1947 से पहले देश में ब्रिटिश राज था, लेकिन उस दौर में भी भगत सिंह का मुक़द्दमा, INA का लाल क़िला मुक़द्दमा जैसे केस पूरी मीडिया के मौजूदगी में चलाये गए थे।
लेकिन आज लोकतांत्रिक भारत में एक नयी परिपाटी शुरू हो रही है। पिछले कुछ महीने का लेखा जोखा देख लें:
- मई में सुप्रीम कोर्ट ने जस्टिस करणन के वक्तव्यों की रिपोर्टिंग पर मीडिया पर प्रतिबंध लगाया।
- जून में उत्तराखंड हाई कोर्ट ने EVM की आलोचना पर प्रतिबंध लगाया।
- अक्टूबर में अहमदाबाद ज़िला कोर्ट और फिर हाई कोर्ट ने The Wire की जय शाह की रिपोर्ट पर मीडिया पर प्रतिबंध लगाया।
- नवम्बर में योगी आदित्यनाथ की hate speech वाले केस में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने मीडिया पर रिपोर्टिंग पर प्रतिबंध लगाया।
- नवम्बर में ही मद्रास हाई कोर्ट ने 50 FIR किए और 11 टीचर सस्पेंड किए क्यूँकि उन्होंने जज के remarks की सोशल मीडिया पर आलोचना की थी। ध्यान रहे कि आलोचना जज के फ़ैसले की नहीं, उसके remarks यानि Obiter Dicta की थी, जिसकी कोई लीगल वैधता नहीं होती है और जो जज केस के सुनवाई के दौरान निजी तौर पर बेंच से कहते रहते हैं।
- कल स्पेशल CBI कोर्ट, मुंबई ने सोहराब्बुद्दीन केस में मीडिया पर रिपोर्टिंग पर प्रतिबंध लगाया है।
और राजस्थान में सरकार, मंत्रियों, अफ़सरों पर लगाए गए किसी भी आरोप की रिपोर्टिंग से पहले मीडिया को सरकार की अनुमति का इंतज़ार करना होगा, ऐसा अध्यादेश के रास्ते क़ानून बना दिया गया था। यही क़ानून यह भी कहता था कि सोशल मीडिया पर भी ऐसे किसी आरोप के बारे में लिखना क़ानूनन अपराध होगा।
सवाल है कि इस नयी परिपाटी के ख़िलाफ़ कोई आवाज़ कहीं से क्यों नहीं उठ रही है।
(लेखक राज्यसभा टीवी के पूर्व सीईओ हैं।)