छत्तीसगढ़ के सुकमा में माओवादी हमले में सीआरपीएफ़ के25 जवानों की मौत ने नक्सली समस्या को लेकर किए जा रहे सरकार के तमाम दावों पर सवाल उठा दिए। स्वाभाविक था कि मीडिया इस दुखद घटना को लेकर राज्य और केंद्र सरकार को नीतिगत और रणनीतिक मसलों को लेकर कठघरे में खड़ा करता, लेकिन अंग्रज़ी चैनल ‘टाइम्स नाऊ’ ने इसके लिए जवाब माँगा जेएनयू के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार और देशविरोधी नारेबाज़ी मामले में इल्ज़ाम झेल रहे शोधछात्र उमर ख़ालिद को। यही नहीं चैनल अपने नौ बजे की मुख्य बहस इस पर ही केंद्रित कर दी।
टाइम्स नाऊ के प्रतिद्वंद्वी ‘इंडिया टुडे’ के साथ फिलहाल काम कर रहे वरिष्ठ टीवी पत्रकार राजदीप सरदेसाई ने इसपर कड़ी टिप्पणी करते हुए लिखा कि आंतरिक सुरक्षा जैसे गंभीर मसले को हमने किस स्तर तक ला दिया। उन्होंने अफ़सोस जताया कि वे ऐसे मीडिया के हिस्से हैं।
हालाँकि, राजदीप ने अपने चैनल के सहयोगी ऐंकर गौरव सावंत पर कोई टिप्पणी नहीं की जिन्होंने इस मुद्दे पर प्रख्यात लेखिका अरुंधति रॉय पर तंज कसा। सरकार के अनधिकृत प्रवक्ता बतौर मशहूर हो चुके गौरव सावंत ने लिखा कि ‘अरुंधति के गाँधियों’ के पास अब ज़्यादा हथियार आ गए हैं..ज़ाहिर है, गौरव सावंत 2010 में आउटलुक में छपे अरुंधति के उस लेख की याद दिला रहे थे जो उन्होंने छत्तीसगढ़ में माओवादियों की बीच कुछ दिन गुज़ारने के बाद लिखा था। इस लेख की चर्चा संसद तक में हुई थी। हालाँकि अरुंधति ने बार-बार यह साफ़ किया कि उन्होंने ‘गाँधी विद गन’ का मुहावरा नहीं गढ़ा था माओवादियों के लिए। यह पत्रिका की ओर से जोड़ा गया था। इसे आप यहाँ पढ़ सकते हैं।
बहरहाल, ट्विटर पर टाइम्स नाऊ के रुख की काफ़ी लानत मलामत की गई। यह याद दिलाया गया कि कैसे यूपीए के शासन काल में टाइम्स नाऊ ऐसी घटना के बाद सरकार से सवाल पूछता था।
ट्विटर पर लोगों ने जो रुख़ ज़ाहिर किया उसमें मीडिया के बारे में स्पष्ट राय ज़ाहिर हुई। लोगों ने मान लिया है कि सरकार से सवाल पूछने की हिम्मत हमारे दौर के मीडिया में नहीं है। वह बस सरकार विरोधियों को कठघरे में खड़ा कर पाता है।
एक ज़माने में मीडिया साख के संकट से गुज़र रहा था। न्यू इंडिया के मीडिया के लिए यह कोई संकटकाल नहीं है। वह ‘साख’ जैसी बेकार की चीजों की चिंता से मुक्त हो चुका है।
.बर्बरीक