इंडियन एक्सप्रेस पत्रकारिता के साथ प्रचारक का काम भी बखूबी कर ले रहा है

संजय कुमार सिंह संजय कुमार सिंह
मीडिया Published On :


 

राहुल गांधी से संबंधित फैसले में कोर्ट की टिप्पणी को प्रचारित करने का उद्देश्य समझिये 

 

आज के अखबारों में प्रस्तुति के लिहाज से देखने लायक खबर होनी थी, राहुल गांधी को गुजरात हाई कोर्ट से राहत नहीं मिली। हिन्दुस्तान टाइम्स, द हिन्दू में यह खबर लीड है। टाइम्स ऑफ इंडिया में पहले पन्ने से पहले के अधपन्ने पर लीड है, इंडियन एक्सप्रेस में सेकेंड लीड है पर सबसे अच्छी और यथार्थ के करीब की प्रस्तुति द टेलीग्राफ की है। दूसरी खबरों की चर्चा से पहले आज इस खबर की चर्चा कर लें क्योंकि इसका संबंध मोदी सरकार के सबसे सक्षम, संभावित और सर्वविदित विरोधी से है। लोकतंत्र के प्रति इस सरकार का रवैया चाहे जैसा हो, अपने इस विरोधी के प्रति व्यवहार और सोच को छिपाने या ढंकने की कोई कोशिश कभी नहीं हुई। ना इससे संबंधित आरोपों का कोई औपचारिक खंडन किया गया। यही नहीं, राहुल गांधी के विरोध के लिए ना सिर्फ वंशवाद को मुद्दा बनाया गया बल्कि नरेन्द्र मोदी यह सवाल भी उठा चुके हैं कि राहुल ‘गांधी’ क्यों हैं, ‘नेहरू’ क्यों नहीं? मैं नहीं जानता कि यह सवाल या ऐसा सवाल एंटायर पॉलिटिकल साइंस के अनुसंधान के अलावा और क्या हो सकता है पर अभी वह मुद्दा नहीं है। राहुल गांधी को बदनाम और राजनीतिक रूप से कमजोर करने का जो कारण मैं समझता हूं उस लिहाज से आज इस खबर का महत्व है और द टेलीग्राफ ने इसे इसी अंदाज में प्रस्तुत किया है। 

हिन्दी के अपने पाठकों के लिए मैं शीर्षक का अनुवाद कर देता हूं – अगर देश में आज चुनाव हों तो – यह नागरिक नहीं लड़ सकता है ….  …. यह लड़ सकता है। इसके साथ की राहुल गांधी की तस्वीर का कैप्शन है, अयोग्य ठहराये गए लोकसभा के सांसद, राहुल गांधी 30 जून को मणिपुर के एक शिविर में। मोदी उपनाम वाले मामले में उनकी सजा पर स्टे की राहुल की अपील पर  शुक्रवार को गुजरात हाईकोर्ट ने कहा, राजनीति में शुद्धता होना अब समय की जरूरत है। खबर में बताया गया है कि कांग्रेस पार्टी ने जज के इस संदर्भ को भी रेखांकित किया है कि उनपर 10 आपराधिक मामले लंबित हैं। कांग्रेस ने पूछा है कि अवमानना मामले का इन मामलों से क्या संबंध हो सकता है। इनमें से ज्यादातर भाजपा समर्थकों ने आरएसएस, वीडी सावरकर और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की आलोचना के लिए उनके खिलाफ दाखिल किये हैं। 

 

अखबार ने लिखा नहीं है पर आप जानते हैं कि भाजपा के लोग इमरजेंसी की आलोचना करने का कोई मौका नहीं चूकते हैं और इमरजेंसी की बुराइयों में एक बुराई यह भी थी कि अभिव्यक्ति की आजादी कथित रूप से खत्म हो गई थी। उस समय की प्रधानमंत्री की सार्वजनक आलोचना नहीं हो सकती थी। इमरजेंसी उस समय की जरूरत के अनुसार घोषित थी और बाद में वापस भी ली गई तथा इमरजेंसी के दौरान किसी विपक्षी नेता के खिलाफ सरकार की ओर से या सरकारी पार्टी के समर्थकों की ओर से ऐसे मुकदमे नहीं दर्ज कराये गए और तब ऐसा भी नहीं था कि ज्यादातर फैसले सरकार के पक्ष में हुए। इसकी बजाय शुरुआत तो इंदिरा गांधी के खिलाफ फैसले से ही हुई थी। बाद में हुए चुनाव में इंदिरा गांधी और उनकी पार्टी हार भी गईं। यह अलग बात है कि तब जो सरकार बनी वह पांच साल भी नहीं चल पाई थी। उस समय के प्रधानमंत्री का स्वमूत्र सेवन मशहूर हुआ था और अब गोमूत्र महत्व के बाद मानव मूत्र स्नान चर्चा में है। हालांकि, अभी की चर्चा का विषय कुछ और है। 

