लोकतन्त्र की मर्यादाओं को जितने विद्रूप ढंग से तार-तार किया जा सकता है, किया जा रहा है हालांकि इसकी पराकष्ठा अभी बाकी है। यह काम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राजनैतिक इकाई भारतीय जनता पार्टी और संसद में उसके सहयोगी अन्य राजनैतिक दलों ने 2014 से 2019 के बीच के कार्यकाल में किया और फिर से बहुमत पाकर 2019 से उसकी गति बढ़ा दी है।
कल दिल्ली विधानसभा चुनावों के लिए मतदान होना है। इस चुनाव अभियान में सबसे ज़्यादा ज़ोर जिन शब्दों पर रहा उनमें हिन्दू, बहुसंख्यक, मुसलमान, शरणार्थी, नागरिकता, टुकड़े-टुकड़े गैंग, देशद्रोही, बिरयानी, बिकाऊ औरतें, बोली-गोली, आतंकवादी, पाकिस्तान, बिरयानी, आज़ादी, संविधान, जन गण मन, वन्देमातरम, सारे जहां से अच्छा, देश के गद्दार, शिक्षा, स्वास्थ्य, गवर्नेंस, कागज़, फ्री फ्री फ्री लेकिन सबसे ज़्यादा बार बोला गया शब्द बना- शाहीन बाग!
शाहीन बाग आज नागरिकता संशोधन कानून, एनआरसी, एनपीआर के खिलाफ पूरे देश में चल रहे स्वत: स्फूर्त नागरिक आंदोलनों का प्रतीक बन गया है। इस आंदोलन को आज 55 दिनों से ज़्यादा समय हो रहा है। यमुना किनारे बसा मुस्लिम बहुल इलाके में एक मक़ाम, जहां सबसे पहले स्थानीय ख़वातीनों ने जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के निर्दोष छात्र-छात्राओं पर 15 दिसंबर, 2019 को हुए पुलिस दमन के खिलाफ अपनी आवाज़ बुलंद की और बच्चों पर हुई हिंसा के खिलाफ वहीं बैठ गईं।
धीरे-धीरे यह विरोध संविधान की मूल आत्मा के खिलाफ लाये गए नागरिकता संशोधन कानून उससे जुड़ी एनआरसी की प्रक्रिया और बाद में घोषित हुई एनआरपी की प्रक्रिया से सरकार के मंसूबों के खिलाफ एक बड़े सत्याग्रह में बदल गया। इस आंदोलन को दिल्ली और दिल्ली के बाहर देश की सामासिकता व धर्मनिरपेक्षता को बचाने का अगुवा मान लिया गया। देश में अभी लगभग 120 शाहीन बाग जैसे सत्याग्रह निरंतर चल रहे हैं। केवल दिल्ली में ही ऐसे 10 सत्याग्रह महिलाओं नेतृत्व में जारी हैं जिन्हें सभी धर्मों के लोगों का भरपूर समर्थन मिल रहा है।
भाजपा पोषित इस्लामोफोबिया और ध्रुवीकरण की मंशाओं का माकूल जवाब देश की दादियों, मांओं, बहनों और दोस्तों ने दिया है।
बीती 6 जनवरी को जब दिल्ली विधानसभा चुनावों की घोषणा हुई तब तक शाहीन बाग अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में आ चुका था। हिंदुस्तान के मीडिया ने भी सच्चे-झूठे रूप में पूरे देश में इसके बारे में चर्चा आम कर दी थी। यह लगने लगा था कि चुनावों की घोषणा के साथ ही जैसे इसका मुख्य एजेंडा भी तय हो चुका है। यह चुनाव इस्लामोफोबिया, समाज के धार्मिक/सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और विभेदकारी नागरिकता कानून पर जनमत संग्रह की तरह होगा। यह भी तय हो गया था कि भाजपा अपने तमाम आनुषंगिक संगठनों के बूते उग्र व आक्रामक प्रचार और चुनावी हथकंडों के बल पर इस चुनाव को अपने पक्ष में लाने की भरसक कोशिश करेगी।
