अरविन्द केजरीवाल, अनुच्‍छेद 370 और अंधी गली



वह आए, उन्होंने देखा और वह शरणागत हो गए
He came, he saw and he concurred

-नब्‍बे के दशक की शुरूआत में प्रकाशित आरके लक्ष्मण के एक कार्टून का कैप्शन/शीर्षक


अनुच्‍छेद 370 पर आम आदमी पार्टी  के रूख ने तमाम लोगों को भ्रमित और हताश किया है।

संगठन के अपने कारिन्दों/कार्यकर्ताओं को देखें तो उन्हें लगता है कि इस कदम से दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने की उसकी केन्द्रीय मांग को कमजोर किया है। उनका यह भी मानना है कि इसके चलते पार्टी के विरोधियों के हौसले भी बुलन्द होंगे क्योंकि उसने खुद जम्मू-कश्मीर के राज्य होने के अधिकार को खारिज किए जाने की हिमायत की है।

पार्टी के अपने सहमना तमाम लोग, जिन्हें ‘आप’ के प्रयोग से बहुत उम्मीदें थीं, कार्यकर्ता/विचारक- जो उसके सहभागितावाले रूख से उत्साहित थे- वे भी अपने को ठगा महसूस कर रहे हैं तथा बेचैन हैं। यह अलग मसला है कि इस मामले में कई ने अपनी असहमति को उजागर नहीं किया है।

मुमकिन है कि यह उनकी बढ़ती थकान का परिचायक हो या समूची सियासत से ही निराशा की बात हो, उन्होंने अपनी बात को अधिकतर निजी दायरों में ही सीमित रखा है।

एक पुराना दोस्त, जिसके साथ इस कलमजीवी ने वाम आन्दोलन में सक्रियता के दौरान शुरूआती डग भरे थे और जिसने बाद में पटरी बदली और फिर ‘मैं भी अण्णा’ ब्रिगेड से जुड़ गया- उसने बेचैन होकर फोन किया: ‘वह ऐसा कैसे कर सकता है? क्या वह नहीं समझता कि ऐसा कदम संवैधानिक शासन के लिए तथा भारत में संघीय आधार पर सत्ता के बंटवारे के लिए चुनौती है’ और किस तरह यह कदम ‘मुल्क में बहुसंख्यकवादी सियासत को नयी मजबूती प्रदान करेगा।’ यह अलग बात है कि उसने अपने गुस्से को वहीं जज्ब किया और उसे सार्वजनिक करने से किनारा किया।

हाल के दिनों में, हम लोग गौर कर रहे हैं कि यह मौन टूट रहा है- प्रस्तुत निर्णय को लेकर आम आदमी पार्टी के समर्थकों/सहमना लोगों के बीच जो खामोशी व्याप्त थी, वह अब पिघल रही है और असहमति की, या यूं कहें कि ‘बेचैन’ आवाज़ें उठ रही हैं।

मध्य प्रदेश में नर्मदा आन्दोलन से लम्बे समय से जुड़ी नेत्री- जो आम आदमी पार्टी से शुरूआत से ही जुड़ी रही हैं- उन्होंने ‘आप’ के इस निर्णय पर अपना एतराज दर्ज किया और पार्टी के अग्रणी मंचों पर इसे उठाने की बात कही है। इसके बाद ख़बर आयी है कि पार्टी के एक ‘शुभचिंतक, और जो इस अंतराल में जबसे पार्टी बनी है, उसकी हिमायत में रहते आए हैं’ उन्होंने भी अपनी बात को सार्वजनिक किया है क्योंकि वह ‘इस समूचे घटनाक्रम से विचलित है’ और उन्होंने जनाब अरविन्द केजरीवाल को एक खुला ख़त लिखा है।

“… धारा 370 के इस तरह इकतरफा, प्रच्छन्न तरीके से और इसलिए कायराना ढंग के खारिज किए जाने से मुल्क में अभूतपूर्व स्थिति बनी है, समूचे कश्मीर के इलाके में लाकडाउन की स्थिति बनी है, जहां फिलवक्त़ पचास हजार से एक लाख से अधिक सैन्यबल तैनात हैं, विभिन्न राजनीतिक पार्टियों से जुडें चार हजार से अधिक नेताओं और कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया गया है और मीडिया पर पूरी तरह पाबन्दी लगा दी गयी है।” (मूल अंग्रेजी से अनूदित)

