राजस्थान की ‘विनय पत्रिका’ और ‘भजन’ मीडिया के गुलाब !

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विष्णु राजगढ़िया

भारतीय लोकतंत्र की विभिन्न संस्थाओं का तेजी से पतन हुआ है। मीडिया का पतन कुछ ज्यादा ही साफ दिखता है। उदाहरणों की भरमार है। फिलहाल एक पर ही चर्चा काफी होगी।

भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने 21 जुलाई को जयपुर में कार्यकर्ताओं के साथ बैठक की। विधानसभा चुनाव को युद्ध का दर्जा दिया। बोले- “युद्ध ढोल नगाड़ा बजाकर होता है, भजन गाकर नहीं।”

लोकतंत्र में चुनाव को ‘युद्ध’ बताने और उसी राजस्थान में मॉब लिंचिंग का प्रसंग अलग चर्चा का विषय है। यहां बात मीडिया की।

इस बैठक की खबर ‘राजस्थान पत्रिका’ में कुछ ज्यादा ही उत्साह के साथ छपी। प्रथम पृष्ठ की लीड खबर बनना गलत नहीं। लेकिन लीड के साथ ‘अमित शाह और पत्रिका’ शीर्षक बॉक्स गजब है।

बॉक्स की खबर देखें- “अमित शाह ने बैठक में कहा कि चुनाव के दौरान ऐसा माहौल बनाएं कि राजस्थान पत्रिका को भी लिखना पड़े कि यहां भाजपा की सरकार बनने जा रही है।”

अगर किसी नेता ने आपके अखबार का नाम ले लिया, तो ख़ुशी से उछलकर कुँए में कूद जाएंगे महराज?

मीडिया के इस ‘भजन काल’ में राजस्थान पत्रिका को अमित शाह की बात चरणामृत जैसी लगी। संपादक भावविभोर है। धन्य, कृतज्ञ अखबार लिखता है-

“अमित शाह की इस टिप्पणी को राजस्थान पत्रिका अपने निष्पक्ष आचरण का प्रमाण मानती है। उनकी जानकारी के लिए बता दें कि हमने पिछले दिनों ही प्रथम पृष्ठ पर संपादकीय लिखकर स्पष्ट कहा था कि तीनों राज्यों राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा को कोई खतरा नहीं है। अमित शाह से आग्रह है कि वह राजस्थान पत्रिका नियमित रूप से पढ़ते रहें। तब उन्हें लगेगा कि राजस्थान पत्रिका पक्ष या विपक्ष किसी भी दबाव में नहीं लिखती। उसका आकलन स्वतंत्र और निष्पक्ष होता है।”

इस आत्ममुदित टिप्पणी के साथ बॉक्स में 23 जून 2018 को राजस्थान पत्रिका में प्रकाशित गुलाब कोठारी की टिप्पणी ‘बदलता लोकतंत्र’ का एक अंश भी प्रकाशित किया गया है। उसमें लिखा गया है-

“राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और हरियाणा के चुनाव सिर पर हैं। नए गठबंधन, नए समीकरण चर्चा में हैं। वहीं कांग्रेस मुक्त भारत अभियान हिलोरे ले रहा है। भाजपा सत्ता में है, निश्चिंत है। उसे कहीं कोई खतरा दिखाई नहीं पड़ रहा। कांग्रेस पूरा दम लगाकर भी गुजरात और कर्नाटक में जीत दर्ज नहीं करा पाई। ठीक वही परिणाम आगे भी आने वाले हैं। सीटों का अनुपात भी लगभग वही रहेगा। कर्नाटक में तो कांग्रेस को तिनके का सहारा मिल गया। राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में ऐसा कोई विकल्प मिलने वाला नहीं है। सभी तालाब सूखे पड़े हैं। अधिकांश दिग्गज पिछले चार सालों में धराशाई हो चुके हैं।”

कोई भी नागरिक इसे पढ़कर समझ लेगा। यह निष्पक्ष पत्रकारिता नहीं। यह लालच, चापलूसी, पक्षपात और दलाली की भाषा है। ऐसे मीडिया संस्थान का वश चले तो चुनाव की जरूरत ही नहीं। इतना जजमेंटल होकर लिखना निष्पक्षता नहीं।

किसी नेता ने एक अखबार का नाम ले लिया, तो इस पर संपादक का बल्लियों उछलना शर्मनाक है। इस पर अपनी स्वामीभक्ति का प्रदर्शन करने के लिए पूर्व प्रकाशित अंश को पुन: प्रकाशित करना हास्यास्पद है। अमित शाह से यह आग्रह करना भी शर्मनाक है कि आप राजस्थान पत्रिका नियमित रूप से पढ़कर हमें निष्पक्षता का प्रमाण देते रहें। अमित शाह के साथ अखबार का संबंध अगर स्वामी और दास का हो, तब भी इसका यह भोंडा प्रदर्शन लालच, चापलूसी और मूर्खता की पराकाष्ठा है।

डरिये, कि हम अच्छे दिनों की पत्रकारिता के सबसे बुरे दिनों के गवाह हैं।

कल्पना करें, इन राज्यों में चुनावी नतीजा अलग आया, तो ऐसे संपादक शर्म से डूब मरने की बजाय दांत निपोरने के कौन से तर्क निकालेंगे!

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। राँची में रहते हैं।