आइंस्टाइन का मस्तिष्क वैसा ही था, जैसे हमारा है !

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डॉ.स्कन्द शुक्ल

आइंस्टाइन होना आपको वैज्ञानिकों-विज्ञानियों के साथ-साथ अविज्ञानियों-विज्ञानद्रोहियों में भी लोकप्रियता दिलाता है और कई बार ऐसा होना दुर्भाग्यपूर्ण होता है।

वैज्ञानिक को विज्ञान से ऊपर नहीं माना जाता। विज्ञानी नहीं मानते। जो मानते हैं , वे कम-से-कम मान्यता के उस क्षण विज्ञान से पथभ्रष्ट हुए। वैज्ञानिक पथभ्रष्ट नहीं हों , ऐसा नहीं होता। विज्ञान का हाथ अनवरत थाम कर सन्देही जीवन जीना सरल नहीं। भय के अनेकानेक एकान्तिक क्षणों में कम्पन से साथ छूट जाता है।

बहरहाल आइंस्टाइन की लोकप्रियता अभूतपूर्व है , जो उन्हें वैज्ञानिक से अधिक रॉकस्टार का ओहदा दिलाती है। लेकिन यही अन्धी लोकप्रियता उनके विज्ञान को चकाचौंध से आच्छादित कर देती है। व्यक्ति आइंस्टाइन के इर्द-गिर्द बुनी गयी किंवदन्तियों का ऐसा कथोपकथन चलता है कि उनका कृतित्व बिसरा दिया जाता है। यह एक नायक की अवांच्छित सर्जना है ,जो वैज्ञानिक चिन्तन के लिए विष का काम करती है।

विज्ञान में नायक नहीं होते , किरदार होते हैं। वे अपनी भूमिका निभाते हैं और चले जाते हैं। यह एक शृंखला की कड़ियों-सा मामला है , जहाँ हर आइंस्टाइन अपने पहले के किसी मैक्सवेल और आगे के किसी हॉकिंग से जुड़ा पाया जाएगा। आइंस्टाइन आते रहेंगे , जाते रहेंगे। विज्ञान आगे बढ़ता रहेगा , अनवरत।

आइंस्टाइन के सापेक्षता के सिद्धान्तों को ज़्यादातर लोग नहीं समझते , लेकिन यह कहते नहीं अघाते कि वे ईश्वरवादी थे। यह बिना पूरी बात को पढ़े-समझे व्यक्ति आइंस्टाइन की धार्मिक व्याख्या करके उन्हें अपने ख़ेमे में मिला लेना है। देखो तुम्हारा सबसे बड़ा वैज्ञानिक भी परलोक-परमात्मा-जैसे गूढ़ रहस्यों में विश्वास रखता था। वह तुम्हारा देवता-पैग़म्बर है : इसलिए तुम भी करो। तुम उसी की उपासना करते हो न !

क्यों करें ? आइंस्टाइन कोई देवता-पैग़म्बर नहीं। वे एक अदद किरदार निभाने वाले वैज्ञानिक थे जिन्होंने अपने पूर्वजों के ज्ञान के आगे सटीक ताना-बाना बुना और आगे वालों के लिए एक बेहतर वैज्ञानिक वसीयत छोड़ी। लेकिन अपना पूरा जीवन जीने के बाद वे ऐसा लार्जर-दैन-लाइफ़ कल्ट पैदा कर गये , जिसके आगे विज्ञानवादी-कलावादी , दोनों एक-से नतमस्तक नज़र आते हैं।

यह दण्डवत् विनत भाव विज्ञान के साथ बहुत बड़ा छल है। आइंस्टाइन का सच्चा महत्त्व उनके सापेक्षता के सिद्धान्त और उसके मानव-जीवन पर प्रभाव को कम-से-कम स्थूल रूप में ग्रहण करना है। फिर यह भी जानना है कि उन्हें नोबल पुरस्कार इसके लिए नहीं , फ़ोटोएलेक्ट्रिक प्रभाव के लिए मिला था। वह जिसके बारे में आम जनता का संज्ञान न के बराबर है।

आइंस्टाइन होने का दुर्भाग्य स्मृति में उसके बाह्य आवरण की भक्ति को स्थान देकर उसके शोध को विस्मृत कर देना है। भूल जाना है कि वह कहाँ असफल हुआ या हो सकता है , केवल उसकी देह-भंगिमा और जीवनाचार पर मुग्ध रहा करना है। और फिर अचम्भा और विस्मय लिए बात इसपर करनी है कि उसका मस्तिष्क कैसा विलक्षण था ! वह जिसे 1955 में निकाल कर अग्रिम शोध-हेतु रख लिया गया था।

कोई आश्चर्य की बात नहीं कि आइंस्टाइन का मस्तिष्क एकदम साधारण मस्तिष्कों-सा ही निकला। वैसा ही आकार-प्रकार , लगभग वैसी ही कोशिकाएँ। बस ग्लायल कोशिकाएँ थोड़ी ज़्यादा। ये वे कोशिकाएँ हैं , जो तन्त्रिका- कोशिकाएँ नहीं हैं , उनकी सहचरी-भर हैं। आइंस्टाइन का मस्तिष्क मरणोपरान्त पढ़ने वाले भी इसी मोह से ग्रस्त रहे कि वे संसार के महानतम वैज्ञानिक का मस्तिष्क पढ़ रहे हैं। कोई तो बड़ी बात होगी , कुछ तो रहस्य उद्घाटित होगा।

कुछ बड़ा नहीं निकला , कोई रहस्य नहीं मिला। सब कुछ सामान्य , सब कुछ मानवीय।

आइंस्टाइन होने के लिए मस्तिष्क-मेधा के आगे पूज्य भाव में झुके लोगों को आघात लगा। यह आघात बड़े बालों से घिरे रेखाओं से पटे माथे पर उभरी सरल-तरल आँखों से बार-बार इस बात का इशारा था कि सापेक्षता-फ़ोटोएलेक्ट्रिक प्रभाव पढ़कर सहज भाव से आगे नित्य शोध करो। विज्ञान-मार्ग पर मेरे जैसे कई लोग चलते-मिलते रहेंगे।

वे लोग कहाँ हैं जो कहते हैं कि आइंस्टाइन अपने मस्तिष्क का 10 % हिस्सा प्रयोग में लाते थे और साधारण मनुष्य 2-3 % ?

 

 



 

 

पेशे से चिकित्सक (एम.डी.मेडिसिन) डॉ.स्कन्द शुक्ल संवेदनशील कवि और उपन्यासकार भी हैं। इन दिनों वे शरीर से लेकर ब्रह्माण्ड तक की तमाम जटिलताओं के वैज्ञानिक कारणों को सरल हिंदी में समझाने का अभियान चला रहे हैं।