1 मार्च की शाम युवा पत्रकार नेहा दीक्षित को दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में चमेली देवी जैन सम्मान से नवाज़ा गया। यह सम्मान बीते 37 सालों से पत्रकारिता के क्षेत्र में उत्कृष्ट काम करने वाली किसी महिला पत्रकार को दिया जा रहा है। नेहा को यह सम्मान मशहूर राजनीतिविज्ञानी प्रताप भानु मेहता ने प्रदान किया। स्वतंत्रता सेनानी चमेली देवी जैन की स्मृति में स्थापित इस सम्मान की काफ़ी प्रतिष्ठा है।
पत्रकारिता के क्षेत्र में नेहा को मिला यह पहला सम्मान नहीं है। विभिन्न पत्रिकाओ में उनकी रपटें छपती हैं और चर्चित होती हैं।
बेहद गहरी अंतर्दृष्टि और तथ्यपरक होती हैं नेहा की रपटें। एक रिपोर्ट तैयार करने में कई बार छह-छह महीने लग जाते हैं।
नेहा के काम को काफ़ी सराहा जाता है…
लेकिन …
देश की इस क़ाबिल रिपोर्टर के पास कोई नौकरी नहीं है।
वजह ?
वजह वही है जिसकी वजह से नेहा को सराहा जाता है- तथ्यपरकता, अंतर्दृष्टि, गहराई, संवेदनशीलता । इन सबके साथ नौकरी करना असंभव है।
यह कोई अनुमान नहीं है। नेहा के साथ ऐसा घट चुका है। नेहा ने चमेली देवी जैन सम्मान समारोह में यह कहानी ख़ुद सुनाई।
कुछ साल पहले नेहा एक बड़े अंग्रेज़ी चैनल के साथ काम करती थीं। इस बीच, उस चैनल में एक बड़े कॉरपोरेट हाउस का पैसा लगा। चैनल को अब उसके रंग में रँगना था।
चैनल के एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर ने पूरी टीम की बैठक बुलाई।
“अब हम लोगों को अपनी स्टोरी को नए ढंग से प्लान करनी होंगी। हमें सोचना होगा बैंगलुरु के 30-35 साल के उस युवा के बारे में जो किसी कॉरपोरेट कंपनी में काम करता है। वह शाम को घर लौटकर आए तो हमारा न्यूज़ चैनल देखे। उसे तक़लीफ़ ना हो, मूड ठीक रहे। स्क्रीन पर कोई गंदगी ना हो। अच्छे लोगों की अच्छी बातें हों। हमें उसे कोई टेन्शन नहीं देना ” – एडिटर साहब ने ज्ञान दिया।
ज़ाहिर है एडिटर साहब मध्य या उच्चमध्यवर्गीय युवा को अपना दर्शकवर्ग बना रहे थे। वह मध्यवर्ग, जो दुनिया की तमाम समस्याओं से अनजान अपने में मस्त रहना चाहता है। न्यूज़ चैनल को उसे टेशन नहीं ख़ुशी देनी थी। किसी महानगर में ड्रग्स के लती नौजवानों पर ख़बर हो सकती थी, लेकिन बेरोज़गारी पर नहीं..!
नेहा के लिए यह अखरने वाली बात थी। लेकिन एक मसला और था। घर लौटने वाला युवा पुरुष ही क्यों होगा, स्त्री क्यों नहीं ?
नेहा ने पूछ लिया- ‘ऐंड शी ?’ ‘शी’ यानी लड़की या महिला । इरादा शायद यह था कि इसी बहाने स्त्री प्रश्नों से जुड़ी ख़बरें दिखाई जाएँ।
लेकिन एडिटर ने साफ़ कर दिया कि इसकी कोई गुंजाइश नहीं है। ‘टार्गेट’ घर लौटा युवा है, युवती नहीं।
“फिर चैनल ने इतनी लड़कियों को ऐंकर क्यों बनाया हुआ है ?” –सवाल उठा।
जो जवाब मिला, उसका मतलब यह था- “ये सजी-धजी ऐंकर भी बैंगलुरु के उसी युवा की आँखों को सुख देने के लिए है !”
नेहा के लिए यह माहौल बरदाश्त से बाहर था। उसका सपना दमन, उत्पीड़न के तमाम पहलुओं पर रिपोर्टिंग करनी थी। नेहा ने नौकरी छोड़ दी।
वह अब अपनी मर्ज़ी की रिपोर्टिंग करती है। इस यक़ीन के साथ कि एक नहीं तो दूसरे, दूसरे नहीं तो तीसरे, तीसरे नहीं तो चौथे संस्थान को उसकी रिपोर्ट पसंद आएँगी।
कई बार उसे अच्छे पैसे भी मिल जाते हैं।
मसलन एक नामी पत्रिका ने उसकी रिपोर्ट के लिए 60 हज़ार रुपये दिए। इसे तैयार करने में उसे छह महीने लगे थे।
यानी औसत हुआ 10 हज़ार रुपये महीना। बस !
कठिनाइयों का अंदाज़ा आप लगाएँ..
नेहा ख़ुश है कि उसके काम को सराहा जा रहा है। वह ‘स्वतंत्र पत्रकार’ है।
और न्यूज़ चैनलों के तमाम नामी एडिटर भी ख़ुश हैं कि उनकी टीम में नेहा जैसा कोई ‘वबाल’ नहीं है, जो सवाल करता हो।
(नेहा किस चैनल में काम करती थी या उस एडिटर का नाम क्या था, इसका खुलासा नेहा ने नहीं किया था। लेकिन इससे फ़र्क़ भी क्या पड़ता है। आप जिस चैनल का परदा उठाएँगे, नेहा जैसी किसी संवेदनशील पत्रकार को नौकरी छोड़ कर जाते देखेंगे। या उसे बाहर करने की तैयारी हो रही होगी। )
.बर्बरीक