केंद्र की मोदी सरकार द्वारा बनाया गया नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ राष्ट्रव्यापी विरोध प्रदर्शनों के दौरान छात्रों और प्रदर्शनकारियों पर सरकार और पुलिस द्वारा दमन की निंदा करते हुए देश भर के लेखक, मानवाधिकार और विभिन्न सामाजिक संगठनों ने इस आन्दोलन का समर्थन करते हुए वक्तव्य जारी किये हैं. देश के अलग-अलग लेखक संगठनों ने राज्य स्तर पर भी वक्तव्य जारी किया है. जलेस और प्रलेस (मप्र) इकाई ने भी एक प्रेस विज्ञप्ति जारी कर इस कानून को संविधान विरोधी करार दिया है और छात्रों व प्रदर्शनकारियों पर पुलिसिया बर्बरता की निंदा की है. वहीं चर्चित वामपंथी रंगकर्मी और लेखक कॉमरेड सफ़दर हाशमी की 30 वीं शहादत दिवस पर उनकी याद में कार्यक्रम आयोजित हो रहे हैं. इसी कड़ी में कल यानी 1 जनवरी 2020 को बिहार के आरा में जन संस्कृृति मंच की गीत-नाट्य इकाई युवानीति ने सफदर हाशमी की याद में ‘मेरा नहीं तेरा नहीं सब कुछ हमारा’ प्रस्तुत किया. (संपादक)
सफदर हाशमी की याद में बिहार के आरा में आयोजन
1 जनवरी 2020 को सुप्रसिद्ध रंगकर्मी सफदर हाशमी के शहादत दिवस के मौके पर जन संस्कृति मंच की गीत-नाट्य इकाई ‘युवानीति’ ने अपने बहुचर्चित नुक्कड़ नाटक ‘मेरा नहीं तेरा नहीं सबकुछ हमारा’ की वीर कुंवर सिंह मैदान के अंर्तगत स्थित स्टेडियम के गेट पर प्रस्तुति की। इसका उद्घाटन करते हुए युवा कवि और जसम, बिहार के राज्य सहसचिव कवि-कहानीकार और शिक्षक सुमन कुमार सिंह ने करते हुए कहा कि सफदर हाशमी और उनके मजदूर साथी मजदूरों के लोकतांत्रिक अधिकारों के पक्ष में ‘हल्ला बोल’ नाटक की प्रस्तुति करते हुए शहीद हुए थे।
उनकी हत्या के खिलाफ पूरे देश में रंगकर्मी और संस्कृतिकर्मी प्रतिवाद में सड़कों पर उतर पड़े थे। ‘युवानीति’ उस समय से उनके सांस्कृतिक संघर्ष और शहादत की याद में हर साल पहली जनवरी को नाटक की प्रस्तुति करती है। उनकी टीम ‘जनम’ के ‘राजा का बाजा’ और ‘औरत’ जैसे नाटकों की भी युवानीति के कलाकारों ने प्रस्तुति की है। आज जब सिर्फ मजदूर ही नहीं, बल्कि सारे नागरिकों के लोकतांत्रिक-संवैधानिक अधिकारों पर कोई एक सत्ताधारी विधायक नहीं, बल्कि पूरी सरकार ही हमला कर रही है, तब सफदर के संघर्ष की विरासत और भी प्रासंगिक हो उठी है।
‘युवानीति’ में कलाकारों की जो नई पीढ़ी सक्रिय है, उसने ‘मेरा नहीं तेरा नहीं सब कुछ हमारा’ नाटक में अभिनय और गीतों के प्रयोग की दृृष्टि से कुछ नए बदलाव किए हैं, जो दर्शकों का ध्यान आकृष्ट करते हैं। इसमें गोरख पांडेय के गीत ‘समय का पहिया चले’ और प्रेम धवन रचित ‘काबुलीवाला’ फिल्म के गीत ‘ऐ मेरे प्यारे वतन’ का उपयोग किया गया है। इस नाटक की खासियत यह है कि इसे युवानीति के कलाकारों ने सामूहिक रूप से लिखा था।
यह आदिम युग से लेकर आधुनिक लोकतांत्रिक समाज और व्यवस्था के विकास के इतिहास को प्रस्तुत करता है।किस तरह व्यक्तिगत पूंजी संचय की प्रवृृत्ति विकसित हुई। कैसे सामंतवाद का युग आया, दास प्रथा की शुरुआत हुई, कैसे पुरोहितवाद और अंधविश्वास का इस्तेमाल सत्ताधारी वर्ग ने करना शुरू किया, भारत में कैसे वर्ण-व्यवस्था का उदय हुआ, किस तरह साम्राज्यवादी और पूंजीवादी शक्तियों ने सांप्रदायिक विद्वेष फैलाया और फूट डालकर राज किया इसे नाटक बखूबी दर्शाने में कामयाब रहा। नाटक ने मौजूदा राजनीतिक पार्टियों के सांप्रदायिक धु्रवीकरण की राजनीति को भी निशाना बनाया और यह भी दर्शाया कि इन पार्टियों को जनता के बुनियादी मुद्दों से कुछ लेना-देना नहीं है।
