प्रसून के ‘दस्तक’ पर टीवी टुडे संपादकों की कैंची ! पेट्रोल क़ीमत पर ईरानी-मोदी की बाइट उड़ाई !

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13 सितंबर को रात दस बजे, ‘आज तक’ पर पुण्य प्रसून वाजपेयी ने अपने कार्यक्रम ‘दस्तक’ में पेट्रोल-डीज़ल की बढ़ती क़ीमतों पर सवाल उठाया। कार्यक्रम शुरू होते ही सूचना एवं प्रसारण मंत्री स्मृति ईरानी का 2010, और प्रधानमंत्री मोदी का 2012 का बयान दिखाया गया जिसमें वे मुल्यवृद्धि की तीखी आलोचना कर रहे हैं। लेकिन आजतक के ट्विटर हैंडल पर इस कार्यक्रम की जानकारी देते हुए जो तीन मिनट का वीडियो लगाया गया उससे ये दोनों बाइट ग़ायब हैं।

 

और जब आप ट्विटर पर दिए गए लिंक को क्लिक करते हैं तो पता चलता है कि कार्यक्रम मौजूद नहीं है।

 

प्रसून के अंदाज़ में कहें तो ज़ाहिर है…ज़ाहिर है….ज़ाहिर है.. यह कोई सामान्य बात नहीं है। ऐसा किसी के निर्देश पर ही किया गया होगा। हद तो यह है कि अगर प्रसून का कार्यक्रम कोई ‘आज तक’ की वेबसाइट पर देखना चाहिए तो आसानी से उसे मिलेगा ही नहीं। ‘दस्तक’ लिखने पर पता चलता है कि 15  जुलाई के बाद कोई अपडेट ही नहीं है। फिर कहाँ खोजा जाए दस्तक । अगर क़िस्मत अच्छी हो तो कभी-कभी ‘कार्यक्रम’ कैटिगरी में यह दिख जाता है।

 

 

तो क्या प्रसून का रंग-ढंग आज तक के मौजूदा निज़ाम को रास नहीं आ रहा है। लेकिन अगर टीवी टु़डे मालिक अरुण पुरी के स्तर पर ऐसा होता तो प्रसून ‘आज तक’ में होते ही क्यों ? असलियत तो यह है कि प्रसून दो बार छोड़कर जाने के बावजूद वापस ‘आज तक’ में हैं तो यह अरुण पुरी की इच्छा थी। पुराने दौर के खाँटी हिंदी पत्रकार की झलक देने वाला प्रसून का तेवर काफ़ी पसंद किया जाता था। तो क्या यह टीवी टुडे के संपादकों की मर्ज़ी है। संपादक यानी  सुप्रिय प्रसाद और राहुल कँवल।

 

शुरुआत से ही, पर्दे पर हाथ मलते हुए आने के अलावा प्रसून बाजपेई की ख़ास पहचान एक शब्द से होती रही है और वह है- सरोकार !

‘सरोकार’ सिर्फ़ शब्द नहीं है, प्रसून के नाम के साथ चिपके तख़ल्लुस की तरह है। यही वजह है कि जब टीवी न्यूज़ इंडस्ट्री के तमाम संपादक चकमक दुनिया की जगर-मगर को टीआरपी का मंत्र मान चुके हैं, प्रसून गाँव, ग़रीब, खेत-खलिहान की बात करते हैं और टीआरपी भी बटोरते हैं। वे समस्याओं के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को रखते हुए सत्ता को आईना दिखाना पसंद करते हैं। कोई कह सकता है कि प्रसून ने अपनी ऐसी ही ब्रांडिंग की है और बाज़ार मे इसका मोल है।

पर यह सिर्फ़ ब्रांडिंग का भी मसला नहीं है।  कम ही टीवी ऐंकर लिखने-पढ़े में यक़ीन रखते हैं, लेकिन एस.पी.सिंह की टीम ‘आज तक’ से जुड़कर पहचान बनाने वाले प्रसून ने लिखने का मूल कर्म कभी नहीं छोड़ा। पत्र-पत्रिकाओं में उनके लंबे-लंबे लेख प्रकाशित होते रहे हैं और वे शायद अकेले पत्रकार हैं, जिन्हें टीवी और प्रिंट, दोनों के लिए प्रतिष्ठित रामनाथ गोयनका पुरस्कार मिला है। वे जो बातें टीवी पर नहीं कह पाते, उन्हें अपने ब्लॉग में लिख डालते है।

यूँ तो प्राइम टाइम एंकर बतौर प्रसून चैनल की ताक़त होने चाहिए थे। लेकिन ऐसा लगता है कि  संपादकों को प्रसूनवाणी से काफ़ी परेशानी हो रही है (हो सकता है कि दबाव में हों)। पिछले दिनों जब अमित शाह राजस्थान दौरे पर गए जा रहे थे तो पांच सितारा तैयारियों को लेकर प्रसून की दस्तक ने काफ़ी खलमंडल मचाया था। अमित शाह के कार्यक्रम का पूरा रंग बदल दिया गया था। कहा जाता है कि उस समय बीजेपी आलाकमान ने टीवी टुडे के ख़ास लोगों को काफ़ी सुनाया था।

बहरहाल, समस्या किसी के सुनाने में नहीं सुनने में है। और सुनने की आतुरता तो इस मशहूर तस्वीर में ही दिखती है जहाँ राहुल कँवल और सुप्रिय प्रसाद, भीड़ में आगे पीछे धँसे हुए मोदी जी का प्रवचन ले रहे हैं। यह बात भूलनी नहीं चाहिए कि उस समय पीएम और संंपादकों के बीच में एक रस्सा था। देश के तमाम बडे संपादक उस बाड़ में स्वेच्छा से थे।

राहुल कँवल ‘इंडिया टुडे’ के मैनेजिंग एडिटर हैं लेकिन ‘आज तक’ के इनपुट हेड हैं और सुप्रिय प्रसाद ‘आज तक’ के मैनेजिंग ए़डिटर और ‘इंडिया टु़डे’ के आउटपुट हेड। अरुण पुरी ने पता नहीं क्या सोचकर यह कैंची फँसाई होगी,  लेकिन फिलहाल दोनों का शुमार ‘गोदी संपादक’ की सूची में ही किया जाता है। जब ‘स्व-इच्छा’ और सरकार का दबाव एक ही लाइन पर हो तो फिर कैंची भी एक ही लाइन पर चलेगी। प्रसून के सरोकारों और ज़िम्मेदार चेहरों की शिनाख़्त करने की कोशिश को बिलांग-बिलांग कर काटते जाने का राज़ भी यही है।

यह संयोग नहीं कि प्रसून बाजपेई के ‘दस्तक’ का ना कोई प्रोमो आता है और ना उसे सोशलमीडिया में ही ख़ास प्रचारित किया जाता है। और अगर कोई प्रचारित करे भी तो लिंक में कार्यक्रम का गला कटा मिलता है।

बहरहाल, प्रसून दस्तक दे रहे हैं, देते भी रहें शायद। लेकिन अगर टीवी टुडे संपादकों ने किवाड़ की जगह दीवार चुनवा दी है तो वह बेचारा दर्शक क्या करे जो सरोकार की वजह से प्रसून का कार्यक्रम नेट पर खोजता है।

संपादकों के हाथ में ऐसी कटारी..

क्रांतिकारी !…बहुत क्रांतिकारी…!!

 

.बर्बरीक