“पत्रकारिता में रिपोर्टिंग का सिस्टम समाप्त हो चुका है। स्टार एंकर अब किसी राष्ट्रीय सवाल को लेकर बैठा होता है। उसकी मेज़ पर अब छोटी-छोटी तक़लीफों के लिए जगह नहीं बची है। रोज़ कोई न कोई गोदी मीडिया के संकट पर लिख रहा है। दस साल से तो मैं ही लिख रहा हूं तबसे लिख रहा हूं जब रिपोर्टिंग भी ढंग से नहीं आती थी। अब लगता है कि समाज ने ही हम सबको किसी अंधेरे मोड़ पर ला खड़ा कर दिया है और अब यह संकट हम पत्रकारों को ही खाने लगा है…”
उस दोपहर बहस इस बात को लेकर हो गई कि अगर किसी नीतिगत या अन्य कारणों से पांच लाख छात्रों की ज़िंदगी प्रभावित है तो यह संख्या इतनी भी कम नहीं है कि सरकार का ध्यान न खींच सके। छात्र कहते रहे कि पांच लाख छात्र हैं, मैं अड़ा रहा कि तो फिर वे कहां हैं। पांच लाख छात्र जब अपनी लड़ाई नहीं लड़ सकते तो उनकी डरपोकता का बोझ मैं क्यों उठाऊं। अब उनका भी क्या दोष जो दो चार की संख्या में अपनी समस्या की फाइलें बनाकर घूम रहे हैं। उनकी इस इच्छाशक्ति का सम्मान तो किया ही जाना चाहिए। यही सोच कर उनसे उनकी फाइलों का पुलिंदा ले लिया। तल्ख़ी और सख़्ती से बात करने का अफ़सोस हुआ तो पीछे मुड़कर उनसे नंबर भी मांग लाया। मेरी ही ग़लती होगी। शायद हर दिन इस तरह की पीड़ाएं देखते-देखते, कुछ को रिपोर्ट करने के बाद भी कुछ नहीं होते देखते-देखते, भीतर ग़ुबार जमा हो गया होगा जो उस दिन फट पड़ा। बिना शर्त उन तीन लड़कों से माफ़ी।
छात्रों का कहना है कि 2011-14 के दौरान यू पी एस सी की परीक्षा के पैटर्न में भेदभावपूर्ण बदलाव किए गए। इस दौरान C-SAT लाया गया, सामान्य अध्ययन के पाठ्यक्रम को बदल दिया गया, अंग्रेज़ी भाषा के प्रश्न पूछे गए, सी-सैट को क्वालिफाइंग पेपर बना दिया गया। केवल पेपर वन को चयन का आधार बना दिया गया। यह सब मई 2015 तक होता रहा। इस बदलाव का प्रभाव यह हुआ कि 4 वर्षों में सी सैट के अंक जुड़ने के कारण ग्रामीण, ग़ैर अंग्रेज़ी माध्यम तथा मानविकी पृष्ठभूमि के छात्रों को नुकसान उठाना पड़ा। इस संदर्भ में छात्रों ने पूरा आंकड़ा भी दिया है।
जहां तक मुझे याद है C-SAT को लेकर हमने भी चर्चा की थी और कई जगहों पर भी छपा, दिखाया भी गया। जिसका कोई मुद्दा नहीं उठाता, उसका मुद्दा उठाने वाले शरद यादव ने सदन में यह बात काफी ज़ोर शोर से उठाया, फिर भी इन छात्रों में से किसी ने दो लाइन शरद यादव पर न लिखी होगी। जबकि हिन्दी माध्यम के छात्रों के लिए शरद यादव ने ही ज़ोरदार तरीके से आवाज़ उठाई। वैसे बत्रा सिनेमा के बाहर कुछ धरना प्रदर्शन हुआ था, जहां से छात्र जब तस्वीर व्हाट्स अप कर रहे थे तब उसमें संघ के नेता भी आ जा रहे थे और शामियाने में संघोनुकूल तस्वीरें भी लगी थीं। उनका कहना था कि इनकी मदद से ही कुछ हो जाए। बिल्कुल जायज़ बात है। मगर लगता है कि कुछ नहीं हुआ।