आप जानते हैं, प्रधानमंत्री की डिग्री सार्वजनिक करने के आदेश को लागू करने की मांग पर अदालत ने जुर्माना लगा दिया है। सरकार के खिलाफ और भी मामलों में जुर्माना लगाया गया है। डिग्री वाला आदेश तो लागू नहीं ही किया गया है। दिलचस्प यह भी है कि दिल्ली विश्वविद्यालय के एक आयोजन में प्रधानमंत्री पिछले दिनों मुख्य अतिथि थे और यह पता नहीं चला कि आयोजन के दौरान किसी ने यह उल्लेख किया या नहीं कि प्रधानमंत्री दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र रहे हैं। इमरजेंसी की ज्यादतियों से मुक्त मीडिया में ऐसी कोई खबर मुझे नहीं दिखी। मतलब डिग्री अधिकृत तौर पर सार्वजनिक नहीं की जा रही है, मांग करने वाले पर जुर्माना लगाया जा रहा है और विश्वविद्यालय अपने पूर्व छात्र के प्रधानमंत्री होनी की खुशी जताना तो छोड़िये, चर्चा भी नहीं कर रहा है। बेशक यह अलग विश्वविद्यालयों की अलग डिग्रियों का मामला है लेकिन सार्वजनिक जीवन जीने वाले प्रधानमंत्री से संबंधित है जो इमरजेंसी और मीडिया पर नियंत्रण के भी विरोधी रहे हैं। दूसरी तरफ इमरजेंसी लगाने वाली पार्टी ने देश को आरटीआई कानून दिया है तथा प्रधानमंत्री ने चंदा और दान बटोरने के लिए जो पीएम केयर्स बनाया है उसे इसके दायरे से बाहर बताया जाता है।   

द टेलीग्राफ अखबार का दूसरा हिस्सा नरेन्द्र मोदी के बारे में है। उनके बारे में बताया गया है कि वे गीता प्रेस के आयोजन और यूक्रेन को मणिपुर के नरसंहार के आगे रख सकते हैं। तस्वीर के कैप्शन में बताया गया है कि प्रधानमंत्री ने शुक्रवार को गीता प्रेस का दौरा किया। यह उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में प्रकाशक के शताब्दी समारोह के समापन समारोह के मौके पर था। इसका चुनाव गए महीने उनके नेतृत्व वाले एक निर्णायक मंडल ने 2021 के गांधी शांति पुरस्कार विजेता के रूप में किया था। इसके साथ दो खबरें छपी हैं। इनमें एक का शीर्षक है, चर्च के साप्ताहिक ने मोदी पर सवाल उठाये। दूसरी खबर का शीर्षक है, बाधा जो प्रधानमंत्री को मालूम होनी चाहिए। इसमें बताया गया है कि मणिपुर में शांति प्रयासों के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा मध्यस्थ की कमी है। आप समझ सकते हैं कि दो महीने से ज्यादा की हिंसा के बाद अभी यह स्थिति है तो किया क्या गया है। उसपर तुर्रा यह कि प्रधानमंत्री न तो वहां गये ना उसपर कुछ बोला और ना वहां से आये जनप्रतिनिधियों से मिलने की औपचारिकता निभाने की परवाह की।

