अभिषेक श्रीवास्तव
सोमवार 3 अप्रैल को दिन से लेकर आधी रात तक ट्विटर पर एक हैशटैग ट्रेंड करता रहा। शुरुआती कुछ घंटों में पहले और दूसरे स्थान पर मंडराने के बाद आधी रात मंगलवार को वह चौथे पर खिसक गया, फिर भी उस पर ट्वीट आने बंद नहीं हुए थे। यह ख़बर लिखे जाते वक्त मंगलवार की सुबह #StopHindiChauvinism दूसरे स्थान पर भारत में ट्रेंड कर रहा था और उसे ट्वीट करने वाले हिंदी के प्रमुख व्यक्तियों में हिंदुस्तान अखबार की पूर्व संपादक मृणाल पाण्डे हैं।
ट्विटर से इस देश में सरकार चल रही है। पीएमओ चल रहा है। ट्विटर से देश भर के न्यूज़रूम चल रहे हैं। खबरों को ट्रेंड करवाने के लिए दर्शकों से बाकायदे एक हैशटैग देकर ऐसा करने को कहा जाता है। उससे टीआरपी आती है। टीआरपी से धंधा आता है। एक ऐसे दौर में जब सुर्खियों और कारोबारों की अहमियत ट्विटर से ही तय हो रही हो, आखिर क्या वजह है कि सोमवार को इस हिंदी विरोधी हैशटैग पर किसी भी मीडिया संस्थान की निगाह नहीं गई। क्या केवल इसलिए क्योंकि राष्ट्रवाद के जिस यज्ञ में तमाम मीडिया पिछले तीन साल से अहर्निश आहुति दिए जा रहा है, उसे यह ट्रेंड सूट नहीं करता?
#StopHindiChauvinism
Why this paranoia?it is mandated that Hindi cant be the national language unless non Hindi states accept it as such. pic.twitter.com/gQMoDxtqBQ— Mrinal Pande (@MrinalPande1) April 3, 2017
क्या किसी पत्रकार या संपादक ने इतना भी नहीं सोचा कि आखिर एक बड़े हिंदी अखबार की प्रतिष्ठित संपादक को इस हैशटैग से क्यों ट्वीट करना पड़ रहा है? आखिर वजह क्या है कि दक्षिण भारत में हिंदी को लेकर साठ साल बाद फिर से एक बार नफ़रत की आग भड़क उठी है जबकि राष्ट्रीय मीडिया को योगीजी की गौशाला से ही मुक्ति नहीं मिल पा रही?
तमिलनाडु समेत समूची द्रविड़ राजनीति एक बार फिर से हिंदी-विरोध के टाइमबम पर बैठी हुई नज़र आ रही है। न केवल उत्तर बल्कि दक्षिण के भी बड़े अखबार और चैनल इस ओर से अब तक आंखें मूंदे हुए हैं जबकि मामले को गरमाए पांच दिन हो रहा है। तमिलनाडु के सीमावर्ती जिले वेल्लोर और कृष्णागिरि में भारत के राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (एनएचएआइ) ने रातोरात अंग्रेज़ी और तमिल के साइनेज यानी मील के पत्थरों को रंग कर हिंदी में नाम लिख दिए हैं। लोगों में इससे काफी रोष है। ऐसा नहीं है कि इस बाबत खबरें प्रकाशित नहीं हुई हैं लेकिन वे सुर्खियों में नहीं आ सकी हैं।
https://twitter.com/msgopalkrish/status/848969738571010049
चार दिन पहले 31 मार्च को द्रमुक के नेता स्टालिन का बयान कई जगहों पर प्रकाशित हुआ था। पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष एमके स्टालिन ने आरोप लगाया था कि बीजेपी की केंद्र सरकार तमिलनाडु में ”हिंदी का प्रभुत्व” स्थापित करने की कोशिश कर रही है। एक वक्तव्य में उन्होंने चित्तूर-वेल्लोर राजमार्ग और राष्ट्रीय राजमार्ग 77 पर हिंदी में लिखे गए मील के पत्थरों का हवाला देते हुए कहा, ”यह दिखाता है कि बीजेपी तमिलों की भावना का अनादर करती है। यह पिछले दरवाजे से हिंदी के प्रभुत्व को थोपने की कोशिश है।”
उन्होंने चेतावनी दी है कि राज्य में अगर हिंदी के और साइनेज लगाए गए तो राज्यव्यापी आंदोलन होगा। एमडीएमके और पीएमके ने भी अंग्रेज़ी के नाम मिटाकर हिंदी में लिखे जाने के केंद्र के अभियान के खिलाफ़ विरोध प्रदर्शनों की धमकी दी है। भूलना नहीं चाहिए कि तमिलनाडु में 1930 और 1960 के दशक में दो बार हिंदी विरोधी आंदोलन हो चुका है। तीस के दशक में इस आंदोलन का नेतृत्व द्रविड़ विचारधारा के अगुवा पेरियार ने किया था जिनकी मांग थी कि दक्षिण की सभी भाषाओं को हिंदी जैसा समान दरजा दिया जाए।
Dear Ppl Of South,
We Know Hindi Isn't National Language. We Agree There Mustn't Be #HindiImposition.