छात्रों का कहना है कि पहले जब भी कभी यूपीएससी की परीक्षा के पैटर्न में बदलाव किए गए हैं, छात्रों को एक नया अवसर भी दिया गया है। 1979 और 1992 में भी ऐसा हो चुका है। 2011-15 के बीच के बदलावों से लाखों छात्रों के सपने टूट गए,निर्धारित 6 चांस में से 4 चांस बेकार चला गया। इसलिए वे एक और चांस मांग रहे हैं।
इनके समर्थन में सांसदों ने मार्च 2016 में हस्ताक्षर कर सरकार से मांग की थी कि एक और अवसर दिया जाए। दस्तख़त करने वाले सांसदों में सत्ताधारी भाजपा के भी अनेक सांसदों के नाम हैं। एच डी देवेगौड़ा ने तो प्रधानमंत्री मोदी को ही पत्र लिखा है। 31 मार्च 2017 को कांग्रेस के आस्कर फर्नांडिस ने इस मसले पर ध्यानाकर्षण प्रस्ताव लाया होगा जिसके जवाब में केंद्रीय कार्मिक मंत्री जितेंद्र सिंह ने उन्हें जवाब भेजा है। कहा है कि इस मसले पर 23.11.2014 को सर्वदलीय बैठक में एक्सपर्ट कमेटी बनाने का फैसला हुआ था। बैठक के फैसले के अनुसार सरकार 2011 की परीक्षा में बैठने वाले छात्रों को 2015 में बैठने की अनुमति देने का विचार किया मगर ये लोग नहीं बैठ सकते थे क्योंकि कइयों की उम्र सीमा पार हो चुकी थी या कइयों ने अपने सारे चांस की परीक्षा दे ली थी। फिर सरकार के पास प्रस्ताव आया कि 2012, 13, 14 के छात्रों को 2016 में बैठने दिया जाए लेकिन पाया गया कि इन छात्रों को पर्याप्त मौके मिल चुके हैं।
इस तरह सरकार ने अपनी राय भी साफ कर दी है। अब छात्रों को भी तय करना चाहिए कि उनकी मांग जायज़ है या नहीं। हाल ही में लखनऊ में अधीनस्थ सेवा चयन आयोग के परीक्षार्थी इंटरव्यू शुरू करने की मांग को लेकर धरने पर बैठे। पुलिस की लाठी भी पड़ी, और अदालत भी गए। छात्रों का दावा था कि कई परीक्षाओं को मिला दें तो योगी सरकार के फैसले से प्रभावित छात्रों की संख्या तीस हज़ार से ज़्यादा ही होगी। योगी सरकार ने आते ही पिछली सरकार के समय शुरू हुई इंटरव्यू की प्रक्रिया पर रोक लगा दी थी। बहुत से लोग मानते हैं कि पिछली सरकार के समय भ्रष्टाचार हुआ था और रिश्वत चली थी।
इन छात्रों ने मुझे दनादन फोन करना शुरू कर दिया। लगा कि हमला हो गया है। आप भी चुप हैं, आप नहीं बोलेंगे तो कौन बोलेगा। सब मुझसे आधी उम्र के और छोटे भाई के समान। सबसे पूछता रहा कि आप लोग भी मुझे गाली देते रहे हैं? कुछ तो इतने मासूम निकले कि मान भी लिया और कहा कि अब अफसोस हो रहा है। मैंने जीवन में यही सीखा है कि किसी से हमेशा के लिए नाराज़ नहीं होना चाहिए। उनसे कई दिनों तक बातें होती रही। कहा भी आप बड़े प्लेटफार्म पर जाइये जहां करोड़ों दर्शकों के देखने का दावा किया जाता है। सबने कहा कि हमारी कोई नहीं सुनता है। आप दिखा दीजिए। दिखा भी दिया लेकिन उनसे कहा था कि अगर इतनी ही शिकायत है कि मीडिया नहीं दिखाता तो दिखा देता हूं मगर आगे तुम समझना। नौकरी मिली या नहीं, मिलेगी या नहीं, नहीं जानता, मगर दिखाने के बाद उनकी प्रतिक्रिया से ये ज़रूर लगा कि मामूली कदम उठाने से भी समाज में कितना ज़्यादा भरोसा बन जाता है।
