सेनेटरी नैपकिन से नुकसान भी है, छिपाता है बाज़ार!

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नूतन यादव

 

आज  बड़ा सवाल यह है कि भारत में बहुराष्ट्रीय कंपनियां सेनेटरी नैपकिन को ही एकमात्र विकल्प के रूप में क्यों प्रस्तुत करती  हैं ? वे आम भारतीय महिला की परंपरागत मानसिकता को  बढ़ावा देते हुए उसे ‘यूज़ एंड थ्रो’ के रूप में सामने रखती हैं, जिसे भारतीय महिलाओं को सुविधा के साथ परंपरा निभाने में भी  मदद मिलती है । परम्परागत रूप से महिलाएँ पुराने सूती कपड़े  संभाल कर रखती रही हैं, जिसे माहवारी के दिनों में प्रयोग किया जाता है । उसमें कुछ दिक्कतें होती हैं, लेकिन उसके प्रयोग से किसी तरह की मेडिकल समस्या नहीं होती थी । साथ ही एक साल में कूड़े के रूप में उसका निपटारा भी हो जाता था । साथ ही पुराने कपड़ों का भी इस्तेमाल हो जाता था, लेकिन कंपनियों ने  स्त्राव  और सूखेपन के नाम पर एक ऐसा छद्म संसार खडा कर दिया है, जिसमें हम बुरी तरह से फंस चुके हैं । आँख मूँदकर ज्यादा पैसा देकर अपनी सेहत को दाँव पर लगाकर पर्यावरण को नुक्सान पहुंचा रहे हैं । मूल प्रश्न यह है कि क्या सचमुच सेनेटरी नैपकिन परंपरागत साधनों का बेहतरीन विकल्प हैं या यह केवल बाज़ारवाद की चाल है ?

बाज़ारवाद भी अपनी चालों को तभी चल पा रहा है जब हम उसे ऐसा करने के लिए एक उपजाऊ ज़मीन तैयार करके देते हैं । एक ऐसा समाज जहाँ माहवारी एक गुप्त रोग की तरह देखी जाती है, जहाँ उन पाँच दिनों में आपके पूरे अस्तित्व को नकार दिया जाता है और मंदिर तक में घुसने की मनाही होती है, ऐसे परिवेश में महिलाएँ ‘जो मिल जाए उसी से काम चला लो’ वाली प्रवृत्ति अपना लेती हैं और विकल्पों के प्रति बहुत जागरूकता नहीं दिखातीं हैं ।   

माहवारी या पीरियड्स के दौरान सेनेटरी नैपकिन के प्रयोग  के कई नुकसान हैं । सेनेटरी नैपकिन में कई ऐसे प्रकार के सिंथेटिक पदार्थों का प्रयोग होता है, जो बहुत लम्बे वक़्त तक नष्ट नहीं होते और इस तरह ये बहुत सालों तक जमा होकर पर्यावरण के लिए ख़तरा बनते हैं। सैनेटरी पैड नैपकिन में कई ऐसे रसायनों का प्रयोग किया जाता है, जो एलर्जी, जलन, सूजन, से लेकर इन्फेक्शन और गर्भ की कई समस्याओं को जन्म देते हैं । इसके लम्बे समय तक प्रयोग करने से बाँझपन और ओवेरियन कैंसर तक का कारण बनते हैं ।

अधिकतर पैड्स यह दावा करते हैं कि वे अधिक से अधिक गीलापन सोखते हैं, लेकिन इसके कारण पैदा हुए बैक्टीरिया की कोई जानकारी इन्हें बनाने वाली कंपनियों द्वारा नहीं दी जाती है । यहाँ  सीधा सवाल यह उठता है कि मेडिकल वस्तु होने की कारण कंपनियों को सेनेटरी नैपकिन से जुड़ी जानकारियाँ पैक पर बतानी चाहिए । उदाहरण के लिए किसी नैपकिन को अधिक से अधिक कितने वक़्त के लिए लगाया जा सकता है ?   और उस नैपकिन में किन पदार्थों  का प्रयोग किया गया है, जिससे प्रयोक्ता उसके बारे में कोई जानकारी लेना चाहे तो ले सके ।

भारत में सेनेटरी नैपकिन को लेकर कई भ्रांतियाँ हैं । पढ़ी लिखी महिलाएँ भी किसी नये विकल्प को प्रयोग नहीं करना चाहती हैं । मेनस्ट्रूअल कप को लेकर अभी भी उनके मन में काफी हिचकिचाहट है । उसे धोकर  संभाल कर रखने के विचार मात्र से उनका मन खराब होने लगता है और लगता है सनिट्री नैपकिन बनाने वाली कंपनियां इसी मानसिकता का लाभ उठा रही हैं । वरना क्या कारण है कि भारत में जहां हर क्षेत्र में नयी वस्तुएं और तकनीक को बढ़ावा दिया जा रहा है वहीं इस क्षेत्र में टेमपोंस या मेनस्ट्रूअल कप जैसी बेहतरीन बस्तुएँ या बायोडिग्रेडेबल नैपकिन पर कोई चर्चा नहीं हो रही । सरकार भी बायोडिग्रेडेबल नैपकिन को बढ़ावा नहीं दे रही है।

हाल ही में आई फिल्म पैड मैन में सेनेटरी नैपकिन पर बात हो रही है । माहवारी पर चुप्पी तोड़ने की बात की जा रही है, लेकिन पर्यावरण से जुडी बातें सिरे से गायब हैं। यह भी बहुराष्ट्रीय कंपनियों की एक साजिश है । भारत के असली पैड मैन अरुणाचलम मुरुगानान्थम की कहानी में भी दो मुद्दों पर ज़ोर दिखाई देता है – हर  भारतीय महिला को कम दामों पर नैपकिन मिले और वह बायोडिग्रेडेबल भी हो । लेकिन फिल्म उस मक़सद को दिखाने में असफल रही और सेनेटरी नैपकिन बनाने वाली कंपनियों का वर्चस्व बना हुआ है । सारा विमर्श पुरुषों की झिझक तोड़ने पर ही आकर टिक गया ।