दूसरी तरफ स्वाभाविक विपक्ष होने के नाते आम आदमी पार्टी इस एजेंडे को असफल करने की कोशिश करेगी। आम आदमी पार्टी के पास पाँच साल के ठोस काम, स्वच्छ राजनीति और अंतत: लोगों का समर्थन उसे वह भरोसा देता है कि वो दिल्ली के अपने नागरिकों के साथ खड़ी हो। इस चुनाव में आम आदमी पार्टी के लिए हार का जोखिम बहुत कम था और अब भी है।
अब, जबकि औपचारिक रूप से चुनाव प्रचार थम गया है तब पूरे चुनाव अभियान का जायजा लिया जा सकता है- जिसमें ऊपर आए तमाम शब्दों में से कुछ निर्णायक शब्द शेष रह गए हैं जो आज भारत की राजनीति के स्थायी शब्द बन चुके हैं। भाजपा यह सीख चुकी है और उसके पास मौजूद अकूत संसाधनों के बल पर वह हर चुनाव में इसमें कामयाब भी रहती है कि विरोधियों को अपनी पिच पर कैसे लाया जाये। आम आदमी पार्टी ने बहुत सतर्कता और कुशलता से खुद को इस चाल में फँसने से बचाया, ऐसा लगता है। राष्ट्रवाद, साम्प्रादायिक ध्रुवीकरण और खुलकर देश के मुसलमानों के अपमान को चुनाव का मुद्दा बनाने के वजाय सर्विस डिलेवरी और सुशासन के क्षेत्र में किए कामों को ही उसने आगे रखा। राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों को सावधानीपूर्वक तवज्जो नहीं दी गयी।
इससे एक तरफ भाजपा का असली चेहरा सामने आया और दूसरी तरफ आम आदमी पार्टी अपने वोट बैंक को बिखरने से बचाने में कामयाब रही। कल मतदान होगा और अभी तक जो लग रहा है उसमें आम आदमी पार्टी प्रचंड बहुमत से जीतकर आएगी।
अब सवाल है कि इस चुनाव में शाहीन बाग का क्या हुआ? उसे क्या मिला? उसका कोई दखल हो सका या वह महज़ एक ऐसा माध्यम बना दिया गया जिसका इस्तेमाल दोनों दलों ने एक ही एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए किया? थोड़ी उलटबांसी जैसी है लेकिन हिन्दी में अच्छी पंक्तियों के कवि गीत चतुर्वेदी कहते हैं कि ‘दो पहाड़ों को केवल एक पुल नहीं बल्कि खाई भी जोड़ती है’ इस चुनाव अभियान में इसे परखना चाहिए।
आक्रामक रूप से दो विरोधी दल जो वास्तव में दो लोकप्रिय नेताओं के चेहरों पर केन्द्रित हैं, यहाँ दो पहाड़ों की तरह हैं। धुर विरोधी एके 47 से लेकर आतंकवादी से लेकर रावण से होते हुए क्या क्या नहीं। शानदार जुगलबंदी। दोनों एक दूसरे पर शाहीन बाग बनाने की तोहमतें लगाते हुए। एक दल इसे आतंक की नर्सरी और सड़क जाम का बड़ा कारण बताता है तो दूसरा कहता है–आपके पास पुलिस है, हटा दो। अगर दिल्ली सरकार के नियंत्रण में पुलिस होती तो दो घंटे में रास्ते साफ करा देते। भाजपा आरोप लगाती है कि आम आदमी पार्टी ने धरने में धन लगाया है और किराये से औरतें बुलाई हैं और बिरयानी सप्लाई कारवाई है तो आम आदमी पार्टी कहती है कि इस धरने से भाजपा को फायदा हो रहा है और चुनाव बाद सब बंद हो जाएगा। दोनों दलों के शाहीन बाग पर दिये गए वक्तव्यों को गौर से सुनिए तो लगता है कि शाहीन बाग मंदिर का घंटा है जिसे सभी दर्शनार्थियों को बजाना है।
यह सत्याग्रह क्यों चल रहा है? इसका समाधान किसके पास है? दिल्ली के नागरिक हैं तो उनकी प्राथमिक सरकार ने उन्हें कितना सुना, सुनकर क्या केंद्र सरकार पर हल करने का दबाव बनाया? केंद्र सरकार ने भी क्या अपने इन असहमत नागरिकों के प्रति थोड़ी भी उदारता दिखाई? इसके उलट इसे तौहीन बाग, बलात्कारियों और हत्यारों का संगम बताया। बाकी दोनों दल अपनी अपनी पिच पर अपने अपने वोट बैंक को संयोजित करते रहे।
