आदमी गणित जानता है, अन्य जीव नहीं जानते। यह एक ऐसा बौद्धिक विभेद है , जो उसे अन्य जीव-जन्तुओं से अलग करता है। गाती तो कोयल भी है, दौड़ता तो चीता भी है। लेकिन अंक-गणित हो या अत्याधुनिक उच्च गणित , इन क्षेत्रों को बूझ पाना केवल मानव के वश में है। आदमी को गणित क्यों मिली ? गणित ने पनपने के लिए मनुष्य-मात्र को ही क्यों स्वीकार किया ? इसका ठीक-ठीक उत्तर अब तक हम नहीं जानते। लेकिन तीन दिलचस्प परिकल्पनाएँ इस विषय में विद्वानों ने प्रस्तुत की हैं। लोगों का मानना है कि इनमें से किसी एक ( या एकाधिक ) के कारण ही मनुष्य के मस्तिष्क में गणित का विकास हुआ।
पहली परिकल्पना अडैप्शनिस्ट हायपोथीसिस या ढालू परिकल्पना कहलाती है। विकासवाद का सिद्धान्त कहता है कि जो जीव तात्कालिक पर्यावरण में ढल पाएगा , वही आगे जीवित पाएगा। उसी के हिस्से प्रजनन आएगा और उसी के बच्चे आगे उसका वंश चलाएँगे। नतीजन तुलना कीजिए एक आदिम मानव की उसके साथी से जो गणित नहीं जानता। चूँकि हमारे इस आदिम मानव को गणित आती है , वह जान सकता है कि अमुक इलाक़े में कितने शेर रहते हैं और कितने हिरण। कितनों से सुरक्षा करनी है और कितनों को मार कर खाया जा सकता है। भूख और बचाव की अपनी गणित होती है। सो इन्हीं मूल जैविक इच्छाओं के लिए मनुष्य में गणित पनपी और फिर वह बढ़ती गयी। जो गणित कर पाया , वह बचा। जो अगणितीय भोला-भाला रहा, निबट गया।
लेकिन साधारण अंक-गणित जानना एक बात है , कठिन-दुष्कर उच्चस्तरीय गणित करना दूसरी बात। उससे कौन सा विकासवादी ध्येय सिद्ध हो रहा है : प्रश्न यह उठता है और यहाँ यह पहली परिकल्पना दम तोड़ती नज़र आती है। ऐसे में दूसरी परिकल्पना सामने रखी जाती है : बायप्रोडक्ट हायपोथीसिस यानी सह-उत्पाद परिकल्पना। यानी गणित का सीधे-सीधे विकास मनुष्य किसी आवश्यकता के लिए ढलने के कारण नहीं हुआ, बल्कि यह किसी अन्य विकासवादी गुण के साथ उसे मिल गया। जैसे आपको कभी होटल में खाना खाते समय बहुत अच्छी आइसक्रीम कॉम्प्लिमेंटरी मिल जाती है। यह केवल एक इत्तेफ़ाक़ या चांस की बात थी। तमाम बौद्धिक गुण-धर्मों के विकास के साथ गणितीयता भी प्रकट हुई और फिर वह विकसित होती चली गयी। लेकिन फिर यह गणितीयता इतनी अधिक जटिल समस्याओं को सुलझाने लायक क्यों और कैसे हो गयी , इसका उत्तर हमें नहीं मिल पाता।
इसलिए अब हम यहाँ से तीसरी परिकल्पना की ओर बढ़ते हैं, जिसे सेक्शुअल सेलेक्शन हायपोथीसिस कहा गया है। यानी यौन चुनाव की परिकल्पना। जिस तरह से मोर मोरनी को लम्बे सुन्दर पंखों से आकृष्ट करता है और तमाम हिरण अपने लम्बे सींगों से , उसी तरह से नर-मनुष्य अपनी बौद्धिकता से मादा-मनुष्य को आकर्षित करता है। इस परिकल्पना के अनुसार बौद्धिकता के विकास के मूल में यौन-आकर्षण है। जो बौद्धिक हैं, उनके प्रजनन की सम्भावनाएँ अधिक हैं। इसी बौद्धिकता के तमाम आयामों में एक गणितीयता का है। फिर यह बौद्धिक विकास प्रजनन के साथ एक परस्परपोषी सम्बन्ध बना लेता है। पॉज़िटिव फ़ीडबैक लूप। अधिक बौद्धिक तो अधिक प्रजनन। अधिक प्रजनन से अधिक सन्तानें। अधिक सन्तानें और अधिक बौद्धिक विकास की ओर। फिर और अधिक प्रजनन। इस तरह से चलता चला जाता क्रम।
इन तीनों परिकल्पनाओं के साथ अपनी कमियाँ जुडी हैं। मनुष्य बौद्धिक तो है, लेकिन क्यों है, इसका ठीक-ठीक पूरा जवाब हमें पता नहीं। बहुत सी बौद्धिक क्षमताओं के कारण अल्पज्ञात या अज्ञात हैं। फिर समस्या यह है कि इन परिकल्पनाओं को परखा कैसे जाए। बिना परख के तो विज्ञान कुछ मानता नहीं।
वैज्ञानिक सोचते जाते हैं। आप भी सोचिए। केवल सोचिए ही नहीं , उसे प्रयोग की वेदी पर चढ़ाइए। शायद कुछ सटीक बात आप ही सामने ला सकें।
पेशे से चिकित्सक (एम.डी.मेडिसिन) डॉ.स्कन्द शुक्ल संवेदनशील कवि और उपन्यासकार भी हैं। लखनऊ में रहते हैं। इन दिनों वे शरीर से लेकर ब्रह्माण्ड तक की तमाम जटिलताओं के वैज्ञानिक कारणों को सरल हिंदी में समझाने का अभियान चला रहे हैं।