Love From North#StopHindiChauvinism pic.twitter.com/H6yfZHxzWb
— Sir Jadeja fan (@SirJadeja) April 3, 2017
पेरियार के शिष्य अन्नादुरई ने डीके से अलग होकर जब डीएमके की स्थापना की, तो 1965 में एक बार फिर से हिंसक आंदोलन हुए। इस आंदोलन में स्टालिन नेता के बतौर पहली बार उभर कर सामने आए थे। डीएमके की हिंदी विरोधी आंदोलन ने किस्मत ही पलट गई और 1967 का असेंबली चुनाव जीत कर उसने राज्य से कांग्रेस पार्टी का सफाया कर दिया। इसके चलते इंदिरा गांधी की केंद्र सरकार को भाषा कानून में बदलाव करना पड़ा और संघ की आधिकारिक भाषा के बतौर ”अंग्रेज़ी और हिंदी” के इस्तेमाल को मान्यता देनी पड़ी।
चित्तूर-वेल्लोर राजमार्ग और राष्ट्रीय राजमार्ग 77 पर मजदूर अंग्रेज़ी के नामों को मिटाकर हिंदी करने का काम पिछले शुक्रवार से कर रहे हैं। कई जगह विरोध स्वरूप लोगों ने हिंदी के नामों को मिटाकर वापस तमिल में लिख दिया है। न्यू इंडियन एक्सप्रेस में छपी खबर की मानें तो एनएचएआइ के अधिकारियों के मुताबिक ऐसा ”केंद्र के नीतिगत फैसले” के मुताबिक किया जा रहा है।
https://twitter.com/Kingstonjoeldas/status/848955827335569408
ट्विटर पर जिस तरीके के संदेश हिंदी थोपे जाने के विरोध में आ रहे हैं, वे सामान्य लोगों के गुस्से को दिखाते हैं। एक तरफ़ दिल्ली में तमिलनाडु के किसान गले में मरे हुए किसानों की खोपड़ी लटकाए प्रदर्शन कर रहे हैं तो दूसरी ओर भाषा को लेकर राज्य में आंदोलन शक्ल ले रहा है। पिछले दिनों जलीकट्टु पर हुई हिंसा का यह राज्य गवाह बन चुका है और राज्य में पूर्व मुख्यमंत्री जयललिता की मौत व उनकी सहयोगी शशिकला को हुई जेल के बाद आई नई सरकार को लेकर भी असंतोष है।
द्रविड़-हिंदी का संघर्ष डीएमके की विरासत रही है। डीएमके के लिए राज्य की राजनीति पर पकड़ बनाने के लिए इससे ज्यादा भावनात्मक मुद्दा और कोई नहीं हो सकता। वहीं केंद्र की बीजेपी इसे हवा देने से नहीं चूकेगी क्योंकि राष्ट्रवाद की उसकी वैचारिकी में भाषा एक अभिन्न अंग है। आने वाला समय दक्षिण भारत में काफी तनावपूर्ण हो सकता है। मीडिया को लखनऊ से निकलकर अब चेन्नई कूच करना चाहिए वरना बहुत देर हो जाएगी।