किसानों का मुद्दा कम्युनिस्ट ही क्यों उठाते हैं !

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फ़रीद ख़ान

 

फ़ेसबुक पर बहुत सारे भाजपाई मित्र शुरू से ही किसानों के मार्च पर तरह तरह के सवाल उठा रहे थे. किसी ने टोपी का हिसाब लगा कर बताया, किसी ने झंडे का. जिसने मेरे भीतर एक जिज्ञासा पैदा कर दी कि मैं ख़ुद अपनी नज़र से परखने जाऊँगा. तो इस तरह मैं विधान भवन जाने के लिए निकला.

चर्च गेट स्टेशन से बाहर निकलते ही जब एक टैक्सी वाले को विधान भवन चलने को कहा तो उसने बिना कुछ पूछे कहा कि “वो लोग आज़ाद मैदान में हैं”. मैंने हैरत से पूछा – कौन लोग ? टैक्सी वाले ने तब मुझे फिर से देखा और कहा – किसान लोग. आप वहीं जा रहे हैं न ? मैंने भी सिर हिलाया और बैठ गया. फिर मैने पूछा – आपको इतना कैसे मालूम ? तो उससे बातचीत शुरू हो गई. उसने बताया कि कल रात अचानक किसान लोग फ़ैसला लिया कि रात में वो लोग सोमैय्या मैदान से आज़ाद मैदान चले आएँगे क्योंकि दिन में बच्चे लोग का एग्जाम है. उसको डिस्टर्ब नहीं करने को था.

तो मैंने जिज्ञासा वश पूछ लिया कि आप गए थे सोमैय्या मैदान ? टैक्सी वाला – मैं रात भर उनके साथ ही था. मैंने बहुत लोगों को बोला कि बैठ जाओ (टैक्सी में). लेकिन वो लोग पैदल ही चलते रहे.

आज़ाद मैदान से कुछ पहले से ही लाल झंडे वाले दिखने लगे. कुछ पल के बाद मैं आज़ाद मैदान पहुँच गया. मैदान में घुसते ही हर तरफ़ लाल ही लाल दिखाई पड़ने लगा. मंच पर भाषण भी चल रहा था. नारे भी लग रहे थे. लेकिन किसी में भी वह उग्रता नहीं दिखाई दे रही थी जिसका आरोप भाजपा की पूनम महाजन ने नक्सली बोल कर लगाया.

मैं तब से ही सोच रहा था कि अगर मैं मान भी लूँ कि वामपंथियों ने किसानों को बरगलाया और यहाँ तक ले आए तो सहज ही यह सवाल उठता है कि इन किसानों का नेतृत्व किसी भाजपाई ने क्यों नहीं किया ? आख़िर किसान किसके सहारे अपनी माँग रखते ? आत्महत्या करने से तो भाजपा हो चाहे कांग्रेस, सुनने वाली है नहीं. तो उन्हें जो मिला उसके सहारे आज़ाद मैदान तक चले आए. तो फिर से वही सवाल कि भाजपा वालों ने किसानों का नेतृत्व क्यों नहीं किया ?

यही सोचते सोचते ध्यान गया कि 2014 के चुनाव के पहले नरेंद्र मोदी की बहुत सारी कहानियाँ राष्ट्रीय पटल पर सुनी और सुनाई गई, कि बाल नरेंद्र मगरमच्छ को अपने घर ले आए, उन्होंने चाय बेचा, हिमालय की तरफ़ भी गए आदि आदि …. लेकिन उनमें एक भी कहानी ऐसी नहीं है जिससे पता चले कि नरेंद्र मोदी ने किसानों और मज़दूरों के बीच कभी काम किया हुआ हो. एक मोदी भक्त से मैंने पूछा तो उसने हँसते हुए, बल्कि अमित शाह की तरह मज़ाक उड़ाते हुए कहा उनकी ये सारी कहानियाँ झूठी थीं. चुनावी जुमला थीं. आप लोग तो शब्द पकड़ कर लटक जाते हैं. तो फिर मैंने सोचा कि जब मोदी की झूठी कहानियों में भी किसान और मज़दूरों को जगह नहीं मिली है. तो ऐसा व्यक्ति या ऐसी पार्टी क्यों किसानों-मज़दूरों के लिए काम करेगी ?

हालांकि मैं महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडनवीस को नरेंद्र मोदी से ज़्यादा साहसी मानता हूँ. क्योंकि जैसे ही मैं आज़ाद मैदान में घुसा, मैंने यह जानने की कोशिश की कि अगला कार्यक्रम क्या है तो पता चला कि मुख्यमंत्री ने किसानों के प्रतिनिधि मंडल को बातचीत के लिए बुलाया है इसलिए किसानों ने तय किया है कि वे अब विधान सभा का घेराव नहीं करेंगे.

आज़ाद मैदान में सबसे ज़्यादा सुकून मुझे पी. साईंनाथ को देख कर हुआ. महसूस हुआ कि जनाक्रोश और विचार साथ साथ हों तो आन्दोलन की धार बनी रहती है.

इस भीड़ में महिलाओं की इतनी बड़ी तादाद देख कर मुझे हैरत हुई. एक आध लोगों से बातचीत करके पता चला कि इनमें कई औरतें ऐसी हैं जिनके पति ने आत्महत्या कर ली है और वे अपने पति के लिए लड़ने आईं हैं.

मुझे मगरमच्छ पालने वाले से तो अब कोई उम्मीद नहीं है लेकिन पूनम महाजन को तो इन किसान औरतों का दुःख समझना चाहिए था क्योंकि पूनम अपने पिता को खोया है. उन्हें अपनों के खोने का दर्द पता है. लेकिन अपनी पार्टी के विचार से बंधी पूनम इससे ज़्यादा कुछ और बोल भी नहीं सकती थी.

ऐसे में समझ में आता है कि कम्युनिस्टों का विचार किसानों, मज़दूरों और ग़रीबों की बात करने की जो हिम्मत रखता है वह हिम्मत भाजपा या कांग्रेस के पास नहीं है क्योंकि उन्हें डर होता है कि नीरव मोदी कहीं उन्हें आँख न दिखा दे. इसीलिए वे टोपी और झंडे का हिसाब तो करते हैं लेकिन फटे हुए पैरों से मुँह फेर लेते हैं.

 

(फ़रीद खान मुम्बई में रहते हैं। कवि हैं। फिल्म और टेलिवजन में लेखन से जुड़े हैं।)