‘खुला ख़त’ दरअसल संमिश्र भावनाओं से भरा है।

इसमें चिन्ता, सरोकार, बेचैनी भी टपकती है; साथ ही साथ उसमें कुछ प्रश्न भी पूछे गए हैं, चन्द सुझाव एवं सलाह भी पेश किए गए हैं। मुल्क के मौजूदा हालात पर कुछ दुख भी प्रकट किया गया है।

ख़त में ऐसे स्थान हैं जहां पत्र- धारा 370 पर पार्टी के कदम के रचयिता- अर्थात अरविन्द केजरीवाल- को उनके आदर्शों- ‘आप के कहे मुताबिक गांधी आप का ध्रुवतारा (lodestar)  थे’- की याद दिलाता है और उन्हें यह पूछता है कि वह सोचें कि अगर वह (अर्थात गांधी) होते तो उसी किस्म की स्थिति में वह क्या करते ‘जब वह देखते कि राज्य की हथियारबन्द ताकत के बलबूते तमाम नागरिक आज़ादियों को समाप्त किया जा रहा है, हजारों लोगों को सलाखों के पीछे भेजा जा रहा है? क्या वह ऐसे कदम का स्वागत करते?’ कई स्थानों पर पत्रलेखक गोया आम जनता को केजरीवाल का रूख बताते दिखते हैं:

…आप का राष्‍ट्रवाद गांधी से अलग है और आप सरकार की हिमायत करने के लिए मजबूर हुए, क्या आप ने इस जरूरत को महसूस नहीं किया, कमसे कम कुछ शब्दों में कि आप उस अभूतपूर्व हिंसा का उल्लेख करते और जनतंत्र की इस हत्या की कायराना कार्रवाई का उल्लेख करते? मैं जानता हूं कि आप जानते हैं कि मैं इस कदम को क्यों कायराना कह रहा हूं.

कहीं-कहीं ख़त में आश्चर्य भी टपकता कि पत्र लेखक लिखता है कि जहां राज ठाकरे जैसा व्यक्ति ‘इस कथित राष्‍ट्रवादी चाल के पीछे के मर्म को समझ पाया’ वहां केजरीवाल खुद असफल हुए और उन्होंने यह जरूरत भी महसूस नहीं की कि ‘सरकार को दिए अपने समर्थन पर कुछ किन्तु परन्तु भी लगा दें।’ इसके बाद केजरीवाल के इस रूपांतरण को लेकर- जहां वह भाजपा के एक विवादास्पद कदम को खुल्लमखुल्ला समर्थन देते दिखते हैं- को सम्बोधित एक प्रश्न उछलता है:

क्या यह इसी वजह से किया जा रहा है कि अब चूंकि दिल्ली चुनाव करीब हैं इसलिए आप इस न्यूनतम मसले पर भी खामोश रहना चाहते हैं? अगर ऐसी बात है तो बहुत दुखद स्थिति है।

गौरतलब है कि पत्रलेखक विपक्षी पार्टियों के इस कदम की तारीफ भी करता है, जिन्होंने एकत्रित होकर ‘कमसे कम न्यूनतम आवाज़ बुलन्द की है कि कश्मीर के सभी नेताओं और कार्यकर्ताओं को रिहा किया जाए’, और पत्रलेखक इस राय का भी इजहार करता है कि जब सिद्धांतों का मसला उठे तब ‘किसी सरकार में बने रहने का कोई औचित्य नहीं रहता है।’

अपने खुले ख़त के आखिर में पत्रलेखक केजरीवाल को यह सलाह भी देते हैं कि उन्हें अब अपनी राजनीति विकसित करनी चाहिए (वह यह भी बताते हैं कि वह ‘बावले/दीवाने वाम की तरह’ इसे न करें) और यह भी स्पष्ट करते हैं कि राजनीति/सियासत क्या होती है और किस तरह वह ‘विशिष्ट मुददों पर संघर्ष करना नहीं होता बल्कि उसका मतलब होता है:

