क्या ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति और विकास का सवाल दार्शनिकों के हाथ से निकल गया है?

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मीडियाविजिल अपने पाठकों के लिए एक विशेष श्रृंखला चला रहा है। इसका विषय है ब्रह्माण्‍ड की उत्‍पत्ति और विकास। यह श्रृंखला दरअसल एक लंबे व्‍याख्‍यान का पाठ है, इसीलिए संवादात्‍मक शैली में है। यह व्‍याख्‍यान दो वर्ष पहले मीडियाविजिल के कार्यकारी संपादक अभिषेक श्रीवास्‍तव ने हरियाणा के एक निजी स्‍कूल में छात्रों और शिक्षकों के बीच दो सत्रों में दिया था। श्रृंखला के शुरुआती चार भाग माध्‍यमिक स्‍तर के छात्रों और शिक्षकों के लिए समान रूप से मूलभूत और परिचयात्‍मक हैं। बाद के चार भाग विशिष्‍ट हैं जिसमें दर्शन और धर्मशास्‍त्र इत्‍यादि को भी जोड़ कर बात की गई है, लिहाजा वह इंटरमीडिएट स्‍तर के छात्रों और शिक्षकों के लिहाज से बोधगम्‍य और उपयोगी हैं। इस कड़ी में प्रस्‍तुत है ”ब्रह्माण्‍ड की उत्‍पत्ति और विकास” पर पांचवां भाग:


आइए, आगे बढ़ने से पहले बीते चार अध्यायों के आधार पर कुछ अहम बिंदुओं को याद कर लें:

  1. ब्रह्माण्‍ड असीम नहीं है: ज्‍यादा तकनीकी विवरणों और खोजों पर जाने के बजाय एक आसान तार्किक पहेली बुझाते हैं। मान लीजिए कि न्‍यूटन के दौर में जितना विज्ञान जाना गया था और हम लोग आज भी जैसा सहज तौर पर मानते हैं, उसके मुताबिक हमारा ब्रह्माण्‍ड बहुत आसान था- असीम और अनंत, यानी काल और स्‍पेस में कोई सीमा नहीं। इसका मतलब यह हुआ कि ब्रह्माण्‍ड इनफाइनाटली पुराना और इनफाइनाइटली विशाल है। इसका मतलब यह हुआ कि आप कहीं से भी आकाश में देखें, आपकी दृष्टि रेखा किसी न किसी तारे से अवश्‍य जा टकराएगी। हर किसी के साथ यह होना चाहिए। हर लाइन ऑफ साइट को एक तारे से टकरा जाना चाहिए। यानी पूरा आकाश तारों से पटा होना चाहिए और उसे उतना ही चमकदार होना चाहिए जितना सूरज है, जो कि खुद एक तारा है। हम जानते हैं कि आकाश इतना चमकदार नहीं है। इसका मतलब यह हुआ हमारी प्रस्‍थापना गलत थी यानी या तो 1) ब्रह्माण्‍ड असीमित रूप से विशाल नहीं है, या फिर 2) उसकी कोई शुरुआत तो थी। या फिर दोनों। प्रूफ के इस तरीके को ओल्‍बर पैराडॉक्‍स कहते हैं।

 

  1. अंतरिक्ष में बाहर की ओर देखना समय में पीछे की ओर देखने के बराबर है (क्‍योंकि प्रकाश की गति फाइनाइट है): इसका मतलब यह हुआ कि बड़े टेलिस्‍कोप अपने आप में बड़ी टाइम मशीनें हैं।

 

  1. कोई गैलेक्‍सी जितनी सक्रिय होगी, वह उतनी ही दूर होगी यानी उतना ही अतीत में होगी: इसका मतलब यह हुआ कि ब्रह्माण्‍ड लगातार विकसित हो रहा है और स्थिर अवस्‍था में नहीं है।

 

  1. ब्रह्माण्‍ड फैल रहा है: इसके फैलने की दर को हबल मानक से मापा जाता है। इसे गणना से 71 किलोमीटर प्रति सेकंड निकाला गया है।

 

  1. नब्‍बे के दशक से बिग बैंग ही ब्रह्माण्‍ड की उत्‍पत्ति का मानक मॉडल है: ब्रह्माण्‍ड में 95 फीसदी डार्क मैटर है और 5 फीसदी सामान्‍य मैटर है। इसी तरह ब्रह्माण्‍ड में 27 फीसदी सामान्‍य एनर्जी है और 73 फीसदी डार्क एनर्जी है।

