डा. ए.के. अरुण
अकूत मुनाफे के धन्धे में तब्दील चिकित्सा एवं दवा व्यवसाय के लिए कहते हैं कि यह स्वर्णिम काल है। प्रतिवर्ष 13 से 25 फीसद की दर से विकसित होती यह ‘हेल्थ केयर इन्डस्ट्री’ आज दुनिया की महत्वपूर्ण मुनाफेदार संस्था है। मुनाफे का चस्का ऐसा है कि लोगों के जान की कीमत पर उनकी जेबें काट ली जाती हैं। अमरीका जैसे देश में 30 से 40 प्रतिशत लोग वहां की महंगी स्वास्थ्य सेवाओं के चलते दवा और उपचार से महरूम हैं। इसीलिए अमरीका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने जब वहां के 30 प्रतिशत वंचित लोगों के लिये स्वास्थ्य सुरक्षा अधिनियम पारित कराया था तो अमरीकी धनकुबेरों में भूचाल आ गया था। वहां की अमीर लॉबी गरीबों का जीना बरदाश्त नहीं करती। ठीक ऐसे ही भारत में जब होमियोपैथी अपने बलबूते पर विकसित हो रही है तो एलोपैथिक दवा और चिकित्सा लॉबी इसे पचा नहीं पा रही। इस बात की उपेक्षा नहीं की जा सकती कि भारत में होमियोपैथी चिकित्सा सेवा की विकास दर एलोपैथी की विकास दर 13 फीसद के मुकाबले 25 फीसद है।
प्रत्येक वर्ष 10 अप्रैल 2018 को विश्व होमियोपैथी दिवस मनाते हैं। भारत में होमियोपैथी के 218 साल पूरे हो चुके हैं। इस बहाने होमियोपैथी के कुछ महत्वपूर्ण पहलुओं पर चर्चा जरूरी है। यों तो शुरू से ही आधुनिक चिकित्सा पद्धति एलोपैथी का होमियोपैथी के प्रति तंग नजरिया रहा है। एक सहज एवं सस्ती चिकित्सा प्रणाली होते हुए भी होमियोपैथी को कभी महत्वपूर्ण या प्रमुख चिकित्सा पद्धति नहीं माना गया। कभी जादू की पुड़िया, मीठी गोलियां या जादू की झप्पी तो कभी प्लेसिबो कहकर इसे महत्वहीन बताने की कोशिश हुई, लेकिन अपनी क्षमता और वैज्ञानिकता के बलबूते होमियोपैथी विकसित होती रही। आज बताते हैं कि एलोपैथी के बाद होमियोपैथी दुनिया में दूसरी सबसे बड़ी चिकित्सा पद्धति है जिसे दुनिया के कोई अरब लोग अपनी चिकित्सा के लिये किसी न किसी रूप में आजमाते ही हैं।
सन् 1810 में कुछ जर्मन यात्रियों तथा मिशनरी के साथ भारत आई होमियोपैथी ने यहां के लोगों का दिल जीत लिया और तब से इस पद्धति ने जुकाम, खांसी से लेकर टयूमर, कैंसर जैसे गंभीर रोगों की चिकित्सा में भी दखल बढ़ा दी। होमियोपैथी ने गम्भीर रोगों के सफल उपचार के अनेक दावे किये लेकिन अंतरराष्ट्रीय चिकित्सा मंच पर इन दावों के प्रमाण प्रस्तुत करने में ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाई। यह वैज्ञानिक चिकित्साविधि महज ‘संयोग’ मानी जाने लगी और समाज में एलोपैथी जैसी प्रतिष्ठा हासिल नहीं कर पाई। अंतरराष्ट्रीय चिकित्सा पत्रिकाओं में भी होमियोपैथी को महज प्लेसिबो (खुश करने की दवा) से ज्यादा और कुछ नहीं माना गया। होमियोपैथी को एलोपैथी लाबी द्वारा कमतर आंकने के पीछे जाहिर है उनकी व्यावसायिक प्रतिद्वन्द्विता ज्यादा हैख् लेकिन वैज्ञानिक दृष्टि से एक ही रोग या रोगी के लिये भिन्न भिन्न होमियोपैथिक चिकित्सकों द्वारा भिन्न भिन्न दवाओं का निर्धारण समरूपता के सिद्धांत पर टिकी होमियोपैथी पर सवाल खड़ा करता है। होमियोपैथी को जनसुलभ बनाने की जिम्मेदारी तो समाज और सरकार की है।
हमारे योजनाकार भी महंगी होती एलोपैथिक चिकित्सा के मोहताज से बच नहीं पाए हैं। सालाना 22,300 करोड़ रुपये के बजट में से मात्र 964 करोड़ (4.4 प्रतिशत) रुपये देसी चिकित्सा पर जिसमें भी महज 100 करोड़ रुपये होमियोपैथी चिकित्सा पर खर्च कर हम सवा सौ करोड़ की आबादी वाले देश में होमियोपैथी से क्या उम्मीद कर सकते हैं। अपने ही दम-खम पर भारत में तेजी से लोकप्रिय होती होमियोपैथी के मौजूदा विकास का ज्यादा श्रेय तो होमियोपैथी के चिकित्सकों और प्रशंसकों को ही जाता है लेकिन यह भी सच है कि सरकारी पहल के बिना होमियोपैथी को जन-जन तक पहुंचाने का लक्ष्य पूरा नहीं हो सकता।
