“प्रधानमंत्री जी, आप नेहरू के बहाने दरअसल गाँधी के विवेक पर सवाल उठा रहे हैं!”

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New Delhi: Prime Minister Narendra Modi speaks in the Rajya Sabha, at the Parliament in New Delhi on Wednesday. PTI Photo / TV Grab(PTI2_7_2018_000161B)


प्रधानमंत्री के नाम वरिष्‍ठ पत्रकार प्रेम कुमार मणि का खुला पत्र


आदरणीय प्रधानमंत्री जी,

कल, यानि 7 फरवरी ’18 को राष्ट्रपति के अभिभाषण पर संसद में दिए गए आप के भाषण की मैं प्रशंसा नहीं कर सकता। देश के एक नागरिक के नाते, प्रधानमंत्री के भाषण को सुनने की स्वाभाविक जिज्ञासा होती है, और होनी चाहिए; क्योंकि उस से सरकार के मिज़ाज़ का पता चलता है। मेरा मानना है प्रधानमंत्री किसी पार्टी द्वारा आया हुआ तो अवश्य होता है, लेकिन वह किसी पार्टी का नहीं, पूरे देश का होता है। उसे अपने आचरण से इसका प्रकटीकरण भी करना चाहिए। हम सब किसी परिवार, गांव या शहर विशेष से आये होते हैं, लेकिन एक देशवासी के नाते हम अपनी भारतीयता प्रकट करना चाहते हैं। यह व्यक्ति का समष्टीकरण होता है। यह हमारा श्रेय है। लेकिन अफ़सोस होता जब प्रतिष्ठा के शिखर पर आसीन होकर भी आदमी अपनी संकुचित भावनाओं से मुक्त नहीं हो पाता। आपका कल का भाषण ऐसा ही अफसोसजनक था।

आपकी कांग्रेस और नेहरू-कुंठा सार्वजनिक है। निश्चय ही आपने इसका प्रशिक्षण संघ से प्राप्त किया होगा। कल भी आपने इसका जम कर प्रदर्शन किया। आप भूल ही गए कि संसद में बोल रहे हैं। मैं समझता हूं, सार्वजनिक सभाओं और संसद के भाषण में एक फर्क होना चाहिए। आदरणीय प्रधानमंत्री जी,  सार्वजानिक सभाओं में कभी-कभार आप पार्टी के हो सकते हैं, लेकिन संसद में आप सिर्फ और सिर्फ राष्ट्र का नेता होते हैं, साकार राष्ट्र; और इस रूप में राष्ट्र व स्वयं की गरिमा का निर्वहन करना आपकी जिम्मेदारी थी प्रधानमंत्री महोदय! जिसमे आप हास्यास्पद सीमा तक विफल हुए।

आप कांग्रेस और नेहरू का इतिहास खंगालने लगे। आपकी जानकारी ठीक-ठाक है। आपने बतलाया कि पटेल यदि प्रधानमंत्री होते तो देश का बंटवारा नहीं होता। यह भी कि कांग्रेस की पंद्रह प्रांतीय कार्यसमितियों में से बारह ने पटेल का नाम प्रधानमंत्री हेतु प्रस्तावित किया था। अब मैं आप से पूछता हूं-  क्या नेहरू ने जबरदस्ती प्रधानमंत्री पद पर कब्ज़ा कर लिया था? या और कोई बात थी? पूरी दुनिया जानती है इसमें गाँधी का हस्तक्षेप था। और आप जब इतिहास से प्रश्न कर रहे हैं, तो उसका जवाब भी इतिहास से ही सुनिए। दरअसल, आप गाँधी के विवेक पर प्रश्न उठा रहे हैं। ऐसे प्रश्न आपकी मातृसंस्था आरएसएस और उसके दादागुरु सावरकर उठाते रहे हैं। इसी की परिणति गाँधी की हत्या थी। प्रसंगवश इतिहास की ही एक कथा सुनाता हूँ।

मलिक मुहम्मद जायसी, वही जिन्होंने पद्मावत की रचना की थी- जिसपर निर्मित फिल्म पर आपके चेले पिछले दिनों कोहराम मचा चुके हैं-  एक बार अपने समय के सुल्तान (बादशाह) से मिलने गए। जायसी कुरूप थे। सुल्तान उन्हें देखकर हंसा। जायसी ने पूछा- किस पर हंस रहे हो, मुझ पर या मुझे बनाने वाले (यानी ईश्वर) पर? सुल्तान पानी-पानी हो गया। मुआफी मांगी। आपसे पानी-पानी होने की उम्मीद नहीं करता हूं और आपसे मुआफी मांगने की जुर्रत भला कौन करेगा। मैं तो केवल नम्रतापूर्वक पूछना चाहूंगा कि आप का प्रश्न किस से है-  कांग्रेस से या गाँधी से? क्या गाँधी को गोली मारने के पीछे एक कारण यह भी था?

