पाणिनि आनंद
रेयान इंटरनेशनल स्कूल से जब प्रद्युम्न की हत्या की ख़बर आई थी तो पूरा दिल्ली और देश सकते में था. राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के एक बड़े स्कूल में इस तरह की घटना ने लोगों को, खासकर अभिभावकों को झकझोर कर रख दिया था. मीडिया ने भी इस ख़बर को हाथों हाथ लिया और मामले की गंभीरता को देखते हुए इसे काफी एयरटाइम दिया गया.
लेकिन इस हत्याकांड की कहानी ईवीएम पर हुए मतदान की गणना जैसी तेज़ी से साफ होती जा रही थी. हत्या के कुछ ही देर बाद पुलिस ने हत्यारे को पकड़ लिया और उसका इकबालिया बयान लोगों को सुना दिया गया. बस कंडक्टर अशोक अब लोगों की नज़र में एक हत्यारा था. एक नृशंस, वहशी, दरिंदा जिसकी तुलना हैवान से हो रही थी . टीवी की स्क्रीन पर एक ओर मासूम प्रद्युम्न का चेहरा था, दूसरी ओर रोती हुई मां और तीसरा ये हत्यारा.
फिर अगले कुछ दिनों तक मीडिया में प्रद्युम्न छाया रहा. हत्या के बाद अभिभावकों में भय था कि क्या उनके बच्चे स्कूल की बसों से लेकर कैम्पस की चाहरदीवारियों और कक्षाओं में सुरक्षित हैं. यह भय ही मीडिया का भात बन गया था. भात पक रहा था. प्रद्युम्न पर महाकवरेज जारी थी. तरह-तरह के क्रूर अलंकारों से अशोक का चेहरा और कहानी लोगों को बताई जा रही थी. स्कूलों में हर गरीब, मैला कुचैला कामगार, चपरासी, बस ड्राइवर, कंडक्टर, रिक्शेवाले, सब संदेह से देखे जा रहे थे.
अशोक की छवि को इतना बुरा किया जा चुका था कि वकीलों ने उसके मामले में पैरवी तक से मना कर दिया. कह दिया गया कि इसपर मुक़दमा चलाए बगैर फांसी पर चढ़ा दिया जाए. टीवी पर अशोक की जघन्यता के लंबे-लंबे एपीसोड इस गुस्से को और पुख्ता करते जा रहे थे. गांववालों ने अशोक का बहिष्कार कर दिया था. जाति समाज से बेदखल अशोक सीखचों के पीछे अबतक बंद है.
कहानी में ट्विस्ट
और फिर अचानक से नोटबंदी की पहली सालगिरह के दिन चैनलों पर प्रद्युम्न की कहानी फिर ज़िंदा हो उठी. लेकिन अब कहानी का खलनायक बदल चुका है. वो अशोक जिसे समाज अपनी नज़रों और दिल में मार चुका है, बार-बार उसको मौत के घाट उतार चुका है, अब इस हत्याकांड का आरोपी नहीं है. सीबीआई के हवाले से बताया जा रहा है कि हत्यारा दरअसल उसी स्कूल की 11वीं कक्षा में पढ़ने वाला एक 16 वर्ष का छात्र है.
अब हत्यारे की स्क्रिप्ट के शब्द बदल गए हैं. वो पॉर्नएडिक्ट है. स्कूल में पॉर्न क्लिप्स देखता है. उद्दंड है. लड़का है. बदतमीज़ है. पढ़ने में कमज़ोर है. मनोरोगी है. ऐसी कई कहानियां उसके बारे में सुनने जानने को मिल रही हैं. मीडिया के कैमरे अब एक नए हत्यारे को मौत की सज़ा सुनाने में जुट गए हैं.
लेकिन इस दौरान पुलिस से कोई नहीं पूछ रहा है कि नए हत्यारे की कहानी में कितने ही अनुत्तरित सवालों पर वो खामोश क्यों है.
पुलिस के जिन अधिकारियों ने अशोक को बयान बदलने के लिए और जबरन इकबालिया बयान के लिए बाध्य किया था, उनपर कार्रवाई की मांग कोई नहीं कर रहा है और न ही उनके खिलाफ मामले को उलझाने का आरोप लगाकर कोई मामला दर्ज किया जा रहा है.
जिस बार काउंसिल ने न्यायाधिकरण की दहलीज पर पहुंचने से पहले ही अपना फैसला सुना दिया था और अशोक की पैरवी करने से इनकार कर दिया था, उनसे अशोक का परिवार पूछ रहा है कि क्या वो अब इस लड़के की पैरवी करने से भी इनकार करेंगे और ऐसे कितने मामलों में वकील अपने फर्ज़ और पेशे से अलग होते रहेंगे.
सबसे बड़ा सवाल तो मीडिया से ही है कि लगातार, बार-बार अशोक की खाल खींचने में लगे मीडिया ने जिस तैयारी के साथ उसे अपराधी घोषित किया और उसके सामाजिक-पारिवारिक अस्तित्व को हर क्षण ध्वस्त किया, क्या उसे कम से कम एकबार अशोक की छवि के साथ ऐसा खेल खेलने की अपनी गलती के लिए माफी नहीं मांगनी चाहिए.
बुरे की परिभाषा में जिस आसानी से हम किसी भी ग़रीब और गंदे दिख रहे इंसान को फिट कर देते हैं, वो हमारी समझ के अति-दिवालियेपन के अलावा और क्या है. प्रद्युम्न के हत्यारे और हत्याकांड पर तो सीबीआई जैसी एजेंसी काम कर रही है. लेकिन जिन लोगों ने अशोक का अपराध साबित होने से पहले ही बार-बार उसकी हत्या करने की कोशिश की है, उनकी जवाबदेही क्या तय होगी या नहीं.
और एक सवाल उस समाज से भी है जो अपने घर के एक अवयस्क को अचानक से हत्यारा पाकर हतप्रभ है. हमारी शिक्षा व्यवस्था और समाज ने पिछले कुछ वर्षों में हमसे कई बच्चे छीने हैं. प्राइमरी और सेकेंड्री स्कूल से लेकर एम्स और आईआईटी तक में पढ़ने वाले बच्चों में परीक्षाओं के खौफ़ में आत्महत्याएं की हैं. कंपटीशन की तैयारी कर रहे बच्चे, एम्स में परीक्षा का प्रश्नपत्र अंग्रेज़ी में न लिख पा रहे बच्चे, 99 प्रतिशत अंक लाने की दौड़ में खुद को पिछड़ता पा रहे बच्चे, ऐसे कितने ही बच्चों ने आत्महत्याएं की हैं.
इन आत्महत्याओं के ज़िम्मेदार हम हैं. और अगर यह बात सही साबित होती है कि 16 वर्ष के इस छात्र ने परीक्षाओं को टालने के लिए प्रद्युम्न की हत्या की थी तो यह और भी बड़ी चिंता का प्रश्न है. अब आत्महत्याओं का चेहरा हत्याओं में बदलता जा रहा है. परीक्षाओं के खौफ से आत्महत्या कर रहे बच्चे अगर परीक्षाएं टालने के लिए हत्याएं करने लग जाएं तो यह किसी समाज में संवेदनहीनता का चरम और पतन की पराकाष्ठा का संकेत है.
इस आहट को सुनिए. क्योंकि इस हत्या में हम आप भी शामिल हैं.
आजतक डॉट इन से साभार