बनारस हिंदू युनिवर्सिटी में छात्राओं के आंदोलन पर बीते चार दिनों के दौरान राष्ट्रीय मीडिया कहे जाने वाले संस्थानों की आंख तब खुली जब आधी रात कुलपति के अडि़यल रवैये ने वहां लाठी-गोली की बौछार करवाकर छात्रों को परिसर से खदेड़ दिया। उससे पहले तक यह खबर दिल्ली क्या लखनऊ तक का रास्ता भी तय नहीं कर पाई थी। उधर बनारस में प्रधानमंत्री के दो दिन के दौरे के कारण बाकी सभी खबरें गौड़ हो चुकी थीं और शहर के एक हिस्से में रहने वाले को पता ही नहीं था कि दूसरे हिस्से में कोई आंदोलन अंगड़ाई ले रहा है।
इस पूरे घटनाक्रम में स्थानीय अखबारों की भूमिका बहुत संदिग्ध और शर्मनाक मालूम पड़ती है, जिसका सबसे ज्वलंत उदाहरण तो यही है कि लाठीचार्ज की अगली सुबह जब बाकी अखबारों में मजबूरी में थक-हार कर मोदी की खबर के समानांतर पहले पन्ने पर बीएचयू की खबर सेकंड लीड छापी, बनारस का ‘अपना’ अखबार आज इससे गाफिल रहा। आज के 24 सितंबर के संस्करण में बीएचयू से जुड़ी एक भी खबर नहीं है। यह बाबू विष्णुराव पराड़कर की पत्रकारिता की विरासत का ऐसा मखौल है जो पहले देखने को नहीं मिला।
वरिष्ठ पत्रकार आवेश तिवारी इस पर लिखते हैं:
”BHU प्रकरण पर आज की आखिरी और जरूरी बात ‘मीडिया का रोल’। आप में से बहुत कम लोगों ने बनारस के अखबार पढ़े होंगे। यह जरूरी है कि आप कम से कम एक बार पिछले तीन दिनों के तीन बड़े अखबारों दैनिक जागरण ,हिंदुस्तान और अमर उजाला के ई पेपर देखें। यह तीनों अखबार लगातार इस कोशिश में रहे कि छात्रों के इस आंदोलन को साजिश करार दिया जाए। दैनिक जागरण ने, जो कि पिछले एक हफ्ते से पीएम के बनारस दौरे का लाखों का विज्ञापन पीट उत्सव मना रहा था, आंदोलन के पहले दिन की कवरेज को लगभग गोल ही कर दिया। अमर उजाला ने 23 सितंबर को खबर छापी ‘सप्ताह भर से लिखी जा रही थी धरने की पटकथा’ माने लड़की के साथ हुआ यूं उत्पीड़न भी साजिश था। जागरण ने शीर्षक लगाया “कौन कर रहा साजिश?” आज की फ्रंट पेज की लीड खबर में इसी अखबार ने पहली लाइन में लिखा “छात्राओं की अनसुनी’ से यह घटना घटी। हिंदुस्तान का भी हाल लगभग ऐसा ही रहा। हमारा “पत्रिका” बनारस से प्रकाशित नही होता लेकिन हमने इसे सभी संस्करणों में मुख्य पृष्ठ की खबर बनाया और जो देखा वो लिख दिया। केवल इतना ही नहीं मेरे सभी साथी पिछले तीन दिनों से अपने अखबार के फेसबुक पेज के लिए बेहद सीमित संसाधनों से लाइव कवरेज करते रहे,जिसे अब तक तकरीबन 2 लाख से ज्यादा लोगों ने देखा है। यह कहने में कोई दो राय नही है कि कभी हिंदी पत्रकारिता की राजधानी रहा बनारस आज यहां के अखबारों की धंधेबाजी का शिकार है। वो वक्त बीत गया जब बनारस के अखबार बीएचयू को एक दुनिया और यहां के छात्रों को अपने घर का बच्चा समझते थे,यह समय बेहद कठिन है।”
लाठीचार्ज के अगले दिन 24 सितंबर को सबसे शर्मनाक खबर हिंदुस्तान बनारस ने छापी जिसमें कहा गया था कि पुलिस फोर्स ”आधी-अधूरी तैयारी” के साथ ऑपरेशन करने गई थी। तकरीबन सभी अखबारों में इस बात पर समान चिंता जाहिर की गई थी कि कैसे पुलिसवालों को इस ऑपरेशन में चोट आई और उनके पास अपने बचाव के जरूरी उपकरण और सामान नहीं थे।
एक समय था जब बीएचयू के किसी भी आंदोलन में पत्रकार हमेशा छात्रों के साथ सहानुभूति और एकजुटता के भाव के साथ खड़े होकर रिपोर्टिंग करते थे लेकिन इस बार मामला बिलकुल अलग रहा। ऑपरेशन की रात देखा गया कि तमाम अखबारों के पत्रकार पुलिस सुरक्षा में पीछे-पीछे छुपकर घटनाओं को कवर करते रहे और एकाध को छोड़ दें तो अधिकतर ने परिसर के भीतर छात्रों के बीच जाने और उनका हाल जानने की की जहमत नहीं उठायी।