सुबह से लेकर शाम तक देश के अलग-अलग हिस्सों से लोग फोन कर कहने लगते हैं कि आप नहीं करेंगे तो कौन करेगा।सबका सुनते-सुनते लगता है कि पत्रकारिता का अपराधी मैं ही हूं। रोज़ हाथ से लिखी हुई दस बीस चिट्ठियां आती हैं। उनमें तकलीफ़ों की गाथा लिखी होती है। ऐसे ऐसे घोटाले होते हैं कि उन्हें परखने के लिए वक्त और लोग नहीं होते। सबको पढ़ते-सुनते कई बार बीमार सा महसूस करने लग जाता हूं। कोई कितनी उम्मीद से किसी पत्रकार को लिखता होगा। ज़ाहिर है सबकी उम्मीदों पर खरा न उतरने की निराशा ख़ुद को भी भीतर से छिलती है। हर प्राइम टाइम के बाद देर रात तक उसके सवाल जगाते रहते हैं।
ऐसा नहीं कि ऐसी सारी ख़बरें हमी करते हैं,अखबारों में छप रही हैं, चैनलों पर भी चलते ही होंगे, मैं न्यूज़ चैनल नहीं देखता इसलिए दावे से नहीं कह सकता कि बिल्कुल ही नहीं चलता होगा,फिर भी यह सवाल सबके लिए हैं कि छपने-दिखने के बाद असर क्यों नहीं होता है? क्या इसलिए नहीं होता है कि आप पर भी किसी दूसरे की तक़लीफ़ का असर नहीं होता है?
कई बार अजीब लगता है कि जिस सरकार को चुनते हैं उस पर किसी प्रकार का अपराध बोध नहीं डालते हैं,एक पत्रकार को पकड़कर उस पर सारी उम्मीदें लाद देते हैं। मेरा रोज़ का एक घंटा कई लोगों को यह समझाने में में जाता है कि प्राइम टाइम करने के लिए रोज़ कई घंटे पढ़ने पड़ते हैं, मेरे पास वक्त नहीं है, मैं औरंगाबाद, ओरछा, बीरभूम,बीकानेर नहीं जा सकता। यह इसलिए लिख रहा हूं ताकि आप भी जानिये कि हम किन मानसिक हालात से गुज़रते हैं। कभी हमारे भीतर भी इंसान समझ कर झांक लिया कीजिए।
क्या यह उचित है कि आप अपनी अवसरवादिता या आलस्य का बोझ किसी एक पर रात-दिन डालते चलें। मैं छुट्टियां तक नहीं बिता पाता। दिन रात लोगों के फोन उठाने में लगा रहता हूं। हर फोन या तो मां-बहन की गाली की होती है या फिर किसी भयंकर पीड़ा की। ऐसा क्या किया है और ऐसा इस राजनीति ने क्या कमाल कर दिया है कि उसके समर्थन में लोग फोन कर मां-बहन की गालियां बकते हैं। लोगों से पूछता हूं कि आप आंदोलन क्यों नहीं करते हैं, विधायक-सांसद को ज्ञापन क्यों नहीं देते हैं, ये लोग किस लिए हैं, तो जवाब मिलता है कि सरकार के ख़िलाफ़ बोलो तो आप समझते ही हैं। बताइये लोग ही याद दिला जाते हैं। जब सबको चुप ही रहना है तो फिर चुप्पी को राष्ट्रीय मुद्रा घोषित कर देनी चाहिए। एक चुप्पी दिवस मने, उस दिन भारत की जनता दिन-भर चुप रहेगी। डर का भी जश्न मनाया जाना चाहिए।