एलोपैथिक चिकित्सा द्वारा बिगड़े एवं लाइलाज घोषित कर दिये गए रोगों में होमियोपैथी उम्मीद की अन्तिम किरण की तरह होती है। कुछ मामले में तो होमियोपैथी वरदान सिद्ध हुई है तथा अनेक मामले में तो होमियोपैथी ने रोगी में जीवन के उम्मीद का भरोसा जगाया है। चर्म रोग, जोड़ों के दर्द, कैंसर, ट्यूमर, पेट रोग, शिशुओं और माताओं के विभिन्न रोगों में होमियोपैथी की प्रभाविता बेजोड़ है।
होमियोपैथी की इतनी अच्छी योग्यता के बावजूद स्वास्थ्य विभाग पर हावी आधुनिक चिकित्सकों एवं एलोपैथिक दवा की लॉबी होमियोपैथी को आगे नहीं आने देना चाहती। कारण स्पष्ट है कि एलोपेथिक दुष्प्रभावों से उब कर काफी लोग होमियोपैथी या दूसरी देसी चिकित्सा पद्धतियों को अपनाने लग जायेंगे। फिर तो सरकार और मंत्रालय में इनका रुतबा बढ़ेगा और एलोपैथी की प्रतिष्ठा प्रभावित हो सकती है। होमियोपैथी के प्रति एलोपैथिक एवं आधुनिक चिकित्सा लॉबी की यह दृष्टि इस सरल चिकित्सा पद्धति को आम लोगों के लिये पूर्ण भरासेमन्द नहीं बनने देती।
सर्वविदित है कि दुनिया में जन स्वास्थ्य की चुनौतियां बढ़ रही हैं और आधुनिक चिकित्सा पद्धति इन चुनौतियों से निबटने में एक तरह से विफल सिद्ध हुई है। प्लेग हो या सार्स, मलेरिया हो या टी.बी., दस्त हो या फ्लू, एलेपैथिक दवाओं ने उपचार की बात तो दूर रोगों की जटिलता को और बढ़ा दिया है। मलेरिया और घातक हो गया है। टी.बी. की दवाएं प्रभावहीन हो गई हैं, फ्लू के वायरस रोग के ही खिलाफ प्रतिरोधी क्षमता विकसित कर चुके हैं। शरीर में और ज्यादा एन्टीबायोटिक्स को बरदाश्त करने की क्षमता नहीं रही। कुपोषण की वजह से आम आदमी जल्दी-जल्दी बीमार हो रहा है। ऐसे में होमियोपैथी एक बेहतर विकल्प हो सकती है। जन स्वास्थ्य के प्रबन्धन में होमियोपैथी की महती भूमिका को आज भी नजरअन्दाज किया जा रहा है। याद करना चाहिये कि प्लेग के दौर में होमियोपैथी ने न केवल रोग का उपचार किया था बल्कि प्रतिरोधी दवा के रूप में लाखों लोगों को प्लेग के चंगुल में फंसने से बचाया था। अनेक घातक महामारियों से बचाव के लिये होमियोपैथिक दवाओं की एक पूरी रेंज उपलब्ध है। आवश्यकता है इस पद्यति को मुक्कमल तौर पर आजमाने की।
होमियोपैथी की इस विशेषता के होते हुए अब सवाल यह उठता है कि वे कौन लोग या कौन से समूह हैं जो होमियोपैथी को विकसित होते नहीं देखना चाहते? भारत ही नहीं, होमियोपैथी के खिलाफ इन दिनों दुनिया भर में मुहिम चलाई जा रही है। इस मुहिम का मजमून है कि होमियोपैथी कोई कारगर चिकित्सा नहीं है तथा इसकी प्रभाविता लगभग शून्य है। अंतरराष्ट्रीय स्तर की पत्र-पत्रिकाओं को ”प्रभावहीन” बताकर यह जताया जा रहा है कि गम्भीर या सामान्य रोगों में होमियोपैथिक चिकित्सा का कोई खास औचित्य नहीं है। ब्रिटेन की संसद में होमियापैथी के मुद्दे पर वहां के सांसद पक्ष-विपक्ष में बंट गए थे। होमियोपैथी की विरोधी लॉबी वहां सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा में होमियोपैथी की उपस्थिति और लगातार हो रही वृद्धि से परेशान है। लगभग यही स्थिति एशिया और अन्य विकासशील देशों में है।
सवाल है कि देश में जहां 70 फीसद से ज्यादा लोग बेहद कम दैनिक खर्च (लगभग 20 रुपये रोज) पर गुजारा करते हों वहां होमियोपैथी जैसी सस्ती चिकित्सा पद्धति के अलावा और सस्ता चिकित्सा विकल्प भला क्या हो सकता है। हमारे योजनाकारों को इस मुद्दे पर गम्भीरता से सोचना होगा।
लेखक राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त होमियोपैथिक चिकित्सक एवं होमियोपैथिक पत्रिका Food, Nutrition and Health के प्रधान सम्पादक हैं।