लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद राजनीतिक विश्लेषण का दौर जारी है। कोई इसे राष्ट्रवाद और हिन्दुत्व की जीत बता रहा है, तो कोई मोदी सरकार की कल्याणकारी नीतियों को इस विजयश्री की सबसे बड़ी वजह बता रहा है। पिछले दो महीने से पूर्वांचल के कुछ जिलों में लोगों से जानने समझने का मौका मिला कि आखिर उनके दिल में क्या था?
सबसे पहली बात जो निकलकर सामने आई वो यह कि जनता अब सांसद नहीं प्रधानमंत्री चुन रही थी। कांग्रेस या गठबंधन का उम्मीदवार बेहतर होने के बावजूद जनता उसे वोट नहीं कर रही थी, क्योंकि वह वोट राहुल गांधी-अखिलेश या मायावती को जाएगा। राहुल गांधी की बात करें तो उनकी ब्रांडिंग से पहले आरएसएस-बीजेपी ने उनकी ऐसी डी-ब्रांडिंग कर दी है, जिसे स्मार्ट फोन, सोशल मीडिया इस्तेमाल करने वालों के जेहन से निकाल पाना मुश्किल लग रहा है। अब तो आम कांग्रेसी कार्यकर्ता भी इस प्रोपेगैंडा और डी-ब्रांडिंग का शिकार हो चला है।
2014 और 2019 के चुनाव में अंतर यह था कि पिछले चुनाव में जनता चिल्ला रही थी, जबकि इस बार बहुत बड़ा वर्ग खामोश था। कुछ लोग इन खामोश मतदाताओं को मोदी-बीजेपी के खिलाफ मानने की भूल कर बैठे।
यह खामोश मतदाता आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़े वर्ग से ताल्लुक रखने वाला था जिस पर आखिरी चोट वोटिंग से ऐन पहले नोट से की गई। यह वर्गीकरण पंचायत स्तर पर किया गया जिसमें प्रशासन और राज्य सरकार की मिलीभगत थी। पंचायत स्तर पर ग्राम प्रधान के चुनाव की तरह पैसे बाटे गए, यह जिम्मेदारी प्रधान और जातीय नेताओं को दी गई।
चंदौली के गांवों में BJP के लोगों ने दलितों की उंगली पर जबरन लगायी स्याही, दी 500 की रिश्वत
चंदौली में तो पैसे बांट कर दलित मतदाताओं की उंगली पर स्याही तक लगा दी गई ताकि वे वोट ही ना कर पाएं। एक खबर मिर्जापुर से आई कि राज्य के पंचायती राज मंत्री लालगंज ब्लाक के एक अमुख गांव में एडीओ और अन्य अधिकारियों के साथ ग्राम प्रधानों की बैठक लेने वाले हैं। सही समय पर मीडिया के लोगों इसकी खबर मिली और प्रेस की मौजूदगी देखते हुए यह बैठक टाल दी गई।
पश्चिम बंगाल में वाम की कीमत पर बीजेपी का उभार विचारधारा से स्तर पर नहीं हुआ, बल्कि बीजेपी ने ममता विरोधी वाम कैडर के लिए मोटी रकम अदा की है। ये पैसे कहां से आ रहे हैं यह सवाल पूछने वाला कोई नहीं है। यहां वोट प्रतिशत के आंकड़ों को देखते ही बात साफ़ हो जाती है कि बीजेपी को आखिर किसके वोट मिले हैं।
2014 2019 Net gain/loss
TMC 39.7% 43.3% +3.6%
लेफ्ट 29.9% 07.1% -22.8%
बीजेपी 17% 40.3% +23.3%
कॉंग्रेस 09.6% 05.6% -04.0%
साल 2014 में जनता ने भ्रष्टाचार के खिलाफ वोट किया था लेकिन 2019 आते-आते जनता ने संस्थागत भ्रष्टाचार को आत्मसात कर लिया है, ऐसा मालूम होता है। क्योंकि जनता को सुनाने के लिए आरएसएस-बीजेपी के पास जो कहानी है वो यह है कि मोदी का परिवार साधारण जीवन जीता है और मोदी स्वयं एक फकीर हैं आखिर भ्रष्टाचार करेंगे भी तो किसके लिए। इस सबके बीच यह सवाल गुम हो जाता है कि इतना महंगा चुनावी अभियान चलाने के लिए बीजेपी के पास पैसे आ कहां से रहे हैं। इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए राजनीतिक चंदा, संस्थागत भ्रष्टाचार का जीता जागता सबूत है।
बहरहाल इन नतीजों ने बहुतों के हौसले पस्त कर दिए हैं, जिनके पास थोड़ा बहुत हौसला बचा है वे अगली दफे अपनी किस्मत फिर आजमा लेंगे, जब पांच साल बाद बीजेपी और भी ज्यादा धन बल के साथ मैदान में होगी और लोकतांत्रिक संस्थाएं पूरी तरह से बीजेपी-आरएसएस के कब्जे में होंगी।
विवेक पाठक दिल्ली स्थित पत्रकार हैं और आजतक डॉट कॉम से जुड़े रहे हैं