आज सुबह एक वृद्ध नाना-नानी घर आ गए। उनके नातिनों को स्कूल वाले ने निकाल दिया है। समधन का आपरेशन हुआ और उसके तुरंत बाद दामाद की एंजियोप्लास्टी हुई थी तो समय पर फीस न दे सके। देने में देर हो गई और दे भी दिया लेकिन दिल्ली के इस स्कूल ने निकाल दिया। अब वो स्कूल न तो टीसी दे रहा है न बाकी क़ाग़ज़ात ताकि दूसरे स्कूल में एडमिशन हो सके। स्कूल खुल चुके हैं और पांच साल की बच्ची घर बैठकर रो रही है। दूसरी दसवीं में पढ़ती है, उस पर कितना गहरा मनोवैज्ञानिक असर पड़ा होगा। प्रिसिंपल माता-पिता को प्रताड़ित कर रही है। सामने बैठे नाना-नानी की लाचारी देखी नहीं गई। प्राइवेट स्कूलों ने हर जगह के शहरी समाज को ग़ुलाम बना लिया है और समाज ने ग़ुलामी स्वीकार भी कर ली है।
नाना-नानी जिस वक्त घर आए, उस वक्त मैं बुख़ार से कांप रहा था। उनकी हालत देखी नहीं गई। मेरा ज्वर और बढ़ गया, तीन-चार घंटे लग गए सामान्य होने में। टीवी में संसाधनों की चुनौती भी कठोर वास्तविकता है। न तो अब रिपोर्टर बचे हैं और जो बचे हैं, उनमें से ज़्यादातर ए एन आई की बाइट लेकर टाई-कोट पहनकर अपना दिन काट लेते हैं। उन्हें अपनी सेटिंग से मतलब है कि सरकार सुन ले कि उनके फेवर में ये लाइन बोल दी है। कभी किसी को अतिरिक्त मेहनत करते नहीं देखा कि लोगों की परेशानी है, दो रात जाग लेते हैं। कई बार सोचता हूं टीवी में बहुतों का काम मुफ्त में चल गया और नाम हो गया सो अलग।
पत्रकारिता में रिपोर्टिंग का सिस्टम समाप्त हो चुका है। स्टार एंकर अब किसी राष्ट्रीय सवाल को लेकर बैठा होता है। उसकी मेज़ पर अब छोटी-छोटी तक़लीफों के लिए जगह नहीं बची है। रोज़ कोई न कोई गोदी मीडिया के संकट पर लिख रहा है। दस साल से तो मैं ही लिख रहा हूं तबसे लिख रहा हूं जब रिपोर्टिंग भी ढंग से नहीं आती थी। अब लगता है कि समाज ने ही हम सबको किसी अंधेरे मोड़ पर ला खड़ा कर दिया है और अब यह संकट हम पत्रकारों को ही खाने लगा है।
बुख़ार की हरारत में जब यह लिख रहा था,इस दौरान एक नंबर से बार-बार फोन आ रहा था। आमतौर पर ऐसा ट्रोल करते हैं। फोन उठा लिया तो उधर से आती हुई आवाज़ काँप रही थी। मैं पंजाब के गाँव से बोल रहा हूँ। किसान हूँ, खेत में ही बैठा हूँ, मेरे साथ खेत मज़दूर भी हैं,उनकी हालत मुझसे भी ख़राब है। रवीश कुमार जी, मुझे हिन्दी नहीं आती, फिर भी आपकी बात समझ आ गई है जी। हिन्दू मुस्लिम का मुद्दा देश को बाँटने के लिए है। हम किसानों का इससे कोई फायदा नहीं है जी।
हम बहुत तकलीफ में हैं। आप पंजाब के गाँवों में आओ,हम ले चलेंगे। आप सही बात करते हैं जी।
गालियों और उम्मीदों के बीच इस एक फोन ने थोड़ी देर के लिए बुख़ार उतार दिया। शायद इसी एक फोन के लिए अपना नंबर नहीं बदलता। गाली देने वाले तो फिर भी मेरा नया नंबर ढूँढ लेंगे, ऐसे किसी शरीफ़ नागरिक का हक़ मारा जाएगा। मैं उनसे दूर हो जाऊँगा।
मशहूर पत्रकार और टीवी ऐंकर रवीश कुमार का यह लेख उनके ब्लॉग कस्बा से साभार प्रकाशित।