हिरासत में रोज़ एक बलि लेने वाली योगी पुलिस को मिलेगा यूपीकोका का हंटर !



हरे राम मिश्र

उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने प्रदेश में संगठित अपराध निरोधक अधिनियम (यूपीकोका) लाने का फैसला किया है। संगठित और पेशेवर अपराधियों से निपटने के नाम पर लाए जा रहे इस कानून के प्राविधानों पर अगर गौर किया जाए तो संक्षेप में यह राज्य की पुलिस को ऐसे असीमित अधिकार देता है जिसे किसी अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती। लेकिन जब समूची पुलिस मशीनरी ही विश्वसनीयता के संकट और नागरिकों के लोकतांत्रिक अधिकारों के हनन के गंभीर आरोपों से जूझ रही हो, ऐसे में यह सवाल जरूर उठता है कि मजबूत होते लोकतंत्र के दावों के बीच, हमारी सरकारों को ऐसे काले कानूनों की क्या आवश्यकता है?

दंड प्रक्रिया संहिता के उपबंधों के दुरुपयोग और फर्जी मुकदमों में आम नागरिकों फंसाने के पुलिस के ’खेल’ की रोजना सामने आती गंभीर कहानियों के इस दौर में, योगी सरकार का ’यूपीकोका’ जैसे खतरनाक कानून को लागू करने का फैसला यह साबित करता है कि सरकार अपनी नाकामी से उपजी  नाराजगी को पुलिसिया तंत्र के बर्बर इस्तेमाल से ’चुप’ कराना चाहती है। इसके साथ ही साथ योगी सरकार इस कानून के मार्फत समूचे प्रशासन को ’हिन्दुत्व’ के सर्वाधिकारवादी निरंकुश तंत्र के ’दर्शन’ से लैस करने की तैयारी भी कर रही है।

हलांकि उत्तर प्रदेश में यूपीकोका लाने का सबसे पहले संगठित प्रयास मायावती द्वारा वर्ष 2007 में किया गया था। यह उस समय विधानसभा से पास हो गया था और राष्ट्रपति के पास मंजूरी के लिए भेजा गया था। लेकिन तब राष्ट्रपति द्वारा इसे मंजूरी नहीं दी गई थी। हलांकि बाद में मायावती ने तीखे विरोध के बाद इसे वापस ले लिया था। वर्तमान कानून का मसविदा मायावती के शासन के वक्त तैयार मसविदे से भी ज्यादा खतरनाक है। यूपीकोका का यह वर्तमान विधेयक महाराष्ट्र के मकोका के अलावा कर्नाटक व गुजरात में लागू ऐसे कानूनों का अध्ययन कर तैयार कराया गया है।

गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश में पुलिस हिरासत में मरने वालों का औसत प्रतिदिन एक व्यक्ति का है। इसे सुधारने और पुलिस को लोकतंत्र के प्रति जिम्मेदार और पारदर्शी बनाए जाने के ठीक उलट, योगी सरकार समूची पुलिस मशीनरी को और ज्यादा बर्बर और हिंसक बनाने का प्रयास कर रही है। सत्ता में आने के ठीक बाद, कानून और व्यवस्था सुधारने के नाम पर खुद योगी आदित्यनाथ ने प्रदेश में अपराधियों का एनकाउंटर करने का आदेश पुलिस को जारी किया। चार सौ से ज्यादा एनकाउंटर करने के बाद भी आम जनता का पुलिस पर भरोसा बहाल नहीं हो सका। इससे कोई सीख लेने के ठीक इतर, योगी सरकार ने ’यूपीकोका’ को लागू करने का फैसला किया।

दरअसल इस कानून के आलोचकों की सबसे बड़ी आपत्ति यह है कि यूपीकोका वर्तमान में साक्ष्य के कानून को एकदम बदल देता है। वर्तमान व्यवस्था में पुलिस के समक्ष दिया गया किसी भी अभियुक्त का बयान महत्वहीन होता है तथा उसे न्यायालय साक्ष्य के तौर पर स्वीकार नहीं करता। लेकिन यूपीकोका में, वह चाहे किसी भी प्रदेश का हो- पुलिस अधिकारियों को यह अधिकार देता है कि वह अभियुक्त का बयान जिस तरह चाहें दर्ज कर लें- न्यायालय उसे स्वीकार करेगा। यही नहीं, यह कानून पुलिस को मनमाने तरीके से अभियुक्तों को प्रताड़ित करने का भी पूरा अधिकार देता है।

यह किसी से छिपा नहीं है कि स्वीकारोक्ति के लिए पुलिस अधिकारी अभियुक्तों के साथ थर्ड डिग्री टार्चर का इस्तेमाल करते हैं। ऐसे में यह कानून पुलिस अधिकारियों को पूरी तरह से निरंकुश बना देगा और उनके द्वारा थर्ड डिग्री टार्चर के विरुद्ध भी किसी तरह की ’कानूनी’ कार्यवाही नहीं की जा सकेगी। भले ही इसे लागू करने के पीछे योगी सरकार द्वारा यह प्रचारित किया जा रहा है कि इसका इस्तेमाल भू-खनन माफियाओं और पेशेवर अपराधियों के खिलाफ किया जाएगा, लेकिन पुलिस के उत्पीड़क चरित्र को देखते हुए इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि इसे आम आदमी, सामाजिक कार्यकर्ताओं, राजनेताओं और हर उस व्यक्ति पर आयत नहीं किया जाएगा जिससे सत्ता को खतरा महसूस होगा। यही नहीं, इस कानून की आड़ में पुलिस अपनी व्यक्तिगत दुश्मनी भी निकालेगी। हम सब महाराष्ट्र में ’मकोका’ के दुरुपयोग की सैकड़ों कहानियों से परिचित हैं।