“… अपने दोस्तों के दायरे को बढ़ाते जाना और दुश्मन को चिन्हित करना, इस बात के प्रति जागरूक रहना कि जिस दायरे में आप काम कर रहे हैं वह पहले से ही निहित स्वार्थी तत्वों से भरा है और महज ठीक से खाना पहुंचाना या सस्ती तालीम उपलब्ध कराना भी एक लम्बा संघर्ष होता है। आप अपने बल को एकत्रित करते हैं और दुश्मन को अलग-थलग करते हैं…।”

किसी ऐसे व्यक्ति से जो ‘आम आदमी पार्टी’ का समर्थक रहा है और जिसने चुनावों में उसे मदद भी की है, द्वारा लिखे इस खुले ख़त का स्वागत किया जाना चाहिए- न केवल इसलिए कि लेखक ने अपनी चिन्ताओं को सार्वजनिक किया है बल्कि एक संवेदनशील मसले पर स्टैण्ड लिया है जिसे लेकर शेष मुल्क में उन्माद की स्थिति अभी कम नहीं हुई है।

निश्चित ही इसका मतलब यह कत्तई नहीं कि ‘आप’ अपने आप को जिस स्थिति में पा रहा है -जहां वह एक ऐसे कदम की हिमायत कर राह है जिसे कई लेखकों ने संवैधानिक बग़ावत के तौर पर सम्बोधित किया है उसके बारे में लेखक के विश्लेषण से मेरी असहमतियां नहीं हैं।

पत्रा का स्वर देख कर ही लगता है कि लेखक को उम्मीद है कि उसकी इन बातों पर थोड़ी बहुत चर्चा होगी, कम से कम आधिकारिक या अनआफिशियल स्तर पर कोई प्रतिक्रिया मिलेगी।

एक बाहरी व्यक्ति होने के नाते हम उसकी इस छोटी अपेक्षा के लिए बस शुभकामनाएं ही दे सकते हैं।

प्रस्तुत कलमजीवी को उसकी इस अपेक्षा पूरी होने को लेकर संदेह है क्योंकि इसके बारे में पहले के अनुभव कत्तई उत्साहवर्द्धक नहीं रहे हैं। मिसाल के तौर पर हम ‘आप’ की संस्थापक सदस्य रही सुश्री मधु भादुरी के अनुभव पर गौर करें, जो राजनयिक/डिप्लोमेट रह चुकी हैं- जब उन्हें ‘आप’ की एक बैठक में चुप करा दिया गया जब उन्होंने दिल्ली के खिड़की एक्स्टेन्शन इलाके में कथित तौर पर आप समर्थकों/कार्यकर्ताओं द्वारा अश्वेत महिलाओं को निशाना बनाये जाने का मुददा उठाना चाहा था।

यह बात भी अब इतिहास हो चुकी है कि किस तरह प्रशांत भूषण और योगेन्द्र यादव जैसे लोगों को- जो ‘आप’ के संस्थापक सदस्यों में थे- उन्हें भी न्यूनतम चर्चा के बगैर पार्टी से बाहर कर दिया गया।

विश्लेषकों ने यह भी नोट किया है कि किस तरह अरविन्द केजरीवाल द्वारा पार्टी पर ‘पूरा नियंत्रण कायम कर लिया गया’ और किस तरह ‘‘उन संस्थापक सदस्यों को- जिन्होंने एकतरफा निर्णय लेने की केजरीवाल की नीति का विरोध किया, दागी प्रत्याशियों को टिकट आवंटित करने का विरोध किया और पार्टी के अन्दर विकसित पर्सनालिटी कल्ट पर सवाल उठाए- उन्हें पार्टी से निकाल दिया गया। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि पार्टी ने उच्च नैतिकता और सार्वजनिक जीवन में पारदर्शिता की बातें नकली तौर पर उठायी थीं ताकि लोगों में आकर्षण पैदा हो और चुनावी जीत मिले।’’

अगर हम ‘खुले ख़त’ की तरफ फिर लौटें तो क्या यह कहना उचित होगा कि धारा 370 पर केजरीवाल द्वारा भाजपा के समर्थन के पीछे राष्‍ट्रवाद की उनकी समझदारी का प्रतिबिम्बन दिखता है- जैसा कि पत्रलेखक सूचित करता दिखता है?