कितना अच्छा होता अगर दिल्ली के निर्वाचित लोकप्रिय मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल देश के लोकप्रिय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से आग्रह करते कि चलिये, हम दोनों एक साथ शाहीन बाग चलें जहां हिंदुस्तान के संविधान की आत्मा को बचाने के लिए सभी धर्मों की ख़वातीनें डेढ़ महीने से रात दिन बैठी हैं। हो सकता है उनकी आशंकाएं निर्मूल हों या हो सकता है कि उन्हें केंद्र सरकार द्वारा लाये गए नागरिकता संशोधन कानून, प्रस्तावित राष्ट्रीय नागरिकता पंजी (रजिस्टर) या राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर के बीच के संबंधों को लेकर कोई गलतफहमी हो या हो सकता है वो किसी भी वजह से एक समुदाय विशेष पर होने वाले इसके दूरगामी परिणामों को लेकर चिंतित हों और अपनी चिंताओं, सरोकारों, आशंकाओं को अपने इस बेमियादी धरने के माध्यम से अभिव्यक्त कर रहीं हों। ऐसे में हम अलग अलग स्तरों पर उन्हीं की चुनीं दो सरकारें एक साथ उनके पास चलें, उनसे बात करें, उनकी बात सुनें और उनकी शंकाओं का समाधान करें, उन्हें आश्वस्त करें। एक संघीय लोकतान्त्रिक गणराज्य में लोगों की शिकायतों के निवारण की यह यान्त्रिकी सबसे बेहतर होती।
यह लिखते हुए मुझे पूरा भरोसा है कि लोग इसे असंभव कल्पना जैसा कुछ कहेंगे, लेकिन क्या देश का संविधान जिसे बचाने का मकसद लेकर देश के तमाम गांवों, कस्बों, शहरों और महानगरों में लोग सड़क पर बैठे हैं, वो संविधान इसी असंभव लगने वाली परिस्थिति को साकार करने की क्षमताओं से सम्पन्न सुंदरतम दस्तावेज़ नहीं है? किसी भी स्तर पर संवाद की गुंजाइश और संवाद से समाधान का रास्ता संविधान के अलावा कहीं और भी मौजूद है क्या?
विधानसभा चुनाव महज़ एक प्रक्रिया है जो जारी रह सकती है लेकिन संविधान और उसकी आत्मा में लगाई जा रही सेंध को लेकर अगर उसके नागरिकों के मन में कोई भी संशय है तो उसे दूर करना दोनों ही सरकारों का अनिवार्य प्राथमिक दायित्व व कर्तव्य है।
यह सही है कि नागरिकता संबंधी विषय पूर्णता संघीय सरकार का विषय है और दिल्ली जैसे सीमित अधिकार-सम्पन्न राज्य का इस विषय में कम से कम या नहीं के बराबर हस्तक्षेप है लेकिन राज्य के चुने हुए प्रतिनिधि होने की हैसियत से अपने नागरिकों की वाजिब चिंताओं को लेकर दिल्ली की निर्वाचित सरकार को संघीय सरकार से उनके मुद्दे पर कोई बात भी नहीं करना चाहिए? आम आदमी पार्टी ने अपने घोषणापत्र में ऐसे कितने ही मुद्दे शामिल किए हैं जिन पर उसे केंद्र सरकार से बात करना है, उनके लिए संघर्ष करना है। तो क्या एक बड़ी आबादी के मन में उठ रहे उनके नागरिकता के सवाल ‘आप’ की प्राथमिकता में नहीं हैं या बहुत सेलेक्टिव ढंग से उन पर मौन रहना है या असल चिंताओं को दो व्यक्तियों कि लोकप्रियताओं के बीच हो रहे दिल्ली विधानसभा चुनाव में खेत हो जाना है?
