राना अयूब के कविता प्रेम ने कवि और रमेश दोनों को मार डाला

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अभिषेक श्रीवास्‍तव

अपने दिल की बात कहने के लिए किसी उपयुक्‍त कविता का इस्‍तेमाल सदियों पुरानी रवायत है। आपके दिल में कुछ चल रहा हो और आपके पास शब्‍द न हों। आप तुरंत गूगल करते हैं, एकाध उपयुक्‍त पंक्तियां उठाते हैं और अपनी प्रोफाइल पर चेप देते हैं। पहले गूगल नहीं था तो यह काम थोड़ा मुश्किल होता था। इसके लिए किताबें या लेखक याद रखने पड़ते थे। पन्‍ने पलटने होते थे। वहां से सही लाइनें छांट कर उसे लिखकर रख लिया जाता था और महफि़ल में वाहवाही लूटी जाती थी। तब सोशल मीडिया भी नहीं था, इसलिए हड़बड़ी भी नहीं थी।

इस हड़बड़ी में गड़बड़ी बहुत आम हो चली है। कोई कहीं से किसी की पंक्ति उठाकर चेप देता है। इस काम में आम से लेकर खास तमाम लोग लगे हुए हैं। किसी को कोई खास गिला-शिकवा नहीं है। कोई ऐसी गड़बडि़यों को अब गंभीरता से नहीं लेता है। शायद यही वजह है कि मशहूर पत्रकार राना अयूब ने रघुवीर सहाय की एक कविता की पंक्ति जब फि़राक़ के नाम से ट्विटर पर आधी-अधूरी और अंग्रेज़ी में अनुदित पोस्‍ट की और उस पर मैंने प्रतिवाद किया, तो बारह घंटा बीत जाने पर भी उनका जवाब या कोई खेद नहीं आया है।

शनिवार को राना अयूब ने ये लिखा:

ये पंक्तियां हिंदी के मशहूर कवि-संपादक रघुवीर सहाय की कविता ‘आने वाला खतरा’ (1974) की आखिरी पंक्तियां हैं:

”…क्रोध होगा पर विरोध न होगा
अर्जियों के सिवाय – रमेश
ख़तरा होगा ख़तरे की घण्टी होगी
और उसे बादशाह बजाएगा – रमेश”

बरसों से होता आया है कि एक आम पाठक रघुपत सहाय उर्फ फि़राक़ गोरखपुरी और रघुवीर सहाय के बीच समान लगाने वाले नाम के चलते भ्रमित हो जाता है। ऐसे में राना अयूब भी रघुवीर सहाय को फि़राक़ समझ बैठें तो क्‍या फ़र्क पड़ता है। फ़र्क नड़ता है तो ‘रमेश’ से, जो ट्वीट में सिरे से गायब है। यहीं क्‍यों, गूगल पर अगर आप इस कविता का शीर्षक लिख कर खोजें तो कई जगह आखिरी पंक्तियों में रमेश को गायब पाएंगे। रमेश यानी इस देश का एक अदना सा नागरिक, जिससे उसकी नागरिकता के अधिकार छीन लिए गए हैं और उसे इस बात का अहसास तक नहीं है।

एक कविता को गलत उद्धृत किया जाना मामूली बात जान पड़ सकती है, लेकिन पढ़े-लिखे लोगों से इसकी उम्‍मीद नहीं की जाती। इससे ऐसा लगता है कि हिंदी वाकई ‘एक दुहाजू की नई बीवी है” (रघुवीर सहाय) जो ”पसीने से गंधाती जा रही है” और ”घर का माल मैके पहुंचाती जा रही है”। अंग्रेज़ी वालों को समझना चाहिए कि कविता लिखने का काम केवल फ़ैज़, फि़राक़ या नज़ीर के जिम्‍मे नहीं था, एक रघुवीर सहाय या कोई अज्ञेय या मुक्तिबोध भी हुआ करता था।

मुझे लगता है कि फि़राक़ के नाम का इस्‍तेमाल केवल एक तथ्‍यात्‍मक त्रुटि नहीं है। इसके पीछे थोड़ा सेकुलरपंती भी काम कर रही है जो मानकर चलती है कि गंगा-जमुनी तहज़ीब सी दिखने वाली पंक्तियां और राज्‍य को चुनौती देने वाली आवाज़ें नुक्‍ते वाले नामों की ही हो सकती हैं। यह बात चाहे कितनी ही बुरी क्‍यों न लगे, लेकिन एक महीन ग्रंथि है जो राना अयूब सरीखे लेखकों-पत्रकारों के भीतर दिन-रात मशीन सी काम करती रहती है। ठीक उसी तर्ज पर जैसे मनिका गुप्‍ता सरीखे पत्रकारों को तमिल ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए नास्तिक कमल हसन मुसलमान समझ में आते हैं। क्‍या फ़र्क रह जाता है इन दोनों पत्रकारों में? एक रघुपत सहाय को ‘फिराक़’ समझती है तो दूसरी कमल पार्थसारथी ‘हासन’ को ‘हसन’?

बहरहाल, मौका है और मौसम भी। इसलिए रघुवीर सहाय की कविता को आइए पूरा पढ़ लेते हैं।


आने वाला खतरा

रघुवीर सहाय (1974)

इस लज्जित और पराजित युग में
कहीं से ले आओ वह दिमाग़
जो खुशामद आदतन नहीं करता

कहीं से ले आओ निर्धनता
जो अपने बदले में कुछ नहीं माँगती
और उसे एक बार आँख से आँख मिलाने दो

जल्दी कर डालो कि पहलने-फूलनेवाले हैं लोग
औरतें पिएँगी आदमी खाएँगे – रमेश
एक दिन इसी तरह आएगा – रमेश
कि किसी की कोई राय न रह जाएगी – रमेश
क्रोध होगा पर विरोध न होगा
अर्जियों के सिवाय – रमेश
ख़तरा होगा ख़तरे की घण्टी होगी
और उसे बादशाह बजाएगा – रमेश