उस रोज मधुबनी स्टेशन उसी तरह चमक रहा था, जिस तरह पिछले साल जिले के स्थानीय मिथिला पेंटिंग के कलाकारों ने उसे चमका दिया था. उनकी रचनाएं स्टेशन की दीवारों पर उनके नाम के साथ नजर आ रही थीं, मगर ऐसे 60 से अधिक कलाकार गिरफ्तारी से बचने के डर से यहां-वहां छिप रहे थे. उनका दोष सिर्फ इतना था कि उन्होंने अपने काम के एवज में मजदूरी मांगी थी और जब स्टेशन प्रबंधन ने इनकार कर दिया, तो उन्होंने विरोधस्वरूप दो रोज कुछ घंटे के लिए रेलगाड़ियों का परिचालन ठप कर दिया.
वे अपनी मजदूरी इसलिए मांग रहे थे क्योंकि उन्हें पता चल गया था कि उनके काम के बदले मधुबनी रेलवे स्टेशन को स्वच्छता सर्वेक्षण में दूसरा स्थान हासिल हुआ और इसका ईनाम भी मिला. साथ ही कुछ कंपनियों ने इस पेंटिंग परियोजना को प्रायोजित भी किया था. मगर जब उन्होंने मजदूरी मांगी तो रेलवे प्रशासन ने इन कलाकारों पर मुकदमा कर दिया.
यह कहानी उस मिथिला पेंटिंग के लोक कलाकारों की है, जो हाल के दिनों में अपनी खास शैली की वजह से दुनिया भर में प्रसिद्ध हुई है. खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और कपड़ा मंत्री स्मृति इरानी इसकी सराहना करते हैं. देश में जगह-जगह पर यह पेंटिंग दीवारों और प्रतिष्ठानों पर उकेरी जा रही है. दुपट्टों और कुरतों पर इन्हें उतारा जा रहा है. मगर मधुबनी जिले में, जिसे इस पेंटिंग का गढ़ माना जाता है, इसके पारंपरिक कलाकार गिरफ्तारी के भय से छिपे फिर रहे हैं. और देश के सबसे बड़े चुनाव में इन लोक कलाकारों के साथ हो रहा यह व्यवहार कोई मुद्दा नहीं है.
इन्हीं बहसों के बीच मधुबनी शहर में हमारी मुलाकात क्राफ्टवाला के राकेश कुमार झा से हुई, जिनकी अगुवाई में सबसे पहले मिथिला पेंटिंग को दीवारों पर उकेरे जाने की शुरुआत मधुबनी स्टेशन से हुई थी. उन्होंने कहा कि यह सच है कि पहले इस काम में जुटे 200 से अधिक कलाकारों को मेहनताना देने की बात नहीं थी मगर जब पांच लाख की पुरस्कार राशि आयी और यह पता चला कि कई बड़ी कंपनियों ने स्टेशन को मिथिला पेंटिंग से सजाने के लिए रेलवे को प्रायोजित किया है तो कलाकारों को लगा कि उन्हें उनके काम का मेहनताना मिलना ही चाहिए. गड़बड़ी इस वजह से भी हुई कि रेलवे ने कुछ कलाकारों को बुलाकर पैसा दे दिया और शेष कलाकारों को छोड़ दिया. खुद राकेश कुमार झा भी रेलवे के मुकदमे की जद में हैं.
एक अन्य कलाकार सोनू निशांत जो इस मुकदमे में नामजद हैं, कहते हैं कि जब श्रमदान के जरिये स्टेशन को खूबसूरत बनाने की बात थी तो हमें कोई दिक्कत नहीं थी. मगर जब रेलवे हमारी मेहनत के बदले पैसे कमा रहा है तो हम ही क्यों नुकसान सहें.
यह कहानी सिर्फ मधुबनी स्टेशन को रंगने वाले कलाकारों की नहीं है. मिथिला पेंटिंग भले दुनिया भर में मशहूर हो रही है, मगर इसके कलाकारों की हालत आज भी अच्छी नहीं है. उस अंतर्राष्ट्रीय पहचान का लाभ यहां के स्थानीय कलाकारों को नहीं मिलता. यह बात हमें मधुबनी जिले के जितवारपुर गांव में जाकर मालूम होती है.
तीन पद्मश्री, दस से अधिक नेशनल और 60 से अधिक स्टेट अवार्ड जीतने वाले कलाकारों के इस गांव को सरकार ने भले ही कला ग्राम घोषित कर दिया, मगर यहां के कलाकार आज भी फूस की झोपड़ियों में रह रहे हैं. जितवारपुर में हमें नेशनल अवार्ड विनर कलाकार उत्तम कुमार पासवान मिले. वे कहते हैं, ‘’भले ही मिथिला पेंटिंग का खूब प्रचार हो रहा है, मगर यहां कलाकारों के पास कोई काम नहीं है’’. एक स्थानीय कलाकार कलाकृतियों की सही कीमत नहीं मिलने और बिचौलिये के हावी होने की भी बात करते हैं.