नाटक के संवादों के साथ दर्शकों की स्वतःस्फूर्त प्रतिक्रियाएं भी सामने आ रही थीं, जिनसे यह पता चल रहा था कि उनकी अनुभूतियों को यह नाटक जुबान देने में सफल रहा। नाटक के शुरू होने से पूर्व कलाकारों ने आजादी के नारों से संबंधित जनगीत पेश किया।
नाटक का निर्देशन युवा रंगकर्मी सूर्यप्रकाश ने किया और इसमें मनीष, अतुल, आलोक, अंकित, अमन राज, अमित मेहता ने भूमिकाएं निभाई।
अंत में जन संस्कृति मंच के राज्य सचिव सुधीर सुमन ने कहा कि युवानीति के कलाकार जनता की सामूहिक चेतना की रक्षा और उसके विकास के लिए साल के पहले दिन नाटक कर रहे हैं। हम निर्मम पूंजीवाद के दौर में हैं। इस कारपोरेट पूूंजी के हित में काम करने वाली सरकार भारत की विविधता में एकता की परंपरा की हत्या कर रही है। राज्य प्रायोजित कत्लेआम, गृहयुद्ध और अराजकता की स्थितियां पैदा की जा रही है। आर्थिक मंदी के इस दौर में अवसादग्रस्त पूूंजी ने उन्मादग्रस्त राजनीति को जन्म दिया है। हमारे पुरखों ने अपने संघर्ष और शहादत के बल पर जिस नए भारत के स्वप्न को आकार दिया था, जिस संविधान की रचना की थी, वही खतरे में है। उसे बचाना जरूरी है।
उन्होंने यंग इंडिया के आह्वान के तहत भारत के संविधान की प्रस्तावना का पाठ भी किया। उन्होंने कहा कि एनआरसी, सीसीए और एनपीआर संविधान की मूल भावना और यहां के निवासियों के जनतांत्रिक और मनुष्योचित अधिकारों पर हमला है, यह सिर्फ मुस्लिमों के ही नहीं, बल्कि तमाम नागरिकों के लोकतांत्रिक-संवैधानिक अधिकारों को खत्म करेगा, जनजीवन को तबाह कर देगा। इस सरकार पर जनदबाव बनाना चाहिए कि वह इससे बाज आए। आज संवैधानिक अधिकारों का जो संघर्ष है, वह ऐतिहासिक रूप से चंद लोगों के स्वार्थ के खिलाफ बहुत बड़ी आबादी यानी मेरा के विरुद्ध हमारा का संघर्ष है।
इस मौके पर कवि आलोचक जितेंद्र कुमार, कहानीकार-लेखक रंजीत बहादुर माथुर, रंगकर्मी सरफराज, भूमिका के रंगकर्मी श्रीधर शर्मा, इप्टा के रंगकर्मी अंजनी शर्मा, कवि सुनील कुुमार चैधरी, शिक्षक शिवजी राम, रंगकर्मी अरुण प्रसाद, चित्रकार कवि राकेश दिवाकर, रंगकर्मी पूूूजा, संतोष सिंह, विजय मेहता, आजाद भारती, अन्वी राज, सीताराम रवि, दिलराज प्रीतम, मनोज मंजिल आदि भी मौजूद थे।
नागरिकता कानून के खिलाफ आन्दोलन पर जलेस / प्रलेस (मध्यप्रदेश) का वक्तव्य
केंद्र की मोदी सरकार द्वारा लाये गए नागरिकता संशोधन कानून और पूरे देश के पैमाने पर लागू किये जाने हेतु प्रस्तावित एनआरसी के खिलाफ देश भर के लोकतांत्रिक, अमनपसंद और संविधान में आस्था रखने वाले आम नागरिकों का प्रतिवाद शुरू हो गया है। उत्तर पूर्व से शुरू हुआ यह प्रतिवाद पूरे देश मे फैल चुका है। प्रतिवादों की इस पूरी श्रृंखला को विश्वविद्यालयों के छात्र-नौजवानों ने आगे बढ़कर नेतृत्व दिया है। छात्रों के ये प्रतिवाद भारत के लोकतंत्र के भविष्य के प्रति एक आश्वस्ति का एहसास कराते हैं कि भारत की जनता देश के लोकतंत्र को किसी भी कीमत पर कमजोर नहीं होने देगी। दिल्ली में जामिया मिलिया, जेएनयू, दिल्ली विवि, जाधवपुर, उत्तर प्रदेश में अलीगढ़ मुस्लिम विवि, बीएचयू, लखनऊ व इलाहाबाद विवि समेत पूरे देश के छात्र युवा आज सड़कों पर हैं।
