दिल्ली के निवर्तमान मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के मुखिया अरविंद केजरीवाल ने 20 जनवरी को अपना चुनाव प्रचार कनॉट प्लेस स्थित वाल्मीकि बस्ती से शुरू करते हुए ट्वीट किया था कि वे भगवान वाल्मीकि से आशीर्वाद लेकर नामांकन भरने जा रहे हैं। इससे पहले भी वे इस मंदिर का आशीर्वाद लेते रहे हैं। भगवान तो भगवान हैं, वे भक्तों को कभी निराश नहीं करते लेकिन वाल्मीकि बस्ती के लोग इस बार केजरीवाल को बख्शने के मूड में नहीं दिख रहे हैं।
नई दिल्ली के ऐतिहासिक वाल्मीकि मंदिर से आम आदमी पार्टी के कई पड़ावों की शुरुआत हुई। 2013 में यहीं से हमने राजनीति साफ करने के लिए पहली बार झाड़ू उठाई थी। आज एक बार फिर भगवान वाल्मीकि के आशीर्वाद ले कर अपना नामांकन भरने जाऊंगा।
— Arvind Kejriwal (@ArvindKejriwal) January 20, 2020
आरके आश्रम मेट्रो के ठीक सामने स्थित वाल्मिकी सदन चौथी श्रेणी के कर्मचारियों की बस्ती है। इस बस्ती में रहने वाले अधिकतर लोग एक ही जाति और समुदाय से संबंध रखते हैं। ये समुदाय है दिल्ली के सफाई कर्मचारियों का, जो दिल्ली सरकार और एनडीएमसी के तहत काम करते हैं। नई दिल्ली विधानसभा के तहत आने वाला यह एरिया दिल्ली के मुख्यमंत्री के चुनावी क्षेत्र के तौर पर जाना जाता है जहां से वर्तमान में केजरीवाल विधायक हैं।
केजरीवाल के मुताबिक यह बस्ती वह “ऐतिहासिक पड़ाव” है जहां से “2013 में राजनीति को साफ़ करने के लिए” आम आदमी पार्टी ने झाड़ू उठायी थी। जाहिर है, इस बस्ती का न सिर्फ प्रतिनिधि के तौर पर केजरीवाल के लिए महत्व है बल्कि आम आदमी पार्टी की राजनीति का भी यह प्रतीक है। राजनीति में प्रतीकों का बहुत महत्व होता है, इसीलिए प्रतीकों की वास्तविक स्थिति में बदलाव राजनीतिक दलों को रास नहीं आता। राहुल गांधी की सीट अमेठी और नरेंद्र मोदी की सीट बनारस इसका उदाहरण है जों समय के प्रवाह में केवल चुनाव क्षेत्र के बतौर प्रतीक बनकर रह गए हैं जबकि शेष भारत विकास के मामले में इन दो शहरों से बहुत आगे निकल चुका है।
इसका ताज़ा उदाहरण पेश किया है केजरीवाल ने वाल्मीकि बस्ती में, जहां के लोग उनसे खासे नाराज़ चल रहे हैं।
ढलती जनवरी की एक दोपहर दो बजे के करीब जब हम यहां पहुंचे तो कॉलोनी के भीतर सन्नाटा पसरा हुआ था। आरामदेह धूप के बावजूद एक-दो को छोड़कर अधिकतर लोग के भीतर थे। पार्क में कुछ बच्चे खेलते हुए दिखे। पार्क के भीतर एक कोने में कुछ लोग ताश खेल रहे थे। उनसे थोड़ी दूरी पर कुछ लोग बैठकर गप कर रहे थे। इन्हीं में से एक हैं चीमा महाराज। हम भी उनकी चर्चा में शामिल हो गए।
हमसे बात करते हुए चीमा महाराज बताते हैं, “केजरीवाल जब पहला चुनाव लड़ रहे थे तभी हमारे पास आए थे। हम लोग तभी से उनके साथ जुड़े हुए हैं। हमने रात-रात भर जागकर केजरीवाल के लिये प्रचार किया है। उसके लिये झोली फैलाकर चंदा मांगा है। केजरीवाल भले ही हमें भूल गया हो, लेकिन हम उसको नहीं भूले।”