निश्चित ही जहां हमें इस समझदारी को और गहराई में जाकर विश्लेषित करना पड़ेगा, वहीं यह भी सही है कि किसी खास निर्णय पर फोकस करके कोई राय बनाने की कोशिश जो समग्रता के बजाय अंश पर जोर देती दिखती है- उससे सही निष्कर्ष मिल सकेंगे इस पर संदेह है।

हमें चाहिए कि हम जनाब अरविन्द केजरीवाल के पहले के चंद विवादास्पद वक्तव्यों/ रूखों को भी देखें, कदमों पर भी गौर करें ताकि कुछ मुकम्मल राय बनायी जा सके।

जैसे अगर ‘राष्‍ट्रवाद की अलग समझदारी- बकौल पत्रलेखक- केजरीवाल द्वारा धारा 370 की समाप्ति के प्रति समर्थन का कारण है तो फिर लोकसभा चुनावों के कुछ वक्त़ पहले के उनके इस दावे को किस तरह विश्लेषित करेंगे जिन्हें ‘ध्रुवीकरण’ करनेवाला कहा गया था। हम याद कर सकते हैं कि लोकसभा चुनावों के ऐन पहले, जब कांग्रेस के साथ गठबंधन बनने की तमाम उम्मीदें समाप्त हुईं, तब केजरीवाल ने एक प्रेस कॉन्‍फ्रेंस में दावा किया था कि ‘हमारे सर्वेक्षण के मुताबिक, कोई भी हिन्दू कांग्रेस को वोट नहीं देगा। मुसलमान शुरूआत में कुछ भ्रमित थे, मगर अब वे हमें वोट करेंगे।’’

इस सर्वेक्षण का कोई विवरण कभी प्रस्तुत नहीं किया गया। पीछे मुड़ कर देखें तो उनका यह दावा आम आदमी पार्टी के नेतृत्‍व में इस अहसास का बढ़ते जाना था कि उनके पैरों के तले से जमीन खिसक रही है और चुनावी नतीजों ने यही बात प्रमाणित कर दी।

लोकसभा चुनावों में ‘आप’ का बेहद ख़राब प्रदर्शन इन केवल इस बात में प्रतिबिम्बित हुआ कि उसके सातों प्रत्याशी हार गए बल्कि पांच प्रत्याशियों की तो बाकायदा जमानत जब्त हुई। आम आदमी पार्टी के लिए जख्म़ पर नमक छिड़कने जैसा मामला यह भी था कि पार्टी कांग्रेस से भी पिछड़ गयी। वर्ष 2015 के चुनावों में जहां उसे मिला वोट प्रतिशत 54 फीसदी था और 70 में से 67 सीटें उसे मिली थी, वह 2019 तक आते आते 18 फीसदी तक सिमट गया।

अतीशी मार्लेना- जो संसदीय चुनावों में पार्टी का एक तरह का प्रमुख चेहरा थीं- जिनके लिए उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने काफी मेहनत भी की, वह तीसरे नम्बर पर पहुंच गयीं, जहां कांग्रेस के अरविन्द सिंह लवली से भी वह पिछड़ गयीं। याद कर सकते हैं कि अतीशी- जो मार्क्सवादी माता-पिता की सन्तान रही हैं, जिन्होंने उसका नाम अलग ढंग से रखा था- उसे चुनावों के पहले ‘पंजाबी हिन्दू’ के तौर पर पेश किया गया ताकि केसरिया विपक्ष के इस कथित प्रचार को बोथरा किया जा सके कि वह ईसाई है, लेकिन उसकी यह अलग किस्म की प्रस्तुति भी उनकी मदद नहीं कर सकी।

क्या इसे हम ‘आप’ की कतारों में बढ़ती बदहवासी के तौर पर नहीं देख सकते हैं कि उन्हें अतीशी के इस ‘मेकओवर’ की कवायद करनी पड़ी , भले ही इस हरकत से ‘वैकल्पिक राजनीति’ के वाहक होने के उनके दावे कमजोर पड़ रहे थे।