इन प्रतिवादों की अनुगूंजों को सुनने की बजाय केंद्र सरकार इस आंदोलन को सांप्रदायिक रूप देने, भीषण दमन करने पर उतारू है। उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ मुस्लिम विवि में पुलिस द्वारा जानबूझ कर हिंसा को उत्प्रेरित किया गया। उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने पूरे प्रदेश में धारा 144 लगा कर विरोध की आवाजों को चुप कराने का रास्ता निकाला है। यह प्रदेश योगी सरकार के काल मे साम्प्रदायिक राजनीति की नई प्रयोगशाला के रूप में विकसित हो रहा है। लेकिन दुःखद यह है कि उत्तर प्रदेश में संघ-बीजेपी की राजनीति का प्रतिकार करने का राजनैतिक व नैतिक साहस किसी भी मुख्यधारा के राजनैतिक दल में नहीं बचा है। जिस तरह कुछ दलों ने संसद में अनुपस्थित रहकर नागरिकता संशोधन विधेयक को पारित करने में सहयोग किया और अब चुनावी राजनीति की मजबूरियों को देखते हुए जामिया में छात्रों के दमन का विरोध कर रहे हैं, वह जामिया में छात्रों के दमन का विरोध कर रहे हैं, वह एक अक्षम्य राजनैतिक अवसरवाद तो है ही, साथ ही बाबा साहब अम्बेडकर व डॉ. लोहिया के विचारों के साथ भी गद्दारी है। देश की जनता इस अंधेरे समय मे की गई इस विश्वासघात को कभी नहीं भूलेगी।
जामिया मिलिया इस्लामिया के छात्रों के लोकतांत्रिक प्रतिरोध का दिल्ली पुलिस द्वारा बर्बर दमन देश को गृहयुद्ध की आग में झोंकने की सोची समझी साजिश हो सकती है। यह नई बात नहीं है कि प्रतिरोध को तोड़ने के लिए शांतिपूर्ण प्रदर्शनों के बीच भाड़े के गुर्गे भेज कर तोड़ फोड़ और आगजनी करवा दी जाए ताकि आंदोलन को बदनाम किया जा सके। छात्र-नौजवानों के वेश में पुलिस वालों को उपद्रव करते तथा पुलिस बलों को मोटर साइकिल तोड़ते व बस में आगे लगाते भी देखा गया। बिना विवि प्रशासन की इजाजत पुलिस का पुस्तकालय और बाथरुम में घुसकर असहाय व निरीह छात्रों के साथ मारपीट करना, हाथ उठवा कर उनकी परेड कराना य उन्हें पुलिसिया लाठी चार्ज, आंसू गैस और पत्थरबाजी के बीच आने को मजबूर करना व बीबीसी समेत वहां मौजूद अनेक मीडियाकर्मियों के कैमरे और फोन छीन लेना तथा उनके साथ भी मारपीट करना – ऐसे भयावह दृश्य भारत के इतिहास में पहले कभी देखे नहीं गए। जाहिर है, पुलिस सच्चाई को सामने आने देना नहीं चाहती।
इन घटनाओं का एक ही मतलब है। संघ -बीजेपी परिवार भावनाओं को उकसाने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार हो गए हैं। इस मकसद के लिए वे सरकार की हर मशीनरी का अनुचित इस्तेमाल करने के लिए भी तत्पर हैं। संघ-बीजेपी ने समझ लिया है कि कृषि, उद्योग, रोजगार और शिक्षा की तेजी से बिगड़ती सूरत को संभालना उसके बस की बात नहीं है । अब केवल हिंदुत्व ही उसे चुनावी जीत दिला सकता है। ऐसे में वह गृहयुद्ध की लपट तेज करना चाहती है, ताकि धर्म के नाम पर वोटों का ध्रुवीकरण किया जा सके। अन्यथा इस समय देश और धर्म के आधार पर भेदभाव करने वाला नागरिकता संशोधन विधेयक लाने की और असम में बुरी तरह फेल हो चुके नागरिक रजिस्टर को देश भर में फैलाने की घोषणा की कोई जरूरत न थी।
यह अच्छी बात है कि नौजवानों ने इस खेल को पहचान लिया है। जामिया घटना की रात से दिल्ली के पुलिस मुख्यालय समेत देश भर में हो रहे प्रदर्शनों में हिन्दू, मुसलमान, सिख, ईसाई, किसान, मजदूर, छात्र, शिक्षक व नागरिक समाज एकजुट होकर संविधान की रक्षा के लिए संघर्ष कर रहे हैं। नागरिकता संशोधन कानून को रद्द कराना तथा जामिया और अलीगढ़ सहित देश भर में हुए पुलिस दमन की जांच कराना उनकी प्रमुख मांग है। ये दोनों मांगे संविधान और लोकतंत्र की रक्षा के लिए अनिवार्य हैं।
हम लेखक, बुद्धिजीवी, संस्कृतिकर्मी व लेखक संगठनों के सदस्य इन मांगों का समर्थन करते हैं तथा 19 दिसम्बर को होने वाले राष्ट्रीय प्रतिवाद के साथ अपनी एकजुटता व्यक्त करते हैं। हम देश के सभी नागरिकों से इन आंदोलनों में शान्तिपूर्ण ढंग से शामिल होने का आह्वान करते हैं।
विज्ञप्तियां: जसम बिहार / अध्यक्ष प्रलेस, जलेस म.प्र. द्वारा जारी