एनडीटीवी में कार्यरत वरिष्ठ पत्रकार प्रियदर्शन की छवि एक संवेदनशील कवि की है, लेकिन इधर उन्होंने एक उपन्यास के ज़रिये टीवी पत्रकारों की ज़िंदगी के तनाव और उहापोह को सामने रखा है जो यूँ पर्दे की रंगीन रोशनी के पीछे छिपी रहती है। उपन्यास का नाम है ‘ज़िंदगी लाइव’ जिसे जगरनाट ने छापा है। उपन्यास इन दिनों चर्चा में है। पेश है पत्रकार पंकज कौरव की लिखी उपन्यास की समीक्षा–
26/11 मुंबई हमले घटनाक्रम से शुरू हुआ प्रियदर्शन का उपन्यास ‘जिन्दगी लाइव’ दो साल के मासूम की किडनैपिंग की मार्मिक कहानी है। वह मासूम एक पत्रकार दंपति की बजाय हमले में घायल के इलाज़ में लगे किसी डॉक्टर दंपति या फिर किसी नौकरशाह या फिर किसी बड़े पुलिस ऑफिसर का बेटा भी हो सकता था। तब भी शायद कहानी के मुख्य घट्नाक्रम में खास बदलाव नहीं होता। लेकिन तब पिछले 15 सालों में कुकुरमुत्ते की तरह उभरे मीडिया तंत्र को बेनकाब कर पानाभला कैसे संभव हो पाता? कुछ करोड़ की लागत से आये दिन खुलने वाले नित नये छोटे-बड़े न्यूज़ चैनलों की पोल कैसे खुलती? उससे जुड़े माफियाराज का चेहरा सबके सामने कैसे आता? और क्या संचार के सबसे सशक्त माध्यम पर हुये राजनैतिक अतिक्रमण का यह स्याह सच इसतरह हिन्दी लेखन के इतिहास में अपनी आमद दर्ज कर पाता…?
‘ज़िन्दगी लाइव’ से पहले, कामयाब या नाकाम ही सही ऐसी कोशिश, यह छटपटाहट कहीं नज़र नहीं आती, जैसी प्रियदर्शन के लेखन में नज़र आयी है। इस तरह का कारगर प्रयास सिर्फ 1983 की फिल्म ‘जाने भी दो यारों’ और 1986 में आयी ‘New Delhi Times’ में दिखा था। उन फिल्मों को आम लोगों से सराहना भी मिली और नेशनल अवॉर्ड जैसे पुरस्कारों ने उनके रचनात्मक प्रभाव को प्रमाणित भी किया। पर पिछले तीन दशकों में, खासकर पिछले दो दशक जिनमें सदी के पहले दशक की शुरूआत मीडिया क्रांति के तौर पर हुई थी, वह जल्द ही संचारक्रांति के नाम पर फुस्स क्यों हो गयी? पिछले दशक के मध्य से न्यूज़ चैनलों पर कभी नाग-नागिन, सांप-सपेरों का नाच चलता दिखा तो कभी भूत-प्रेत और दूसरे अंधविश्वासों पर कार्यक्रमों की होड़ नज़र आई। खबरें दिखाने वाले देखते ही देखते खबरों को खेल बना बैठे। बहाना यह कि जो न्यूज चैनल ऐसे नट-करतब दिखायेगा वही टीआरपी के नये कीर्तिमान बना पायेगा। जनता के हाथ में टीवी का रिमोट होते हुये यह सारी नौटकी हास्यास्पद रही, लेकिन उस पत्रकार का क्या जो पत्रकारिता की पढ़ाई में सिखाये गये मूल्यों को ताक पर रखने को मजबूर हुआ?