चीमा महाराज के इस आखिरी वाक्य में बॉलीवुड की किसी नायिका का दर्द झलकता है। आगे महाराज वाल्मीकि सदन का इतिहास बताने लग जाते हैं, “जिस जगह ये कॉलोनी बसी है, पहले यहां माल्चा नाम का एक गांव था। गांव की ज़मीन को अंग्रेजों ने सफाईकर्मियों को बसाने के लिये लिया था। शुरुआत में इसको भंगी बस्ती, फिर दलित मोहल्ला कहा गया और बाद में जब गांधी जी ने दलितों को हरिजन कहना शुरू किया तब इसका नाम हरिजन बस्ती हो गया। आज इसको वाल्मिकी सदन के तौर पर जाना जाता है।”
वहीं बैठे टेकचंद्र चौटाला थेड़े दिन पहले ही रिटायर हुए हैं। वे भी सफाई कर्मचारी रहे हैं। वे बताते हैं कि सरकारी कॉलोनी होने के कारण यहां पर वैसे तो खास समस्या नहीं है, लेकिन रोजगार की समस्या बहुत बड़ी है। वे कहते हैं, “सरकार ने सफाईकर्मियों की भर्ती के लिए जब से ठेकेदारी की व्यवस्था शुरू की तबसे अधिकतर लोग बेरोजगार होते जा रहे हैं। अब पता नहीं रहता कि किसको नौकरी मिलेगी और किसको नहीं।”
वे कहते हैं कि सरकार ने सफाई कर्मचारियों की सभी सुविधाएं खत्म कर दी हैं। पहले की तरह न तो पेंशन मिलती है और न अनुकम्पा के आधार पर नौकरी।
वीरसिंह की पत्नी कमला को सफाई कर्मचारी की नौकरी मिली थी। उनकी मौत हो गई। केजरीवाल से और उनकी सरकार से कई बार दरख्वास्त की गई की पत्नी की जगह पर वीरसिंह को अनुकम्पा के आधार पर नौकरी दे दी जाए लेकिन अभी तक कोई सुनवाई नहीं हुई।
वीरसिंह बताते हैं कि करीब 350 लोग यहां ऐसे हैं जो अनुकम्पा के आधार पर मिलने वाली नौकरी का इंतजार कर रहे हैं।
वाल्मीकि सदन के ही निवासी राजेश कहते हैं, “केजरीवाल ने हम लोगों दिया कुछ नहीं उलटे हमारा नुकसान हो गया। एनडीएमसी अब घर खाली करने का नोटिस भेज रही है।”
राजेश बताते हैं कि यह कॉलोनी मौजूदा सफाई कर्मचारियों को आवंटित होती है। जिनके परिवार वाले अभी नौकरी में हैं वे अभी यहां रह रहे हैं, बाकी लोगों को घर खाली करना पड़ेगा।
उनके मुताबिक यहां करीब 30-35 परिवार ऐसे हैं जिनको एनडीएमसी की तरफ से घर खाली करने का नोटिस आ चुका है। वे खुद यहां कब तक रह पाएंगे उन्हें नहीं पता क्योंकि कुछ महीने पहले ही वे रिटायर हुए हैं, केवल इसलिए अभी तक घर खाली नहीं किया था। शायद अब करना पड़ जाए।
इन्हीं रिटायर कर्मचारियों मे एक हैं नानकचंद। वे ज्यादा कुछ बोलने से मना कर देते हैं लेकिन जब उनसे घर खाली करने के संबंध में मिले नोटिस के बारे में पूछा जाता है तो वे हां में जवाब देते हैं। वे बताते हैं कि उनका बेटा चूंकि नौकरी पा गया है इसलिये वे फिलहाल बच गए हैं। वे कहते हैं, “ ठेकेदारी की व्यवस्था है, आगे देखिये कब तक नौकरी है और कब तक घर।”
