फ्रॉड विज्ञापनों पर कोई दिशानिर्देश नहीं : प्रेस कौंसिल

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कोलकाता, 7 फ़रवरी, 2017 : भारतीय प्रेस कौंसिल ने अखबारों में छपने वाले फ्रॉड विज्ञापनों को नियंत्रित करने संबंधी दिशानिर्देश जारी करने से इंकार कर दिया है। यह मांग आज कोलकाता में सुनवाई के दौरान सामाजिक कार्यकर्त्ता विष्णु राजगढ़िया (तस्वीर दायें) ने रखी थी। उन्होंने विभिन्न समाचार पत्रों में प्रकाशित लगभग पचास विज्ञापनों तथा ठगी संबंधी खबरों का हवाला देते हुए यह मांग की थी। लेकिन प्रेस कौंसिल के सदस्यों का मानना था कि किसी अख़बार के पास अन्य इतने सारे काम होते हैं, जिनके कारण उनके लिए किसी भी विज्ञापन की जाँच करना मुश्किल है।
उल्लेखनीय है कि फर्जी कंपनियों के विज्ञापन द्वारा ठगी के खिलाफ झारखंड फाउंडेशन द्वारा अभियान चलाया जा रहा है। आज कोलकाता में “भारतीय प्रेस परिषद” की जाँच समिति ने डॉ विष्णु राजगढ़िया की शिकायत पर सुनवाई की। इस दौरान जाँच समिति के समक्ष देश के विभिन्न समाचारपत्रों में विगत कई वर्षों से प्रकाशित ठगी के विज्ञापनों तथा सम्बंधित समाचारों के लगभग पचास मामलों संबधी दस्तावेज प्रस्तुत किये गए। हालाँकि समिति ने उक्त दस्तावेज वापस लौटा दिए।

इस तरह, देश के प्रतिष्ठित समाचार पत्रों में प्रकाशित होने वाले ठगी के विज्ञापनों के खिलाफ शिकायत पर सुनवाई का आज कोई सकारात्मक परिणाम नहीं निकाला। जाँच समिति के अधिकांश सदस्यों का मानना था कि अगर कोई कंपनी या संस्था किसी भी प्रकार की नियुक्ति या ट्रेनिंग का विज्ञापन देती है, तो अख़बार के लिए उसकी जाँच करना संभव नहीं।

यह प्रसंग दैनिक हिंदुस्तान के बिहार एवं झारखण्ड संस्करणों में दिनांक 30 जून 2016 को प्रकाशित विज्ञापन का है। यह “भारतीय पशुपालन निगम लिमिटेड” में तथाकथित नियुक्तियों संबंधी विज्ञापन था। लेकिन प्रेस कौंसिल में शिकायत किसी एक अख़बार विशेष के खिलाफ नहीं थी। इसमें प्रेस कौंसिल से माँग की गई थी कि अखबार के संपादकीय विभाग को ऐसे ठगी के विज्ञापन दाताओं के दबाव से मुक्त कराने हेतु एक स्पष्ट मार्गदर्शिका जारी की जाए। प्रेस कौंसिल के गठन का उद्देश्य देश में मीडिया की स्वतंत्रता को बनाए रखना और समाचारपत्रों का स्तर उन्नत करना है। अगर विज्ञापन के दबाव में संपादकीय विभाग ऐसे ठगी के विज्ञापनों पर चुप रहता है, तो यह प्रेस की स्वतंत्रता का हनन है। इसी तरह, ऐसे ठगी के विज्ञापन छापना भी समाचारपत्रों के ‘निम्न स्तर’ का द्योतक है। अतः, देश में समाचारपत्रों का स्तर उन्नत करने के लिए यह जरूरी है कि कोई ठग गिरोह किसी अखबार की विश्वसनीयता का दुरूपयोग करके भोले-भाले नागरिकों को ठग न ले, इसके लिए अख़बार का संपादकीय विभाग सचेत रहे।