इमरजेंसी का विरोध मीडिया और इंडियन एक्सप्रेस ने कैसे किया था वह अगर आपको याद है तो आज यह भी बता दूं कि इंडियन एक्सप्रेस बिल्कुल प्रचारक की भूमिका में लग रहा है। अखबार ने गीता प्रेस के प्रधानमंत्री के दौरे की तस्वीर टॉप पर छापी है और उसके कैप्शन का शीर्षक है, विकसित और आध्यात्मिक भारत (यह रोमन में लिखा है)। सिंगल इनवर्टेड कॉमा में है और इसका तकनीकी मतलब यह हुआ कि यह अखबार की राय नहीं है बल्कि किसी और की राय है या किसी अन्य ने कहा है जिसका नाम यहां नहीं दिया गया है। पीटीआई की इस फोटो का कैप्शन है, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और राज्यपाल आनंदीबेन पटेल गीताप्रेस, गोरखपुर में शुक्रवार को। प्रधानमंत्री ने रायपुर और बनारस में भी विकास परियोजनाएं लागू कीं। इस तस्वीर के साथ एक कॉलम में हाइलाइटेड है (अनुवाद मेरा) प्रधानमंत्री ने कहा – कांग्रेस छत्तीसगढ़ को एटीएम के रूप में देखता है (रायपुर में) करोड़ों लोगों के लिए गीता प्रेस मंदिर से कम नहीं है (गोरखपुर में) पहले की सरकारें एसी कमरों में नीतियां बनाती थीं (वाराणसी में)। 

मुझे लगता है कि यह प्रधानमंत्री का अत्यधिक प्रचार है। जब उन्हें नहीं जानते थे या उनका काम सार्वजनिक नहीं था तब तो ऐसा प्रचार सामान्य खबर की श्रेणी में आता। अब उनका यह सब कहना आत्म प्रचार है और इसे हवा देना प्रचारक का काम। खासतौर से इसलिए कि इसका कोई मतलब नहीं है। नीतियां एसी कमरे में ही बनती रही हैं और नोटबंदी भी लाल किले से नहीं हुई थी। उसके लिए भी एयरकंडीशन टीवी स्टूडियो ही चुना गया था और मुझे नहीं लगता है कि कहीं और से हुई होती तो देश पर कुछ और असर होता या प्रधानमंत्री को अपने उस निर्णय का अफसोस है। ऐसे में यह कहना कि दूसरी सरकारें या दूसरे लोग एयर कंडीशन कमरे से फैसला लेते हैं बेमतलब है। फैसलों पर बात कीजिये और इसमें गीता प्रेस को ईनाम देना, मंदिर बताना शामिल है तो यह भी कि मणिपुर में 250 से ज्यादा चर्च जल गये और उसपर मोदी जी ने अभी तक कुछ नहीं कहा है। जैसा टेलीग्राफ ने लिखा है उनके लिए यूक्रेन भी मणिपुर से पहले है। 

यही नहीं, राहुल गांधी की खबर को इंडियन एक्सप्रेस ने चार कॉलम के शीर्षक से छापा है और खबर का यह अंश शीर्षक में है, राजनीति में शुद्धता होना अब समय की जरूरत है। अदालत ने कहा है तो यह निश्चित रूप से खबर है लेकिन अखबार का काम यह देखना-बताना भी है कि राजनीति की शुद्धता का आलम क्या है। बेशक इंडियन एक्सप्रेस अन्य अखबारों के मुकाबले यह काम भी करता है पर मीडिया और टीवी स्टूडियो की गंदगी भी मुद्दा है। अखबार ने अपनी मूल खबर के साथ बताया है कि कांग्रेस सुप्रीम कोर्ट जाएगी और उसने कहा है कि घमंडी सरकार नहीं चाहती है कि सवाल उठाये जाएं। इस तरह खबर में दोनों पक्ष तो दिया गया है पर अदालत ने जो कहा है उसे हाईलाइट कर बताया गया है कि जो हुआ वह अदालत ने किया है (भाजपा ने नहीं)। इसका मतलब और इसकी जरूरत आप समझ सकते हैं।  