प्रधानमंत्री जी, कांग्रेस में उस वक़्त वैसा बिखराव नहीं था, जैसा आपके प्रधानमंत्री होते समय आपकी पार्टी में था। कांग्रेस की अच्छी या बुरी परंपरा रही थी कि गाँधी जी सर्वोच्च माने जाते रहे। यह अनेक बार हुआ। 1922 में चौरीचौरा कांड के बाद उन्होंने बिना किसी परामर्श के आंदोलन वापस ले लिया। 1938 में सुभाष बाबू के कांग्रेस अध्यक्ष चुने जाने के बाद गांधीजी के कारण उन्हें पद छोड़ने के लिए विवश होना पड़ा। नेहरू को प्रधानमंत्री चुने जाने में भी उनका वीटो था। लेकिन नेहरू सरकार के पटेल हिस्सा थे। पटेल और नेहरू एक दूसरे की इज़्ज़त भी करते थे। दोनों की वैचारिक भिन्नताएं थी. यह छुपी बात नहीं है। गाँधी से भी नेहरू की वैचारिक भिन्नताएं थीं; लेकिन गाँधी की मृत्यु पर नेहरू ही फूट कर रो रहे थे, आपके संघ में तो मिठाइयां बांटी जा रही थीं। जिस पटेल पर आपको इतना नाज़ है, उनकी ही टिप्पणी देखिए आपकी मातृसंस्था पर- “उस ज़हर का फल अंत में यह हुआ कि गांधीजी की अमूल्य जान की क़ुरबानी देश को सहनी पड़ी और सरकार व जनता की सहानुभूति जरा भी आरएसएस के साथ न रही, बल्कि उसके खिलाफ हो गयी। उनकी मृत्यु पर आरएसएस वालों ने जो हर्ष प्रकट किया तथा मिठाई बांटी, उससे यह विरोध और बढ़ गया और सरकार को इस हालत में आरएसएस के खिलाफ कार्यवाही करना जरूरी ही था।” (सरदार पटेल : 19 -9 -1948 को गोलवरकर को लिखे गए पत्र का एक अंश)

प्रधानमंत्री जी, त्याग की परिभाषा आप जैसे लोग पत्नी-त्याग तक ही समझते हैं। पदत्याग का यह संस्कार आप लोगों के वश का नहीं है। पटेल ने हमेशा नेहरू की देशभक्ति और बुद्धिमत्‍ता पर भरोसा किया था। पटेल विचारों से दक्षिणपंथी थे और नेहरू समाजवादी, लेकिन यह बात पटेल के मन में थी कि देश नेहरू ही चला सकते हैं। वह अपनी उम्र और स्वाथ्य की सीमाओं से भी परिचित थे। खैर, आज़ादी के वक़्त की कहानी तो आपने पढ़ी-सुनी होगी, लेकिन 1989 और 2004 में तो आप राजनीति में अहम भूमिका निभा रहे थे। 1989 में देवीलालजी जनता दल संसदीय दल के नेता चुन लिए गए। वीपी सिंह ने नाम का प्रस्ताव किया था और चंद्रशेखर ने समर्थन। देवीलाल जी चुप लगा जाते तो प्रधानमंत्री वही होते लेकिन उन्होंने उदारता दिखलाई। वीपी सिंह के नाम का स्वयं प्रस्ताव किया और वह प्रधानमंत्री हुए। 2004 में सोनिया गाँधी ने चुन लिए जाने के बाद मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाया। यह कांग्रेसियों और समाजवादियों की परंपरा रही है। आप इसे क्या जानेंगे। यदि इनसे आपने कुछ सीखा होता तो 2014 में चुनावी विजय का मौर्य-मुकुट अपने गुरु आडवाणी की श्रीचरण में रख कर और उन्हें प्रधानमंत्री बना कर आप इतिहास बना सकते थे, लेकिन इसके लिए वाकई छप्पन इंच का सीना और उसी के अनुरूप कलेजा चाहिए। वह संस्कार चाहिए जो अर्जुन के पास था, जिसके तहत उसने अपने गुरु के चरणों में द्रुपद को ला कर रख दिया था। आपका संस्कार तो सर्जिकल स्ट्राइक वाला है- छुपकर घुसपैठिया आक्रमण। और फिर वर्षों अपनी ही पीठ आप थपथपाना।

कांग्रेसी राज के लालबहादुर शास्त्री और इंदिरा गाँधी ने पाकिस्तान के टुकड़े कर दिए और उसे भूल गए। आप जिस पौराणिकता को इतिहास सिद्ध करना चाहते हैं और उसके एक मर्यादा पुरोषत्तम का महामंदिर बनाना चाहते हैं, उनके संस्कारों का भी स्मरण आपको करना चाहिए। राम ने लंका विजय के बाद लंका को अपना उपनिवेश नहीं बनाया था। उन्ही लोगों के लिए छोड़ दिया था। और सबसे बढ़कर यह कि युद्धोपरांत अपने भाई लक्ष्मण को रावण के पास भेजा कि सुशासन और ज्ञान के कुछ सूत्र सीख आये। इंसान को शत्रु या विरोधी पक्ष से भी कुछ सीखना चाहिए। यही हमारी भारतीयता है, जिसे आप शायद हिंदुत्व कहते हैं। लेकिन आपको प्रधानमंत्री के रूप में हमेशा देख रहा हूं कि आप भारतीय कम, पाकिस्तानी चरित्र के ज्यादा दिख रहे हैं। आप अपने इस संस्कार व चरित्र पर ध्यान दे सकें तो आपका और आपके प्रधानमंत्री होने के कारण हम सब का भी भला होगा।

पूरे आदर के साथ आपको अपने पद की गरिमा बनाये रखने की विनम्रतापूर्ण सलाह देना चाहूंगा।

आपका
प्रेमकुमार मणि

सेवार्थ,
माननीय नरेंद्र मोदी,
प्रधानमंत्री, भारत सरकार


प्रेम कुमार मणि वरिष्‍ठ लेखक और पत्रकार हैं। सत्‍तर के दशक में कम्‍युनिस्‍ट पार्टी के सदस्‍य रहे। मनुस्‍मृति पर लिखी इनकी किताब बहुत प्रसिद्ध है। कई पुरस्‍कारों से सम्‍मानित हैं। जनता दल (युनाइटेड) से बिहार विधान परिषद में मनोनीत सदस्‍य रहे हैं। यह खुला पत्र उन्होंने अपने फेसबुक से जारी किया है और मीडियाविजिल उसे साभार प्रकाशित कर रहा है.