पूरा सिस्टम ही ऐसा लग रहा केंद्र से राज्य तक भुजंगासन कर रहा है और लोग भी उसी के आहंग पर झूम रहे हैं। चुनाव के समय बड़ी-बड़ी बातें बोलने वाले नेतागण माइक छोड़ कर भाग रहे हैं।
कल जिस तरह से भीम आर्मी के सदस्यों से मुज़फ़्फ़रपुर में मीडिया के लोग पूछ रहे थे कि अभी स्थिति से निपटने के लिए आप लोग क्या कर रहे हैं? और आपने अब तक क्या किया है, जो यहां राजनीति करने आ गए?
यह बातचीत मीडिया में वहां उपस्थित साथियों की नागरिक शास्त्र की सामान्य समझ से परिचय कराने के लिए काफी है। अब ऐसा माहौल बना दिया गया है कि सत्ता और प्रशासन-तंत्र के मूलभूत क्रियाकलापों और दायित्वों का संज्ञान भी कोई व्यक्ति या संगठन न ले!
ठीक है कि तमाम लोग अपने ढंग से जागरूकता और सेवा कार्य में लगे हुए हैं। लोगों की सहायता के लिए उन्हें बाहर से पर्याप्त सहयोग भी मिल रहा है,लेकिन वे गिनती के लोग कितने गांवों तक पहुंच पाएंगे और कितने दिनों तक वहां मौजूद रहेंगे! अभी आगे बाढ़ की विभीषिका भी आने वाली है। भयानक सूखा और दिल दहलाने वाली पेयजल की समस्या बिहार झेल ही रहा है। आगे भी यही बेतरतीबी और बदइंतज़ामी दिखेगी हर तरफ!
बार-बार कह रहा हूँ कि सरकारी तंत्र पर ध्यान देने की जरूरत है। किसी व्यक्ति या संगठन के पास उतना धन और तमाम। तरह की व्यवस्थाएँ नहीं है, जितना सरकार के पास है। सरकार जो अकेले कर सकती है, वह एक हजार संगठन भी मिल कर नहीं कर सकते हैं!
और आख़िर में सबसे बड़ी बात कि यह जनता को कभी नहीं भूलना चाहिए कि इन आपदाओं के लिए जिम्मेदार अंततः सत्ता व्यवस्था ही है और इनसे लड़ने की भी प्राथमिक जिम्मेदारी सरकार की ही है।
विगत कुछ वर्षों में जनमानस की चेतना को इस तरह से भ्रष्ट किया गया है कि वह भूल ही गयी है कि सरकार की क्या जिम्मेदारी होती है! अरे भाई जिस ग्लूकोज, ओआरएस को पहुंचाने के लिए अभी हाय-तौबा मची है, वह सारा जीवनरक्षक सामान सरकार के पब्लिक हेल्थ इंजीनियरिंग डिपार्टमेंट के किसी स्टोर रूम में एक्सपायर हो रहा होगा!
इतने आंगनबाड़ी के लोग हैं, सेविकाएं हैं, आशा हैं, गांव-गांव में वार्ड मेंबर, पंच, मुखिया, सरपंच, जिला परिषद, पंचायत समिति, विधायक, सांसद और तमाम राजपत्रित और अराजपत्रित अधिकारी हैं। सब काम गैरसरकारी लोग ही करेंगे तो भला वह क्या करेंगे केवल तनख्वाह उठाएंगे या अपने फंड से अपने पेट का विकास करेंगे!
आपके पास पैसे हैं, आपके पास समय और सामान है, आप वहां जा सकते हैं, खर्च कर सकते हैं। लेकिन कितनी बार? बाढ़ आएगी, फिर से यही बेतरतीबी शुरू होगी। क्या आपने मान लिया है कि केंद्र और राज्य सरकारें विफल हो चुकी हैं या उनका कार्यक्षेत्र बदल गया है? तो भाई ये सरकारें क्यों चुनी जाती हैं और यह सारा सिस्टम क्यों है, जिसको चुनने की प्रक्रिया में उलझने के कारण ही, इस स्थिति से निपटने की पर्याप्त तैयारी नहीं हो पायी।
गलती सरकार की या व्यवस्था की नहीं है, आपकी है। आपने मान लिया है सरकार किसी और दुनिया और काम के लिए है। सरकार ने मान लिया है कितना भी कर लो यह कहाँ जाएंगे। विधायक-सांसद मानते हैं कि लोगों ने मेरे नाम पर तो वोट मुझे दिया नहीं तो मुझे क्यों ढूंढ रहे हैं, वह तो एक आदमी को वोट दिए हैं उस एक आदमी से पूछे और वह एक आदमी तो पांच साल पहले जो पताही में बोल गया था उसे अब तक नहीं दिया और आपसे दुबारा भी वादा कर जीत चला गया।
सुधांशु फिरदौस हिंदी के मानिंद युवा कवि हैं। यह लेख उनकी फेसबुक दीवार से साभार प्रकाशित है।