पार्क में अधिकतर लोग जिन कुर्सियों पर बैठे थे, सभी अरविंद केजरीवाल द्वारा बांटी गई प्लास्टिक की कुर्सियां थीं। “ये कुर्सियां केजरीवाल ने दी हैं”, यह कहते हुए चीमा महाराज चुटकी लेते हैं, “लेकिन मलाई तो वही खा रहा है।”
दिल्ली की जिस बस्ती ने केजरीवाल को अपना चुनाव चिह्न दिया और सिर आंखें पर बैठाया, वहां के लोगों में बीते पांच साल में उनकी सरकार से नाराजगी बढ़ी है। 2015 में भी वाल्मीकि सदन के लोग आम आमी पार्टी से असंतुष्ट ही थे लेकिन तब उन्होंने केजरीवाल को इस उम्मीद में रियायत दे दी थी कि शायद अगले पांच साल में उनकी जिंदगी में कुछ बदलाव आए।
अबकी अधिकतर लोगों का मानना है कि मुख्यमंत्री का क्षेत्र होने के नाते उन लोगों को कोई विषेश लाभ नहीं मिला है। केजरीवाल ने जो भी विकास किया है वो सब बाहरी दिल्ली में है, दिल्ली के भीतर नहीं।
केजरीवाल पहली बार भी नई दिल्ली विधानसभा से विधायक बने थे जब उन्होंने उस समय की दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को हराया था। उसके बाद से केजरीवाल लगातार यहां से सदन में पहुंचते रहे हैं। इस बार उनका मुकाबला भाजपा के सुनील यादव से है। यादव केजरीवाल के मुकाबले कम पहचाना चेहरा हैं। बीजेपी यहां पर बाहरी बनाम घरेलू प्रत्याशी को मुद्दा बना रही है। बीजेपी के कार्यकर्ता जनता के बीच जाते हुए हर जगह इस बात को दोहरा रहे हैं कि केजरीवाल बाहरी हैं जबकि सुनील यादव इसी क्षेत्र के निवासी हैं क्योंकि यहीं उनका जन्म हुआ है। बाहरी बनाम घरेलू की इस जंग में केजरीवाल का परंपरागत मतदाता अपनी आस्था खो रहा है।
‘परिवर्तन’ के गढ़ को भूल गए केजरीवाल
केजरीवाल ने चुनावी जीवन की शुरुआत अगर वाल्मीकि बस्ती से की, तो नौकरी छोड़ने के बाद अपने एनजीओ ‘परिवर्तन’ के माध्यम से सामाजिक जीवन की शुरुआत पूर्वी दिल्ली की सुंदरनगरी से की थी, जहां वे राशन कार्ड और जन वितरण प्रणाली आदि को लेकर जन सुनवाइयां रखवाते थे। यही वह इलाका था जहां सूचना के अधिकार का सफल प्रयोग कर के केजरीवाल मैग्सायसाय पुरस्कार के लायक बने।
मीडियाविजिल ने सुंदरनगरी का दौरा यह जानने के लिए किया कि सात आठ साल पहले किए उनके सामाजिक काम और पांच साल की उनकी सरकार का यहां के लोगों पर क्या असर पड़ा है। लोग अब भी नहीं भूले हैं कि केजरीवाल कैसे यहां आम आदमी की रोजमर्रा की समस्याओं, राशन, बिजली और स्वास्थ्य आदि संकटों को सुलझाने के लिये सूचना के अधिकार का प्रयोग करते थे।
केजरीवाल के शुरुआती दिनों के याद करते हुए स्थानीय निवासी विजेंद्र कहते हैं, “जब वह नेता नहीं हुआ था तब तक ठीक था, लेकिन उसके बाद से वह कुर्सी के लिये लगातार नीचे गिरता चला गया। अगर उसको नेता ही बनना था तो आकर चुनाव में खड़ा होता? ये क्या बात हुई कि पहले ईमानदारी का ढोंग किया…?”