अभी तक हमने जो कुछ जाना, उसमें बहुत से विषय छूट गए हैं। मसलन, ब्रह्माण्‍ड की उत्‍पत्ति के चरण क्‍या थे। बिग बैंग के बाद इफ्लेशन का दौर, फिर रेडिएशन का दौर और अंत में पदार्थ के फैलने का दौर। ये सब ज्‍यादा तकनीकी विषय हैं। इसके अलावा, बिग बैंग को लेकर तमाम असहमतियां भी हैं और वैज्ञानिकों का एक समूह इसे लगातार चुनौती  देता रहा है। इसके कई तर्क भी हैं और गणनाएं भी, हालांकि मानक मॉडल फिलहाल बिग बैंग ही है। इसके अलावा अकसर यह पूछा जाता है कि ब्रह्माण्‍ड की आकृति कैसी है। एक मानक आकृति लाउडस्‍पीकर के जैसी बताई जाती है, हालांकि उस पर भी विवाद है। ऐसे तमाम मसले जिन पर अभी साक्ष्‍य आधारित निष्‍कर्ष नहीं निकाले गए हैं, उन्‍हें हमने रहने दिया है।

एक अहम सवाल ग्रैविटी को लेकर किया जाता है कि ब्रह्माण्‍ड के दो बुनियादी सिद्धांतों सापेक्षिकता और क्‍वान्‍टम मेकैनिक्‍स के बीच गुरुत्‍वाकर्षण बल की क्‍या जगह है। यह सवाल ज़रूरी है। गुरुत्‍वाकर्षण बल ही सभी ग्रहों को आपस में संतुलन में बांधे हुए हैं, इतना हम जानते हैं। इनफ्लेशन के दौर में यह बल केंद्रीय बल था। उसके बाद इसका स्‍वरूप बदलता गया है। हम जानते हैं कि अगर एक परसेंट भी गुरुत्‍व के मान में बदलाव ला दिया गया तो पूरी बिग बैंग थियरी भरभरा कर गिर जाएगी।

बहरहाल, जो सबसे बुनियादी सवाल अकसर ब्रह्माण्‍ड की वैज्ञानिक व्‍याख्‍या को लेकर किया जाता है, वो यह है कि क्‍या विज्ञान ने ब्रह्माण्‍ड को समझने का ठेका ले रखा है? मानवता के इतिहास में प्रायोगिक विज्ञान की ज्ञात उम्र बहुत छोटी है। दुनिया को और अस्तित्‍व को समझने का काम विज्ञान से भी बहुत पहले से दार्शनिक करते रहे हैं। दर्शन का मतलब ही है दुनिया को देखने का नजरिया, दृष्टि। यह दृष्टि कहां से आती है? जाहिर है, तकनीकी विकास से चीजों को देखने की दृष्टि बदली है लेकिन दार्शनिक व्‍याख्‍याएं भी अपनी जगह आज तक कायम हैं। क्‍या हम यह मान लें कि ब्रह्माण्‍ड की उत्‍पत्ति और विकास का विषय अब दार्शनिकों के हाथ से निकल गया और वैज्ञानिकों के हाथों में चला गया है। क्‍या दर्शन और संबद्ध धाराएं विज्ञान व वैज्ञानिक प्रेक्षणों के आगे इतनी कमज़ोर हो चुकी हैं कि उनकी कोई उपयोगिता अब दुनिया को समझने में नहीं रह गई है।

यह बात निश्‍चय के साथ नहीं कह जा सकती क्‍योंकि विज्ञान अभी ब्रह्माण्‍ड के सिरे पर नहीं पहुंचा है। उसकी अपनी सीमाएं हैं। दुनिया को तार्किक नजरिए से देखना और दुनिया को वैज्ञानिक प्रेक्षणों के हिसाब से देखना, दोनों में फर्क है। दोनों एक-दूसरे से अलग नहीं हैं लेकिन एक भी नहीं हैं। मसलन, बोधगम्‍यता, ”कुछ नहीं होने” का मतलब, मॉडल आधारित भौतिकी को सामान्‍यीकरण की तरफ ले जाना, खगोलशास्‍त्रीय सिद्धांतों का ज्ञानात्‍मक महत्‍व, प्रकृति की उत्‍पत्ति के नियमों की समस्‍या आदि जटिल बातें हैं।

देखिए, विज्ञान उन्‍हीं समस्‍याओं को अपने हाथ में लेता है जिनका समाधान शोध प्रविधियों की संभावनाओं के दायरे में होता है जिन्‍हें विज्ञान लागू करता है या कर सकता है। मोटी बात ये है कि वैज्ञानिक उन्‍हीं समस्‍याओं की ओर आकर्षित होते हें जिन्‍हें हल किया जा सकता है। अगर सत्‍तर के दशक से दुनिया भर के वैज्ञानिक ब्रह्माण्‍ड की उत्‍पत्ति में लगातार दिलचस्‍पी ले रहे हैं, तो यह बात अपने आप में इस ओर इशारा करती है कि यह जटिल समस्‍या वैज्ञानिक समाधन के दायरे में तो कम से कम आ ही चुकी है।


(जारी) 

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तीसरा भाग

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