वाकई इस पूरे दौर में तकनीक के विकास के अनुपात में मीडिया का वैचारिक उत्थान कहीं ज्यादा होना चाहिये था, जबकि वह धूसर हुआ है। सबकुछ अब सचमुच बेहद यांत्रिक हो चला है। उपन्यास की मुख्यपात्र सुलभा, जो एक नैशनल न्यूज़ चैनल की एंकर है, वह खबर पढ़ते हुये खुद को खबर पढ़ने की मशीन की तरह महसूस करती है। यह बिंब प्रियदर्शन ने संभवत: संवेदना के उसी स्तर की पीड़ा में गोता लगाकर खोजा होगा। सोच विचार, आचार व्यवहार सभी कुछ बेहद यांत्रिक हो चला है। लेखक और पत्रकार भी सिर्फ घर की बैठक और दफ्तरों में जमने वाली चौकड़ी के दौरान ‘सिस्टम’ को कोसने का काम करते हैं, फिर कुछ देर बाद वापस उसी सिस्टम में एक जरूरी पुर्जा बनकर शामिल नज़र आते हैं। क्या यह कोई मशीनी व्यवहार नहीं? गैर-पत्रकार भी सहजता से बिना किसी फर्क ऐसा कर लेते हैं। चाय के नुक्कड़ों पर पॉलिटिकल और सोशल डिबेट होता है, और अगले ही पल काम धंधे पर वापस। यह कैसे कुचक्र में फंसा है आज का पत्रकार? तीन शिफ्ट की नौकरी और महीने के आखिर में सैलरी? ऐसा तब है जब हज़ारों पत्रकारों की जमात में दर्जनों साहित्य कर्म और मर्म से जुड़े हैं। पत्रकारिता के पेशे से जुड़े हरएक शख्स को अपनी नौकरी उस चट्टान की तरह लगती है, जिसे थोड़ा डिगाकर नीचे दबी सैलरी और अपने ज़मीर में से एक को निकालने की आज़ादी है। तय शर्त यही है, चुन लो किसी एक को। दोनों की परवाह की तो खैर नहीं। ऐसे विकट समय में पत्रकार होना ही किसी चुनौती से कम नहीं, उसपर प्रियदर्शन एक प्रतिबद्ध पत्रकार और उससे भी ज्यादा एक संवेदनशील लेखक के तौर पर खरे उतरे हैं। उनका यह उपन्यास ‘जिन्दगी लाइव’ इसी बात का पुख्ता सुबूत है।
‘जिन्दगी लाइव’ की शुरूआत मुंबई पर हुये अबतक के सबसे भीषण आतंकी हमले से होती है। आतंकी हमले के लाइवअपडेट के चक्कर में कहानी की मुख्य पात्र सुलभा फंस जाती है। ऑफिस के क्रेच से उसका 2 साल का बेटा अभि गुम हो जाता है। कथानक की नींव रखते ही शुरू हुआ यह ‘थ्रिल’ अंत तक कम होने का नाम नहीं लेता। पढ़ने वाला हरएक पन्ना उलटने के लिये मजबूर होता जाता है। इस यात्रा में एक एक कर कई जीवंत किरदार जुड़ते चले जाते हैं। पात्रों का चरित्र चित्रण अस्वाभिकता और नाटकीय अतिरेक से बिल्कुल ही अछूता है। सुलभा का पति विशाल हो या उसका दोस्त तन्मय, क्रेच में काम करने वाली शीला, शीला का पति रघु, चैनल के मेकअप डिपार्टमेंट में काम करने वाली चारू उसका सिविल इंजीनियर पति अमित य़ा फिर ग्रेटर नोएड़ा का एक रसूखदार बिल्डर सैनी, सारे पात्र आम जिन्दगी में देखे सुने से लगते है। कोई अतिरंजित नाटकीयता नहीं।