विजेंद्र लगभग गाली देते हुए कहते हैं, “जाकर पूछिये केजरीवाल से कि जब से मुख्यमंत्री बना है, कितनी बार यहां का हाल जानने आया है।”
सुंदर नगरी थाने के बगल में चाय की दुकान पर बैठे इकबाल खान बताते हैं कि केजरीवाल ने पहली बार इसी थाने के सामने धरना दिया था। वे भी विजेंद्र की बात को दुहराते हैं कि केजरीवाल जब से मुख्यमंत्री बने हैं, उसके बाद सब भूल गए हैं।
स्थानीय निवासी हाफिज़ अनवर खान मौजूदा माहौल से नाराज़ हैं। वे कहते हैं मुसलमानों के लिये ये वक्त आसान नहीं है। “सियासत ने हमको कहीं का नहीं छोड़ा। कांग्रेस हमको पचास साल तक धोखा देती रही और आज जो सत्ता में हैं उनके बारे में तो कुछ भी कहना अपनी जुबान को गंदा करने जैसा है। लेकिन उनका शुक्रिया कि उन्होंने हमको अपनी हिफाज़त के लिए सड़क पर निकलना सिखा दिया।”
सीमापुरी से आम आदमी पार्टी ने निवर्तमान विधायक राजेन्द्र पाल गौतम को उम्मीदवार घोषित किया है, बीजेपी ने यह सीट अपनी सहयोगी लोजपा के लिये छोड़ी है। यहां से लोजपा के प्रत्याशी संतलाल हैं।
सीमापुरी मिश्रित आबादी वाला क्षेत्र है जहां हिंदू और मुसलमान लगभग बराबर की संख्या में हैं। नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) को लेकर चल रहे तमाम धरनों का प्रभाव यहां देखा जा सकता है। देर से सही, लेकिन सीएए विरोधी आंदोलन पर केजरीवाल के सतर्क बयान और उनके सिपाहसालार मनीष सिसोदिया के बेशर्त समर्थन ने यहां के हिंदू समुदाय को नाराज़ कर दिया है जो उनका वोटर था।
यहां के हिंदुओं का मानना है कि केजरीवाल पूरी तरह से मुसलमानों का पक्ष ले रहे हैं। हम चाय की दुकान चलाने वाले गुप्ता जी के पास पहुंचे तो वे मोबाइल पर केजरीवाल का कोई भाषण सुन रहे थे। वे कहते हैं, “उसको हिंदुओं का वोट तो चाहिये ही नहीं। उसको लगता है मुसलमानों के वोट से सरकार बन जाएगी। तो बना ले! देखते हैं कि कैसे सरकार बनती है!”
दूसरे समुदाय में भी केजरीवाल के प्रति कुछ खास उत्साह नहीं दिखता। एक तरह से लगता है कि आम आदमी पार्टी को इस चुनाव में वोट देना मुसलमानों की मजबूरी है। किसे वोट देंगे, इस पर इदरीस अहमद कहते हैं , “केजरीवाल को, इसके अलावा कोई है भी नहीं जिसको वोट दिया जा सकता है।”
केजरीवाल ने काम क्या कराया? इसके जवाब में वे कहते हैं, “काम-वाम छोडिए, ऐसे माहौल में कोई कितना भी काम करा ले, वोट तो हिंदू मुसलमान करने से ही मिलेगा।”
केजरीवाल की सामाजिक राजनीति में केंद्रीय स्थान रखने वाले सीमापुरी के लोगों को आज भी संतोष कोली की याद है, जो 2013 में एक हादसे में मारी गयी थीं। कोली परिवर्तन के शुरुआती सक्रिय सदस्यों में सबसे लोकप्रिय रहीं जिन्हें 2015 के विधानसभा चुनाव में विधायकी के लिए खड़ा होना था लेकिन सड़क हादसे में उनकी मौत ने इलाके की सूरत ही बदल डाली।
कोली की मौत के पांच साल बाद जिस तरीके से उनकी मां ने भाजपा नेता मनोज तिवारी और कपिल मिश्रा के साथ प्रेस कॉन्फ्रेंस कर के इसे “हत्या” करार दिया और उसका दोष केजरीवाल के सिर मढ़ा, इस घटनाक्रम में केजरीवाल के आधार को यहां काफी कमज़ोर किया है।
फिलहाल कोली की मौत की जांच सीबीआइ के पास है। एससी कमीशन ने संतोष की मां कलावती की सिफारिश पर इस मामले की जांच सीबीआइ को सितंबर 2018 में सौंपी थी।
अमन कुमार मीडियाविजिल के सीनियर रिपोर्टर हैं। पिछला लोकसभा चुनाव और उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव कवर कर चुके हैं। बुंदेलखंड के जानकार हैं।