गांव के विकास कुमार झा, जो कलाकृतियों के व्यवसाय में सक्रिय हैं, बताते हैं, ‘’एक बार उनके गांव में पीटर इंग्लैंड कंपनी के लोग भी आये थे, वे चाहते थे कि उनके शर्ट पर यहां के कलाकार मिथिला पेंटिंग बनाकर उन्हें दें. बदले में वे ठीकठाक मेहनताना भी देने के लिए तैयार थे. मगर गांव के लोग उनका काम कर नहीं पाये क्योंकि यहां के कलाकारों को शर्ट पर पेंटिंग करने का अनुभव नहीं था’’.
वे कहते हैं, ‘’जिस तरह से मिथिला पेंटिंग की मांग दुनिया भर में बढ़ी है, उस हिसाब से यहां के कलाकार अपग्रेड नहीं हो पा रहे. उन्हें जिस तरह के प्रशिक्षण की जरूरत है, सरकार को उसे उपलब्ध कराना चाहिए. प्रशिक्षण के अभाव में यहां के कलाकार कैनवास पर ही पारंपरिक तरीके से पेंटिंग बनाते हैं और तरह-तरह के मेलों में स्टॉल खोलकर बैठ जाते हैं. वहां कभी उनकी पेंटिंग बिकती है, कभी नहीं बिकती. वहीं कुछ शहरी कलाकार मिथिला पेंटिंग की थोड़ी बहुत बारीकियां सीखकर इस खेल में आगे बढ़ जाते हैं’’.
जितवारपुर में इसी बात को लेकर उदासी पसरी थी. कला ग्राम घोषित होने पर उन्हें लगा था कि गांव और कलाकारों की किस्मत बदल जायेगी, मगर हुआ कुछ नहीं. पहले लोगों ने उत्साह में हर घर की दीवार पर पेंटिंग बना ली थी, ताकि यह कला ग्राम जैसा लगे. पिछले साल फरवरी में मैंने वहां जाकर यह खूबसूरत दृश्य देखा था. इस बार जब गया तो वे चित्र मिटने लगे थे, कई दीवारों पर पुताई कर ली गयी थी. ऐसा लग रहा था कि उम्मीद की एक झूठी किरण आयी थी और उदासी छोड़ कर लौट गयी है. इलाके में चुनाव का शोर था मगर इन कलाकारों के सवाल उसमें कहीं गुम हो गये थे.
मधुबनी लोकसभा क्षेत्र कभी वामपंथियों का गढ़ रहा था. एक जमाने में कामरेड भोगेंद्र झा यहां से चुनाव लड़ते और जीत कर संसद पहुंचते. फिर अपनी खास भाषण शैली के लिए मशहूर भाजपा नेता हुकुमदेव नारायण यादव ने यहां से जीतना शुरू किया. वे यहां से पांच बार चुने गये, इस बार वे चुनाव नहीं लड़ रहे और पार्टी ने उनके बेटे अशोक यादव को टिकट दिया है. दिलचस्प है कि उनके विरोध में महागठबंधन ने एक कमजोर उम्मीदवार बद्री पूर्वे को वीआइपी पार्टी से टिकट दिया है.
इस चुनाव में असली तड़का हालांकि वरिष्ठ कांग्रेसी नेता शकील अहमद लगा रहे हैं जो मैदान में निर्दलीय खड़े हैं. वे भी यहां से दो बार सांसद रह चुके हैं और उनका समर्थन दरभंगा के कद्दावर पूर्व सांसद एमएए फातमी कर रहे हैं. वे भी दरभंगा या मधुबनी से टिकट की उम्मीद लगाकर बैठे थे, मगर उनकी पार्टी राजद ने उनकी मांग अनसुनी कर दी. पहले तो वे खुद मधुबनी से मैदान में उतर गये थे, मगर बाद में उन्होंने शकील अहमद के पक्ष में नामांकन वापस ले लिया. इन दिनों मधुबनी में चुनावी चर्चा का यही मसला है कि शकील अहमद और फातमी जैसे कद्दावर नेताओं की बागी जोड़ी क्या गुल खिलायेगी.
पुष्य मित्र वरिष्ठ पत्रकार हैं और लोकसभा चुनाव में बिहार से मीडियाविजिल के लिए लिख रहे हैं, साथ में हैं संजीत भारती