क्या समाज में TINA (There is no alternative) का असर इतना ज़्यादा हो गया है कि विकल्प के लिए जूझते लोग दिखाई देना बंद हो गए हैं? ऐसे लोग अक्सर टकराते हैं जिनकी राय में दुनिया में प्रतिवाद का कहीं कोई मोर्चा नहीं बचा। वे इसके लिए दुखी ही नहीं होते बल्कि कुछ संगठनों पर इसकी ज़िम्मेदारी डालते हुए कोसते हुए नज़र आते हैं, पर क्या सचमुच ऐसा है? सच्चाई ये है कि अख़बार से लेकर चैनलों तक में जनता के संघर्ष और उसके प्रतिवाद को जगह न देने की एक घोषित नीति काम कर रही है। जब तक हिंसा न भड़के, वह अन्याय-उत्पीड़न से जुड़ी कोई ख़बर नहीं दिखाते क्योंकि इससे उनके उपभोक्ताओं का मूड ख़राब होता है। हिंसा होने पर भी वे मुद्दे की तह तक न जाकर सिर्फ़ क़ानून व्यवस्था का सवाल बनाकर रख देते हैं। ऐसा ही कुछ मुज़फ़फ़रपुर के संरक्षण गृह में बच्चियों के साथ निरंतर बलात्कार की घटना को लेकर हुआ है। तमाम संगठन इस मुद्दे पर लगातार मुखर हैं, लेकिन मीडिया ने उन्हें गोल कर रखा है। नतीजा ये है कि बहुत लोगों को यह भ्रम है कि बिहारी समाज ऐसी घटना पर सो रहा है। बिहार में सीपीआईएल से जुड़े कुमार परवेज़ ने इसका कड़ा प्रतिवाद किया है। पढ़िए–
मुजफ्फरपुर रिमांड होम : पहले दिन से बिहारी समाज आंदोलित है.
मुजफ्फरपुर रिमांड होम को मीडिया में अब जगह मिल रही है. क्योंकि इसे अब दबाया नहीं जा सकता. दबाने के बहुत प्रयास हुए थे, लेकिन बिहारी समाज ने ऐसा होने नहीं दिया. घटना की जानकारी के पहले दिन से ही वह लड़ रहा है, पता नहीं Ravish kumar ने अपने लेख में ऐसा क्यों लिखा कि सांस्थानिक यौन उत्पीड़न की ऐसी वीभत्स घटना पर बिहारी समाज सोता रहा.
नहीं, ऐसा बिल्कुल नहीं है.
मुजफ्फरपुर के अखबारों में 2 जून को यह घटना सामने आई. उसके तुरत बाद 8 जून को AIPWA का एक राज्यस्तरीय प्रतिनिधिमंडल ने घटनास्थल का दौरा किया और मामले की सच्चाई जानी. लेकिन जाहिर सी बात है इस रिपोर्ट को मीडिया द्वारा कोई तवज्जो नहीं दिया गया. केवल कशिश न्यूज ने इसे अपना विषय बनाया था.
फिर ऐपवा ने इस विषय को लेकर पूरे राज्य में गोलबंदी की और 22 जून को पटना में हजारों महिलाओं ने धावा बोला. फिर भी मीडिया खामोश रहा. मीडिया में बहुत जगह नहीं मिली. ऐसा लगा मामले को दबाने की पूरी कोशिश हो रही है.
6 जुलाई को पटना में महिला संगठनों की बैठक हुई. 13 को उन्होंने प्रेस को सम्बोधित किया, फिर भी मीडिया का वही हाल!
महिलाओं ने इस मसले पर नीतीश की चुपी के खिलाफ मुख्यमंत्री के नाम खुला पत्र लिखा. ऐपवा की महासचिव मीना तिवारी ने अखबारों से बात की, खुली चिट्ठी को छापने का आग्रह किया, लेकिन मीडिया पर शायद ही इसका असर पड़ा हो!
मुजफ्फरपुर रिमांड होम : बिहार के मुख्यमंत्री के नाम खुला पत्र जिसे अखबारों ने नहीं छापा
19 जुलाई को चिलचिलाती धूप में काले कपड़े पहनकर महिलाओं ने पटना में प्रदर्शन किया. मुख्यमंत्री ने कोई नोटिस नहीं लिया. अखबारों के किसी कोने में खबर छापकर हजारों महिलाओं की आवाज दबाने का प्रयास किया गया.
विधानसभा सत्र के पहले दिन ही माले विधायकों ने प्रतिवाद किया, कहीं कोई खबर नहीं बनी. फिर इस सवाल पर कार्य स्थगन प्रस्ताव लाया गया. काफी ना नुकुर के बाद विपक्षी पार्टियों ने इस पर सहमति दी..
इन आंदोलनों का ही लगातार दवाब था कि अंततः सरकर को झुकना पड़ा और इसकी CBI जांच की अनुशंसा करनी पड़ी.
अब तो मामला सबके सामने है. मंत्री मंजू वर्मा की बर्खास्तगी, उनके पति की गिरफ्तारी, TISS की रिपोर्ट सार्वजनिक करने, मुजफ्फरपुर सहित सभी रिमांड होमों की उच्च न्यायालय के निर्देशन में CBI जांच की मांग पर 2 अगस्त को बिहार बन्द भी है.
ऐसे सत्ता प्रायोजित जघन्य अपराध की बिहार के समाज ने कभी अनदेखी नहीं की, वह पहले दिन से आंदोलित है, जरूर कॉरपोरेट मीडिया को यह सब नहीं दिखता.