“भारतीय पशुपालन निगम लिमिटेड” के उस विज्ञापन द्वारा फ्रॉड की संभावना के सम्बन्ध में झारखण्ड फाउंडेशन की ओर से प्रधान संपादक, दैनिक हिंदुस्तान को दिनांक 16 जुलाई 2016 को एक खोजपूर्ण विस्तृत पत्र भेजकर जाँच के कई बिंदु सुझाए गए थे। अगर संपादकीय स्वतंत्रता का उपयोग करके उन बिंदुओं पर जांच परक रिपोर्ट प्रकाशित की जाती, तो दैनिक हिंदुस्तान एक नई मिसाल कायम कर सकता था।

जाँच समिति कुछ सदस्य सुनवाई के दौरान बार-बार यह कहते रहे कि किसी अख़बार के लिए यह संभव नहीं कि वह ठगी के विज्ञापन की जाँच कर सके। इस पर शिकायतकर्ता विष्णु राजगढ़िया ने स्पष्ट किया कि अगर संपादकीय विभाग का कोई भी व्यक्ति जाँच करना चाहे, तो बेहद आसानी से इसकी जाँच हो सकती है। असल चीज तो यह है कि विज्ञापन के दबाव में अख़बार जन बूझकर इन चीजों को नजर अंदाज करते हैं। इस तरह उनकी स्वतंत्रता का हनन होता है। साथ ही, अगर अख़बार खुद किसी जाँच में अक्षम हो, तो आम बेरोजगारों और भोले-भाले लोगों से यह उम्मीद कैसे की जा सकती है कि वे ऐसे विज्ञापनों की असलियत समझकर इसका शिकार न हों। इस नाते अख़बार का दायित्व बनता है कि अपने पृष्ठों में प्रकाशित नौकरी संबंधी विज्ञापन की जाँच करे। लेकिन प्रेस परिषद् ने अख़बार पर ऐसा कोई दायित्व देने से इंकार कर दिया।

पिछले दिनों नोएडा के एक ठग गिरोह द्वारा छह लाख लोगों से 37 अरब रुपयों की ठगी की बात सामने आई। ऐसे ठग गिरोह अखबारों में विज्ञापन देकर आम लोगों खासकर निरीह बेरोजगारों को निशाना बनाते हैं। लेकिन अख़बार ऐसे विज्ञापनों को बेधड़क छापकर ऐसी ठगी को प्रोत्साहन देते हैं। लिहाजा, प्रेस काउन्सिल से मांग की गई थी कि अखबारों के लिए एक गाइडलाइन जारी करके ऐसे ठगी के विज्ञापन पर रोक लगे। अख़बार कहते हैं कि उनकी अर्थव्यवस्था विज्ञापनों पर ही आधारित है, इसलिए वे किसी भी विज्ञापन से परहेज नहीं कर सकते।

सवाल यह है कि अगर किसी विज्ञापन के कारण लाखों लोगों का नुकसान होता हो, तो क्या कोई अख़बार सिर्फ इसलिए उसे छापने में परहेज नहीं करेगा कि विज्ञापन उनके “पापी पेट” से जुड़ा है? क्या अख़बार के लिए जनहित का कोई मतलब नहीं? अगर कोई ठग गिरोह किसी विज्ञापन के सहारे दस लाख रूपये कमाकर अखबार को दस हजार रूपये की मामूली जूठन थमा देता हो, तो क्या अख़बार को भी उस ठगी का सह-अभियुक्त नहीं माना जाए?

बहरहाल, प्रेस कौंसिल द्वारा इस मामले को ख़त्म कर देने से फ्रॉड विज्ञापनों के कारण लाखों बेरोजगारों को नुकसान के खिलाफ संघर्ष ख़त्म नहीं होता। उलटे, इसके नए आयाम खुल रहे हैं। भारतीय प्रेस परिषद् को धन्यवाद।