यूरोप कम से कम दोहरा नहीं है।
हमने क्या किया? विभाजन जैसे बड़े हादसे से गुजरकर भारत स्वाधीन हुआ, लेकिन आप इस पर रचा गया साहित्य, पेंटिंग, इतिहास आदि खोजिए। वाकई, खोजना पड़ जाएगा। हम एक भव्य झूठ के साथ बड़े हुए। हमें विभाजन के बारे में कितनी जानकारी है? हां, हमने खोखले भाईचारे के नारे खूब बुलंद किए। इसके साथ ही हमने‘डर के मारे’इतिहास का पुनरीक्षण तक नहीं किया। हमने पता नहीं किस लोभ से तथ्यों पर भी बात नहीं की, बल्कि पहले व्याख्या ही शुरू कर दी। हमारा इतिहास As it is न होकर Explanatory हो गया। इस देश की रूह, आत्मा सनातन है और हमने ज़बरिया इसको सेकुलर बनाना चाहा। वह सेकुलरिज्म भी बूढ़ा, बौना, विकलांग। आपने यूनिफॉर्म सिविल कोड बनाया नहीं, बल्कि उस पर बात करने तक की मनाही हो गयी। अतिरिक्त सावधानी बरतने के चक्कर में आप अतिवाद (संरक्षण के) पर उतारू हो गए।
एक ऐसा देश जहां सैकड़ों वर्ष तक अलग नस्लों, जातियों, सभ्यताओं और संस्कृतियों का संघर्ष, संक्रमण, आकर्षण और मिश्रण हुआ, उसे हमने एकरूप बनाने की कोशिश की, जबकि होना तो यह चाहिए था कि हम एक छतरी के नीचे सभी पहचानों को फलने-फूलने देते। कहने भर को हम फेडरल रहे, लेकिन विचार और व्यवहार में हम एकनिष्ठ होते चले गए। सनातन के आदर्श मंत्र ‘एकं सत्, विप्रा बहुता वदन्ति’ को अगर हमने आत्मसात् कर लिया होता, तो शायद हमारी हालत दूसरी होती। थोपे हुए यूरोपीय आदर्शों को हम कैसे अपना सकते थे? मुट्ठी भर वकीलों ने जब देश के भाग्य का फैसला किया, तो भूल गए कि देश की 90 फीसदी जनता को उनकी भाषा तक समझ में नहीं आती थी। कमाल यह है कि देश के निर्माण का जिम्मा उस व्यक्ति और उसकी टीम को दिया गया, जिसे ‘भारत की खोज’ करनी पड़ी थी। इसीलिए, हमारा देश बना ‘इंडिया दैट इज भारत’। यूरोपीय समाजवाद को जस का तस लादने की जिद में आप भूल गए कि आपके यहां ग्रामीण संरचना, अर्थव्यवस्था, सामाजिकी, वानिकी और आर्थिकी है। आज आप न तो यूरोप की तरह औद्योगिक राष्ट्र हैं, साथ ही आपके गांव भी मर-खप गए। सभ्यता की मूर्खतापूर्ण दौड़ तो 1991 में मानो बाढ़ और 2001 के बाद सुनामी ही बन गयी। सामाजिक ताना-बाना ही हमने तोड़ कर रख दिया।
1991, 2001 और फिर 2011 के बाद एल.पी.जी. (Liberalisation, Privatisation, Globalisation) के बाद तकनीक की अंधी आंधी ने आज हमें Post-Truth तक लाकर खड़ा कर दिया है। हमने बीच के चरण ही छोड़ दिए। हम ढंग से औद्योगिक राष्ट्र बनते, उसके पहले ही हम सेवा-क्षेत्र में आ गए। हमारे सामाजिक सूचकांक, आधारभूत ढांचा आदि शर्मनाक से भी बुरी हालत में हैं, लेकिन मोबाइल और इंटरनेट को हमने जरूर हाथ-हाथ तक पहुंचा दिया। मुझे अपनी चार साल पहले की एक यात्रा याद आती है। मध्यप्रदेश के जबलपुर के पास मंडला ज़िला है। वहीं का एक कस्बा है-बिछिया। बैगा जनजाति के लोग रहते हैं। कान्हा नेशनल पार्क के पास और बहुतेरे गांव इसके बफर ज़ोन में आते हैं। दुहराने की जरूरत नहीं कि भयानक गरीबी और शोषण चहुंओर बिखरा। सारे फंड की बंदरबांट हो जाती है। सरकारी अधिकारियों ने एकाध नहीं पूरे 20 गांवों की आबादी को फरार घोषित कर दिया है। जब सरकारी अधिकारियों के साथ मैं वहां पहुंचा तो भूखे-नंगे मर रहे आदिवासियों की एक ही मांग थी- हमें मोबाइल टावर दे दो। मैं तब भी उस गणित को नहीं समझ सका, आज भी नहीं समझता। कोई समाजशास्त्री इसकी व्याख्या करे, तो कर सके।
राजसमंद के वीडियो से भी वीभत्स और क्रूर वीडियो हमारे-आपके चारों ओर बिखरे पड़े हैं। यहां मेरा प्वाइंट केवल यह है कि हमारी समुचित तैयारी नहीं थी इस विस्फोट के लिए। क्या हम इस तकनीकी विस्फोट के लिए तैयार थे? क्या हमें बच्चों को यह नहीं बताना चाहिए कि तकनीक का इस्तेमाल कैसे करें? जिस देश के 60 फीसदी लोग जीने के लिए, दो जून की रोटी के लिए संघर्ष कर रहे हों, वहां हमारी प्राथमिकताएं ही उलट-पुलट हो गयी हैं। मुझे इस पर अपने एक संपादक का वाक्य याद आता है, ”बिना किसी तैयारी के टीवी मीडिया के बूम ने इस सशक्त माध्यम की भ्रूण हत्या कर दी।” अखबार पचास साल में भ्रष्ट हुए, टीवी 10 साल में और सोशल मीडिया पांच साल से कम में ही तबाही का बायस बन गया। जिनकी तीव्र तकनीक, समाज का क्षरण भी उतना ही तेज़। एक सशक्त माध्यम को शोर, कुतर्क और तथ्यों की जगह जिस तरह बलजोरी का माध्यम बना दिया गया है, वह लोकशाही की मौत की इबारत गढ़ रहा है।
राजसमंद के वीडियो के जवाब में कर्नाटक और बिहार से वीडियो आ गए हैं। पहला पत्थर किसने मारा, जैसे सवाल उठने लगे हैं, लेकिन मुद्दे पर बात अभी तक नहीं हुई। मसला तो यह है कि राजसमंद की हत्या का बचाव करने वाले लोग बहुतायत में नज़र आ रहे हैं। वे फ्रिंज नहीं रहे। किसी भी सभ्य समाज में हत्या करना, जला देना, एक फ्रिंज गतिविधि हो सकती है। अपवाद हो सकता है। हमारा समाज इसे केंद्र में ला चुका है। राजसमंद और दिल्ली की दूरी खत्म हो चुकी है। हत्यारा हमारे-आपके बीच है। हम उसे समझने के बजाय परिभाषित करने में लगे पड़े हैं। क्या इससे ज्यादा अफ़सोसनाक कुछ और हो सकता था?
लेखक डेढ़ दशक से पत्रकारिता में सक्रिय हैं। विभिन्न संस्थानों में काम कर चुके हैं। संप्रति स्वतंत्र लेखन।