आज की खबरों में एक खबर यह भी है कि, डीआरडीओ के वैज्ञानिक ने पाकिस्तानी एजेंट को राज लीक किये थे और इस मामले में चार्ज शीट दायर हो गई है (हिन्दुस्तान टाइम्स)। अखबार ने पहले पन्ने पर जो छापा है उसमें नहीं बताया है कि इनका संबंध आरएसएस से रहा है। पर यह बताया है कि उन्होंने जो जानकारी दी या लीक की वह राफेल से भी संबंधित है। मुझे याद आता है कि राफेल सौदे से संबंधित तमाम जानकारी देश को गोपनीय बताकर नहीं दी गई और अब पता चल रहा है एक आरएसएस के करीबी एक वैज्ञानिक के पास थी जो वह लीक भी कर रहा था। यह देश में व्यवस्था या प्रशासन के साथ रिपोर्टिंग की भी स्थिति है। आज एक खबर का शीर्षक है, “बृजभूषण सिंह के खिलाफ मामला बढ़ाने के पर्या्त सबूत : कोर्ट”। दूसरी ओर, आप जानते हैं कि सरकार और पुलिस ने इन्हें कैसी और कितनी सुरक्षा दी है तथा यह भी कि इनके खिलाफ एक अवयस्क का आरोप स्पष्ट दबाव में वापस लिया जा चुका है।  

आज के अखबारों में बालासोर रेल दुर्घटना के लिए रेलवे सिगनलिंग के तीन कर्मचारियों को सीबीआई द्वारा गिरफ्तार किये जाने की भी खबर है। टाइम्स ऑफ इंडिया ने लिखा है कि तोड़-फोड़ का कोई सबूत नहीं है। मरम्मत के दोषपूर्ण कार्य पर फोकस किया जा रहा है। पता नहीं इस मामले में सच क्या है और पता भी चलेगा कि नहीं पर अभी तक की खबरों से इस बात की पुष्टि नहीं हुई है कि रख-रखाव का खर्च कम होने से दुर्घटना हुई है या कुछ और कारण था। सीबीआई की जांच में जो पकड़े गए हैं उनपर यात्रियों की हत्या का मुकदमा नहीं है और सबूत छिपाने का मामला है। मुझे नहीं लगता है कि इस जांच से दुर्घटना का कारण मालूम होगा और उसे दूर किये जाने या भविष्य में नहीं होना सुनिश्चित किया जा सकेगा जबकि मांग इसकी होनी चाहिए। अखबारों की खबरें इस बारे में होनी चाहिए। सीबीआई ऐसी जांच कर भी नहीं सकती है और यह काम रेल सुरक्षा आयुक्त का था। पता नहीं उनने जांच की या नहीं और नहीं की तो क्यों और की तो क्या मिला? 

आज एक और खबर के शीर्षक ने मेरा ध्यान खींचा। शीर्षक है, ईडी ने शराब नीति मामले में सिसोदिया और अन्य की 52.24 करोड़ रुपये की परिसंपत्ति अटैच की (द हिन्दू)। सिसोदिया और 52 करोड़ से मेरा माथा ठनका। खबर में अंदर लिखा है, इसमें 7.29 करोड़ रुपये की अचल संपत्ति शामिल है जो मनीष सिसोदिया और उनकी पत्नी; चैरियॉट प्रोडक्शंस मीडिया प्राइवेट लिमिटेड और उसके स्वामी, राजेश जोशी तथा कारोबारी गौतम मल्होत्रा की भूमि/फ्लैट शामिल है। गौर करने वाली बात है कि शीर्षक का 52.24 करोड़ यहां 7.29 करोड़ का हो गया (बाकी दूसरों का है) तथा इसमें कारोबारी राजेश जोशी और गौतम मल्होत्रा की संपत्ति शामिल है। मनीष सिसोदिया को भी मिला लीजिये तो तीन लोगों की 7.29 करोड़ की संपत्ति जब्त हुई मतलब इतनी ही होगी। ज्यादा होती तो उसे भी जब्त किया जाता और होगी तो छोड़ नहीं दिया गया होगा। क्योंकि घोटाला तो ज्यादा का है और तीन लोगों की संपत्ति अगर आठ करोड़ भी नहीं है तो ज्यादा नहीं है और ऐसे लोगों पर भ्रष्टाचार का मामला कितना टिकता है पर मोदी सरकार की ईमानदारी और भ्रष्टाचारियों को कसने की उनकी प्रतिबद्धता ऐसी है कि छत्तीसगढ़ सरकार कांग्रेस के लिए एटीएम है और किसी भी तरह महाराष्ट्र में सरकार बनाये रहने की कोशिश ईमानदारी के प्रति प्रतिबद्धता। इसमें एक मार्गदर्शक मंडल वाले की बलि हो चुकी है। 

 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं।


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