शाहीन बाग जिन सवालों पर देश में चल रहे तमाम छोटे बड़े स्वत: स्फूर्त नागरिक आंदोलनों का प्रतिनिधि प्रतीक बन गया है उसे महज ‘कानून व्यवस्था’ में बदल दिये जाने की कोशिश दिल्ली की चुनावी बिसात पर दोनों दावेदार दल करते हुए दिखलाई पड़े। दिल्ली सरकार द्वारा शाहीन बाग के सवालों, चिंताओं, सरोकारों का जवाब यह तो नहीं हो सकता कि शाहीन बाग के लोगों को मुफ्त पानी, मुफ्त और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, सुलभ स्वास्थ्य, मुफ्त बिजली, सीसीटीवी कैमरे, महिलाओं को मुफ्त परिवहन देना ही हमारा काम है लेकिन उनके वजूद से जुड़े सवालों पर दिल्ली की सरकार कुछ नहीं करेगी क्योंकि यह इसके अधिकार क्षेत्र में नहीं आता।
कम से कम भारतीय जनता पार्टी धरने पर बैठी महिलाओं को नागरिक की हैसियत तो देती दिखलाई पड़ रही है लेकिन आम आदमी पार्टी ने तो उन्हें केवल हितग्राहियों की फेहरिस्त में डाल दिया है।
अरविंद केजरीवाल को यह समझना चाहिए कि राजनीति केवल ‘सर्विस डिलेवरी’ नहीं होती बल्कि वह अपने नागरिकों की सुरक्षा, सम्मान और स्वाभिमान के साथ खड़े होने से निर्मित होती है। यह किसी एनजीओ का ‘प्रोजेक्ट प्रपोज़ल’ नहीं है कि हम उतना ही करेंगे जितना लॉग फ्रेमवर्क में लिखा है और ये चुनाव फंडिंग का रिन्यूअल नहीं है। एनजीओ को अपने दायरे पता हैं। इसीलिए तो वे सरकार नहीं हैं।
शाहीन बाग को बैडमिंटन की शटल बना दिये जाते हुए हमने इस चुनाव अभियान में देखा है। एक दल जो इसे हिन्दू-मुसलमान, आतंकवाद, पाकिस्तान, टुकड़े–टुकड़े गैंग, बलात्कारियों का अड्डा, बिकाऊ औरतों के अड्डे के रूप में प्रचारित करेगा और दूसरा दल जो इनका प्रतिनिधित्व कर रहा है इस पवित्र नागरिक सत्याग्रह से पूरी ताक़त से न केवल दूरी बनाएगा बल्कि इस आंदोलन को तोड़ नहीं पाने के लिए केंद्र सरकार को जिम्मेदार बताएगा।
क्या यह चुनाव दो लोकप्रिय नेताओं के बीच आपसी सहमति से बना सहूलियत का चुनाव होने जा रहा है? जिसमें ‘गुड गवर्नेंस’ की जीत भी होगी और बनते हुए हिन्दू राष्ट्र की अंतर्ध्वनि भी, क्योंकि मुस्लिम आबादी को अपमानित किए जाने और उन्हें देश की नागरिकता से च्युत किए जाने के षडयंत्र को तो मुद्दा ही नहीं बनाया गया?