चुनावों के बाद विश्लेषकों ने इस बात को भी नोट किया है कि किस तरह केजरीवाल की अपनी ‘हिन्दू’ पहचान को मजबूत करने की कोशिश चल रही है।

4 जून को, चुनावी नतीजों के बारह दिन बाद, केजरीवाल ने एक चित्र ट्वीट किया ‘‘स्वामीनारायण भगवान का अभिषेक” और पार्टी के आधिकारिक टिवटर हैण्डल से जारी चार टिवट उन्होंने फिर रीट्वीट किए।

एक दिन पहले, 4 जुलाई को, केजरीवाल ने ईद का बधाई सन्देश बेहद सरल तरीके से दिया था, ‘‘आप सभी को ईद मुबारक’’, साथ में कोई चित्र नहीं था।

महिलाओं के मुफ्त बस यात्रा के उनके ऐलान को भी देख सकते हैं, जिसे स्वतंत्रता दिवस पर – जो रक्षाबंधन का भी दिन था- किया गया और उसपर अमल भाई दूज से शुरू होगा। नोट में यह भी जोड़ा गया था:

केजरीवाल ने कठुआ सामूहिक बलात्कार एवं हत्या मामले में अदालती फैसले का स्वागत किया था, मगर पहलू खान मामले में जबकि आरोपी बेदाग बरी हुए, उनकी तरफ से किसी प्रतिकिया का न आना सभी ने नोट किया। पहलू खान मामले में उन्होंने ट्वीट तक नहीं किया, इसका जिम्मा उन्होंने अपने सहयोगी मनीष सिसोदिया को सौंप दिया था।

आर्थिक मंदी को लेकर केजरीवाल के ताज़ा बयानों ने भी लोगों को चौकाया है।

एक तरफ जहां हुकूमत के कट्टर समर्थक भी सरकार की भर्त्सना करने में संकोच नहीं कर रहे हैं, भारतीय मजदूर संघ जैसे संगठन ने भी सरकार की ‘गलत आर्थिक और श्रमिक नीतियों’ की आलोचना की है और उसने जहां ‘सरकार ने अपनाए मौजूदा आर्थिक और श्रमसुधार की योजना के रास्ते में सुधार की बात पर जोर दिया है’ या या जहां केन्द्र सरकार के अपने सलाहकार इस बात को स्वीकार कर रहे हैं कि कि अर्थव्यवस्था में मंदी है, यहां तक कि केन्द्र द्वारा नियुक्त नीति आयोग के प्रमुख कह रहे हैं कि सरकार को ‘अभूतपूर्व कदम उठाने के लिए तैयार होना होगा’ वहीं केजरीवाल इस मामले में सरकार से उम्मीद नहीं खोये हैं:

एक आम सभा में उन्होंने खुल कर कहा कि उन्हें ‘‘आर्थिक मंदी को लेकर सरकार द्वारा उठाए जा रहे कदमों पर पूरा भरोसा है; दिल्ली सरकार अपना पूरा समर्थन देगी।’ उनका यह भी कहना था कि यह ऐसी स्थिति है ‘जहां देश को एक होकर खड़ा होना है और अर्थव्यवस्था को सुधारना है।’

शायद किसी को उन्हें पूछना चाहिए था कि आखिर लोगों को और क्यों परेशानी झेलनी चाहिए – सरकार को समर्थन देकर- जबकि सरकार की अमीरपरस्त, दरबारी पूंजीपतियों की हिमायती नीतियों ने अर्थव्यवस्था को इस स्थिति में पहुंचाया है और नोटबंदी जैसे उसके कदमों ने इसमें रही सही कसर पूरी की है। उन्हें सरकार से यह भी पूछना चाहिए कि विपक्षी पार्टियों तथा जनसंगठनों द्वारा बार बार दी जा रही चेतावनियों के बावजूद सरकार न अपने कदमों पर पुनर्विचार करने के लिए तैयार है और न ही नोटबंदी जैसे विनाशकारी कदमों के लिए आत्मालोचना करने के लिए तैयार है।