दो साल के बच्चे का क्रेच से गुम हो जाना, एक सेलिब्रिटी पत्रकार मां की अपने बेटे को खो देने पर नज़र आयी बेचैनी, बच्चे की जिम्मेदारी ठीक से न उठा पाने का अपराधबोध और फिर अपहरण का दंश, पाठक को अंत तक बांधे रखने के लिये यह पर्याप्त था। किसी और की कलम से दो लाइनों के बीच छूटी खाली जगह में वाकई काफी कुछ छूट जाता। पर प्रियदर्शन यहां एक ऐसी दृष्टि रखते हैं, जो उन्होंने लंबे वक्त तक एक कठिन वैचारिक सोच के तप से पायी है। उसी दृष्टि से वे यहां कई स्थानों पर अमीर-गरीब और निम्नवर्ग पर दमनकारी नीयत का रोंगटे खड़े कर देने वाला जीवंत चित्रण कर पाये।
सत्ता और जनता के बीच सदा से रहे संघर्ष की ऐसी ही मार्मिक प्रस्तुति हाल ही में आनंद नीलकंठन का पहला उपन्यास ‘असुर’ पढ़ते हुये देखी थी। उस उपन्यास में ‘भद्र’ के चरित्र से आनंद नीलकंठन शोषक और शोषित वर्ग के बीच का द्व्न्द्व उजाकर करने में सफल रहे। प्रियदर्शन भी क्रेच की मेड शीला, उसके दिहाड़ी मजदूर पति रघु, मेकअप आर्टिस्ट चारू और उसके पति अमित जैसे चरित्रों के जरिये सफलता के साथ शोषक वर्ग के उन्ही षड़यंत्रकारी इरादों की पड़ताल कर पाये हैं। ‘ज़िन्दगी लाइव’ में ग्रेटर नोएडा का बिल्डर सैनी, उसके गुर्गे दमनकारी शोषक वर्ग की तरह उभरते हैं और पुलिस प्रशासन राजनैयिकों की कठपुतली बना नज़र आता है। जो अपनी अकड़ दिखाने के लिये लाचार पर टूट पड़ता है लेकिन रसूखदार लोगों के गिरेबान तक पहुंचने में उसी पुलिस के हांथ कांप जाते हैं।
पैसा, बाज़ार, दूर की कौड़ी सोचकर जमीनों और रहिवासी अपार्टमेंट्स के लिये किये गये करोड़ों के निवेश और उन्हें फलीभूत करने में सत्ता के गलियारों से मिलने वाला सहयोग। विकास के नाम पर मची हर किस्म की लूट, उसकी सारी परते प्रियदर्शन ने यहां एक एक कर उधेड़ डाली हैं। ऐसी बंधी हुई कहानी, दो साल के बच्चे के गुम हो जाने और उसे खोजने की अथक प्रक्रिया का रोमांच किसी को भी इस उपन्यास को पढ़ने के लिये विवश कर देगा। साथ ही यह भी उतना ही सच है कि इस रोमांच के सहारे कोई भी लेखक इस कहानी को आसानी से उपन्यास की शक्ल दे पाता। लेकिन ढाई-तीन दशकों के जमीनी पत्रकारिता के अनुभव, प्रिंट से लेकर इलेक्ट्रानिक मीडिया तक प्रियदर्शन का वर्षों का जुड़ाव, खुले आंख-कान से देखा सुना सबकुछ मिलकर ‘जिन्दगी लाइव’ को बेमिसाल बना गया है। ऐसा सधा हुआ तारतम्य प्रियदर्शन के वर्षों के पत्रकारिता के अनुभव के बगैर शायद संभव ही न हो पाता। यह सिर्फ रोचकता पैदा करने की कोशिश नहीं बल्कि कहीं गहरे में एक गंभीर पत्रकार की तड़प और उस दर्द के बावजूद बच पायी साफगोई ही है, जो एक रचना के माध्यम से प्रकट हुई। ‘जिन्दगी लाइव’ के बहाने उन्होंने खबरों की खोखली हो चली दुनिया को लेकर कुछ ऐसा रच दिया है जो पीत पत्रकारिता(Yellow Journalism) और प्रीत पत्रकारिता(PR Journalism) के मुंह पर करारा तमाचा बनकर सामने आया है।
पंकज कौरव