यहां एक बात और है कि जिन लोगों से निपटने के नाम पर इस कानून को उत्तर प्रदेश में लागू किया जा रहा है उन्हें हर सरकार में राजनैतिक संरक्षण मिलता है। इस ’हम्माम’ में पक्ष और विपक्ष दोनो ही नंगे हैं। प्रदेश में बढ़ते अपराध पर चिंतित योगी सरकार ने आज तक कोई ऐसा कदम नहीं उठाया जिससे यह दिखायी दे कि वह अपराधियों का संरक्षण करने वाली राजनीति को हतोत्साहित करते हैं। यह बात अलग है कि योगी सरकार ने प्रदेश को अपराध मुक्त बनाने के नाम पर समूची पुलिस मशीनरी को हत्यारों के गिरोह में परिवर्तित कर दिया है। यही कारण है कि चार सौ से ज्यादा एनकाउंटर के बाद भी यूपी पुलिस आम जनता के बीच अपनी साख कायम नहीं कर सकी क्योंकि अपराध के संरक्षण का सबसे बड़ा अड्डा यही राजनीति है और इस मुद्दे पर योगी की चुप्पी कायम रही।

यही नहीं, बातें और भी हैं। इस कानून का दुरुपयोग मुसलमानों के खिलाफ नहीं होगा इसकी कोई गारंटी नहीं है। ऐसा इसलिए भी है कि हमारी क्योंकि पुलिस मशीनरी का ’चरित्र’ घोर सांप्रदायिक है। उदाहरण के लिए अब तक आतंकवाद के मामले में जितने भी मुकदमे कायम किए गए हैं, किसी में भी पुलिस द्वारा साक्ष्य नहीं जुटाया जा सका है। बेगुनाहों को फंसाने और झूठी कहानियां गढ़कर जेलों में सड़ाने, एनकाउंटर करने के कई किस्से हमारे समक्ष खड़े हैं। उत्तर प्रदेश में तो बाकायदा एक सरकारी दस्तावेज इस बारे में लिखा गया है जो ’निमेष’ कमीशन की रिपोर्ट नाम से जाना जाता है। आतंकवाद के नाम पर फर्जी गिरफ्तारियों के मामले में इस कानून का दुरुपयोग नहीं होगा- इसकी कोई गारंटी नहीं है। यही नहीं, इस कानून के लागू होने के बाद, पुलिस को विवेचना के लिए मेहनत नहीं करनी होगी और वह स्वीकारोक्ति के आधार पर ही बेगुनाहों को सजा दिलाने में सफल होगी।

दरअसल इस तरह के काले कानून वंचित समाज पर राज्य द्वारा संगठित हमले की साजिश हैं जिसके चलते आदिवासी समाज को नक्सलवाद-माओवाद के नाम पर जेल में ठूँसा जाएगा। यह कानून संविधान में सम्मान से जीवन जीने की गारंटी का भी आपराधिक उल्लंघन करेगा और समूचे लोकतंत्र को हिन्दुत्व के दर्शन से लैस पुलिस केन्द्रित अधिनायकवादी राज्य में तब्दील कर देगा। यह कानून गुजरात के बाद उत्तर प्रदेश को हिन्दुत्व की प्रयोगशाला के बतौर तैयार करने की एक कोशिश भी है। क्योंकि पहले से ही घोर सांप्रदायिक पुलिस मशीनरी को एक ऐसा हथियार चाहिए जो बिना किसी रोक टोक और सवाल के प्रदेश की अल्पसंख्यक आबादी को डराते हुए उनका दानवीकरण कर सके और उसके ठीक उलट बहुसंख्यक आबादी के राजनैतिक और भावनात्क शोषण का एक जरिया भी बन सके। यूपीकोका हिन्दुत्व के इस खेल का हथियार बनेगा।

असल में भाजपा एक एक ऐसे समाज में यकीन रखती है जहां कुछ लोगों के शब्द ही कानून का काम करें। वह एक ऐसे लोकतांत्रिक समाज को नापसंद करती है जहा प्रशासनिक मशीनरी को पूरी पारदर्शिता के साथ ’जिम्मेदार’ बनाया जाए। कहने को हमारा लोकतंत्र सत्तर साल पुराना है लेकिन इस पूरे दौर में हमारी पूरी पुलिस लगातार बर्बर, हिंसक और निरंकुश हुई है। क्या हमारे राजनैतिक तंत्र द्वारा पुलिस को काले कानूनों और स्वचालित हथियारों से लैस करने के पीछे आवाम को आतंकित करने की एकमात्र मंशा नहीं है? क्या हमारी पुलिस अपने नागरिकों से ही कोई युद्ध लड़ने की तैयारी कर रही है जिसके लिए ऐसे कानूनों की जरूरत है? अगर ऐसा नहीं होता तो फिर पुलिस सुधार लागू करने की जगह योगी सरकार यूपीकोका जैसा काला कानून लागू करने की तैयारी नहीं कर रही होती।

(लेखक समाजिक राजनैतिक कार्यकर्ता और स्वतंत्र पत्रकार)