साफ बात यह है कि ‘आप’ का प्रयोग जिसे ‘भारतीय राजनीतिक स्पेक्ट्रम’ में वैकल्पिक राजनीति की नयी शुरूआत के तौर पर देखा गया था’ जिससे कइयों में यह उम्मीद जगी थी कि इससे ‘भारत में जनतांत्रिक राजनीति की नयी इबारत’ लिखी जाएगी, वह अब जबरदस्त गतिरोध का शिकार हो चुका है।

यह हर कोई देख सकता है कि ‘वैकल्पिक राजनीति’ के उसके तमाम दावे आज की तारीख में उस विचार का एक विद्रूप बन कर उपस्थित है। भ्रष्टाचार के खिलाफ खड़े वह ‘महान योद्धा’- जिन्हें मीडिया ने खूब प्रोजेक्ट किया था और दिग्भ्रमित बुद्धिजीवियों के एक हिस्से ने खूब हवा दी जिन्हें कथित तौर पर (उनके हिसाब से) ‘बावले वाम’ से कोई उम्मीद नहीं थी- वह अब समर्पणवीर बनने को लालायित हैं।

जनाब केजरीवाल जिन्होंने मुख्यमंत्री की पारी शुरू करते वक्त़ केन्द्र सरकार के खिलाफ टकराव का रास्ता अख्तियार किया था और जिन्होंने कभी यह आरोप लगाया था कि उन्हें ‘समाप्त करने की कोशिशें चल रही हैं’ उन्हें अचानक केन्द्र सरकार के हर कदम में अच्छाई नज़र आने लगी है। केजरीवाल के इस रूपांतरण से वैसे भी लोग आश्चर्यचकित हैं जो थोड़े बहुत तटस्थ रहे हैं। एक मशहूर फैक्ट चेकर ने केजरीवाल पर अपने हालिया ट्विटर पोस्ट का शीर्षक दिया था ‘चौकीदार केजरीवाल’ और केन्द्र सरकार के आर्थिक कदमो ंपर भरोसा वाले केजरीवाल के बयान की लिंक साझा की थी।

वैसे जनाब केजरीवाल का यह नया रूप बरबस 90 के दशक की शुरूआत में टाईम्स आफ इंडिया में प्रकाशित एक कार्टून की याद ताज़ा करता है। मालूम हो कि यह वो वक्त़ था जब नरसिंहराव और शरद पवार के बीच सत्ता संघर्ष चल रहा था और शरद पवार का मानना था कि राव की तुलना में वह प्रधानमंत्री पद के बेहतर दावेदार हैं। यह अब इतिहास की बात हो चुकी है कि इस संघर्ष में राव का पलड़ा भारी रहा था। आरके लक्ष्मण द्वारा बनाए गए इस कार्टून का शीर्षक था ‘वह आए, उन्होंने देखा और उन्होंने समर्पण कर दिया।’

‘आप’ का मामला किस तरह आगे बढ़ेगा, क्या करवट लेगा, यह बात इतिहास के गर्भ में छिपी है, मगर जैसा कि ‘खुला ख़त’ बताता है कि उसके इस बदलते रूप ने वे तमाम लोग अपने आप को अंधी गली में पा रहे हैं, जो कभी इससे सम्मोहित थे।



सुभाष गाताडे (जन्म 1957) वामपंथी एक्टिविस्ट, लेखक और अनुवादक हैं. चार्वाक के वारिस (हिंदी, 2018), आंबेडकर आणि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (मराठी, 2016), बीसवीं सदी में आंबेडकर का सवाल (हिंदी, 2014), गोडसे की औलाद (उर्दू, 2013), गोडसेज़ चिल्ड्रेन: हिंदुत्व टेरर इन इंडिया (अंग्रेजी, 2011) और द सेफ्रन कंडीशन (अंग्रेजी, 2011) इनकी महत्वपूर्ण किताबें हैं। गाताडे, बीच-बीच में बच्चों के लिए भी लेखन कार्य करते हैं. पहाड़ से ऊँचा आदमी (हिंदी, 2010) उनकी ऐसी की एक रचना है। खुले ख़त के अंग्रेजी हिस्से का अनुवाद प्रस्तुत लेखक द्वारा किया गया है