अपनी पैदाइश से ही रिपब्लिक टीवी जिस वजह से आलोचना का शिकार होता रहा, वह वजह 31 मार्च को समाप्त हो गई। चैनल की प्रवर्तक कंपनी एआरजी आउटलायर एशिया न्यूज प्रा. लि. के मुख्य निवेशक राजीव चंद्रशेखर ने कंपनी के बोर्ड निदेशक के पद से इस्तीफ़ा दे दिया है।
चंद्रशेखर ने यह फैसला इसलिए लिया क्योंकि हाल ही में वे बीजेपी से सांसद बने हैं। उन्होंने इस आशय का एक प्रेस वक्तव्य अपनी ट्विटर टाइमलाइन पर जारी किया है।
Im happy n privileged to hv been associated with @republic all these months ! I wish #Arnab n his team the very best 👍🏻 pic.twitter.com/KwPP0BSP9u
— Rajeev Chandrasekhar 🇮🇳 (@RajeevRC_X) April 2, 2018
चंद्रशेखर ने कहा है कि वे जब तक स्वतंत्र तौर पर राज्यसभा सांसद थे तब तक वे रिपब्लिक से जुड़े रहे लेकिन अब चूंकि वे एक पार्टी से जुड़ गए हैं तो यह रिपब्लिक टीवी के ब्रांड के साथ न्याय होगा कि वे उसके साथ न रहें।
तकनीकी रूप से चंद्रशेखर भले ठीक कह रहे हों कि वे पहले बीजेपी से नहीं जुडे और निर्दलीय सांसद थे, लेकिन यह सार्वजनिक तथ्य है कि वे केरल में एनडीए के उपाध्यक्ष पद पर थे। जाहिर है एनडीए की मुख्य संचालक पार्टी बीजेपी ही है। इसी वजह से उनके रिपब्लिक टीवी में पैसा लगाने और अर्णब गोस्वामी के साथ चैनल शुरू करने पर हितां के टकराव को लेकर सवाल भी उठे थे।
मीडियाविजिल ने 26 जनवरी 2017 को रिपब्लिक की लांचिंग के मौके पर लिखा था:
”मसला केवल निवेश का नहीं है बल्कि इस गणतंत्र को लेकर जैसी परिकल्पना इसके मालिकों ने रची है, उसी हिसाब से अपना गणतंत्र रचने के लिए उन्हें कामगार फौज की भी तलाश है। इंडियन एक्सप्रेस की 21 सितंबर की एक ख़बर के मुताबिक चंद्रशेखर की कंपनी जुपिटर कैपिटल के सीईओ अमित गुप्ता ने अपनी संपादकीय प्रमुखों को एक ईमेल भेजा था जिसमें निर्देश दिया गया था कि संपादकीय टीम में उन्हीं पत्रकारों को रखा जाए ”जिनका स्वर दक्षिणपंथी हो”, ”जो सेना समर्थक हों”, ”चेयरमैन चंद्रशेखर की विचारधारा के अनुकूल हों” और ”राष्ट्रवाद व राजकाज” पर उनके विचारों से ”पर्याप्त परिचित” हों।
बाद में गुप्ता ने हालांकि इस ईमेल को ”इग्नोर” करने के लिए एक और मेल लिखा, लेकिन बंगलुरू में अंडर 25 समिट में अर्नब ने अपने रिपब्लिक के पीदे का विचार जब सार्वजनिक किया तो यह साफ़ हो गया कि टीवी के इस नए गणतंत्र को दरअसल वास्तव में बजरंगी पत्रकारों की एक ऐसी फ़ौज चाहिए जो मालिक के कहे मुताबिक दाहिनी ओर पूंछ हिला सके। अर्नब का कहना था कि वे लुटियन की दिल्ली की पत्रकारिता से पत्रकारिता को बचाने का काम करेंगे क्योंकि वे लोग समझौतावादी हैं और उन्हें जनता का प्रतिनिधित्व करने का कोई हक़ नहीं है।
क्या वास्तव में पत्रकार जनता का प्रतिनिधि हो सकता है? अगर चैनल ‘रिपब्लिक’ हो सकता है तो पत्रकार उसका प्रतिनिधि भी हो सकता है। ज़ाहिर है, सच्चा प्रतिनिधि वही होगा जो रिपब्लिक के मालिकान की अवधारणा के साथ हो।
बहरहाल, इंडियन एक्सप्रेस ने जब लिखकर अर्नब से यह सवाल पूछा कि क्या उनके मालिक चंद्रशेखर का चैनल में निवेश हितों का टकराव नहीं है क्योंकि वे खुद रक्षा सौदों से जुड़े हैं और रक्षा पर संसद की स्थायी समिति के सदस्य भी हैं साथ ही रक्षा मंत्रालय की परामर्श समिति में भी हैं। इस पर अर्नब की ओर से अख़बार को कोई जवाब नहीं मिला।”
अब हो सकता है कि राजीव चंद्रशेखर के रिपब्लिक के बोर्ड से हटने के बाद पिछले एक साल के दौरान उठे तमाम सवालों के जवाब अर्णब गोस्वामी दे सकेंगे, लेकिन इस अवधि में चैनल ने अपने नाम का सहारा लेकर गणतंत्र को तोड़ने की जो कार्रवाइयां की हैं और साजिशें रची हैं, क्या चंद्रशेखर का इस्तीफे उनका जवाब भी दे पाएगा? क्या अर्णब राष्ट्रवाद की सलीब अकेले दम पर ढो पाएंगे?