अंजनी कुमार
मैं लेनिन की मूर्ति के टूटने से आहत हूं। गहरे तक वेदना है। प्रतिहिंसा की बेचैनी भी। मूर्तियां सिर्फ प्रतीक भर रह जाएं तो उन्हें टूट जाना चाहिए, लेकिन मैं तब भी उन्हें नहीं तोड़ सकता। वे हमारे इतिहास का हिस्सा होती हैं; अपने समय का प्रतिनिधित्व करती हुई। जब आदर्श, इच्छाएं, मूर्तियों में अभिव्यक्त होती हैं तब उनका टूटना अपने समय का टूटना होता है, उसका विखंडन होता है। मूर्ति निर्माण एक क्रांतिकारी कदम हो सकता है, और मूर्तिभंजन भी। सवाल यह है कि कौन है जो उसे तोड़ रहा है? किन इच्छाओं और आदर्शों के लिए तोड़ रहा है? इस मूर्तिभंजन को सीपीएम की बंगाल सरकार और उसके बाद त्रिपुरा और केरल सरकार की कारगुजारियों के परिणाम तक सीमित कर देना एक खतरनाक भूल होगी।
सन् 1995 की बात है। इलाहाबाद के एक चौराहे पर अंबेडकर की मूर्ति का सिर तोड़ दिया गया था। कौन लोग थे जिन्होंने यह काम किया था? इस रहस्य से अधिक हमें वह सोच परेशान कर रही थी जो एक मूर्ति के रूप में भी अंबेडकर की उपस्थिति को बर्दाश्त कर सकने की स्थिति में नहीं थी। तोड़ने वालों का उस समय पता नहीं चल पाया लेकिन उनकी मंशा बहुत साफ थी। वे ब्राम्हणवादी जाति व्यवस्था के धुर समर्थक थे और इस हद तक कि एक मूर्ति भी उन्हें बर्दाश्त न थी।। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के कानून विभाग में मनु की मूर्ति को स्थापित किया गया। वह आज भी वहां है। यह एक काल्पनिक चेहरा है। यह कल्पना वर्तमान समाज की एक घृणित सच्चाई को कानून के रूप में, रूल ऑफ लॉ के तौर पर स्थापित करती है। आज भी अंबेडकर की मूर्तियों के टूटने का सिलसिला जारी है और साथ ही अंबेडकर द्वारा किया गया मनुस्मृति दहन का सिलसिला भी जारी है। यह दो तरह के आदर्शां की टकराहट है। इसमें पक्षधरता ही निर्णायक बात है। बीच का कोई रास्ता नहीं है।
लेनिन की मूर्तियां पहले भी टूटी हैं। जैसा कि हमारे बहुत सारे चिंतक लिख रहे हैं कि मूर्तियां टूटने के लिए ही बनती हैं। यह भी एक मिथक है। जीवन की उपस्थिति इतिहास के रूप में अपना चिह्न छोड़ते हुए गुजरती है। चाहे वह फॉसिल के रूप में हो, भग्न मूर्तियों के रूप में या पूरी की पूरी इमारत के रूप में। वह जो इतिहास बनाते हैं, अपनी गतिमान परम्परा को छोड़ते हुए जाते हैं। अशोक ईसा पूर्व हुए। उनके बनाए हुए स्तम्भ राज्य की वैधता की निशानी बन चुके थे। मध्यकाल के शासक इस स्तम्भ से अपने राज्य की वैधता को घोषित करते हुए दिखाई देते हैं। सिक्कों के प्रचलन से लेकर सिंचाई की व्यवस्था और सड़कों तक का सारा निर्माण आगामी शासकों के लिए वैध मूर्तियां ही थीं जिनके बिना उनका शासन अस्वीकृति की स्थिति में होता।
आधुनिक समाज का अर्थ उसके आदर्श और उसकी मूर्तियों में है। आधुनिक समाज के चिंतकों को आप कैसे नकार सकते हैं! मार्क्स और एंगेल्स के बिना आधुनिक दर्शन की कल्पना क्या संभव है? लेनिन के बिना समाजवाद की कल्पना संभव है? या यह मान लिया जाय कि पूंजीवाद और फिर पूंजीवाद की साम्राज्यवादी, फासीवादी व्यवस्था ही अंतिम व्यवस्था थी, और यही अंतिम आदर्श था? और उसके बाद की सारी व्यवस्थाएं उत्तर-आधुनिक हैं जो निश्चय ही अमेरीकाधीन हैं। यदि हम इसे नहीं मानते, तब उन आदर्शों को सामने लाना क्यों जरूरी नहीं हैं- मूर्तियां, उनकी जीवनियां, उन पर लेख, उनके प्रयोग, उनके सिद्धांत को प्रचारित करना क्यों जरूरी नहीं है?
मेरा मानना है कि यह सब कुछ करना जरूरी है। यह बोलना जरूरी है कि लेनिन हमारे आदर्श थे। उन्होंने बराबरी पर आधारित समाज के निर्माण के लिए न सिर्फ सिद्धांत पेश किए बल्कि उसके लिए एक रणनीति और कार्यनीति का निर्माण भी किया। उन्होंने साम्राज्यावादियों के युद्ध से रूस को निकालकर उसे एक जनवादी-समाजवादी समाज की आदर्श की ओर ले जाने का काम किया। यही वह जमीन थी जिस पर अपने देश में उपनिवेशवाद और सामंतशाही के खिलाफ संघर्ष खड़ा हुआ। उस समय कौन लोग थे जिन्हें लेनिन पागल लगते थे? कौन लोग थे जिन्हें लोकशांति के लिए वे एक खतरा दिखते थे?
सीपीएम अपनी राज्य सरकारों को उन्हीं नीतियों की ओर ले गई जो साम्राज्यवाद की सेवा करती हैं और सामंतशाही को मजबूत करती हैं। सिर्फ सीपीएम नहीं बल्कि दर्जनों ऐसी पार्टियां हैं जिन्होंने रणनीति और कार्यनीति के नाम पर लेनिन के आदर्शों को धूल में मिला दिया। ऑफिसों और चौराहों पर सिर्फ मूर्तियां रह गईं। आज यही स्थिति अंबेडकरवादियों की हो चुकी है। यह शर्मनाक है। यह इसलिए शर्मनाक है कि हम इन्हें आदर्श मानते हैं। मूर्तियां केवल मूर्तियां नहीं हैं, किताबें सिर्फ किताबें नहीं हैं। वे हमारे जीवन, हमारी उम्मीदों के वे हर्फ हैं जिन्हें इस समाज में उतारे बिना हम एक तबाह होती दुनिया को देखते हुए खत्म होंगे।
त्रिपुरा में लेनिन की मूर्ति का तोड़ा जाना, सीरिया पर हमला कर एक पूरी सभ्यता को नष्ट करना, इराक पर बम गिराकर एक पूरी सभ्यता की निशानियां मिटा देना, अफगानिस्तान पर हमला कर एक समूची जीवन व्यवस्था को खत्म कर देना- यह निश्चय ही मूर्तिभंजन नहीं है। यह साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाओं, उसके आदर्शों, उसकी राजव्यवस्था का परिणाम है जिसे हम पिछले तीस वर्षों में छलांग मारते हुए, बढ़ते हुए, जमीन पर उतरते हुए, पनपते-बढ़ते हुए देख रहे हैं। कार्यनीति और रणनीति के नाम पर हम उसके साथ ‘विकास’ की ओर बढ़ रहे हैं और सीमित होते जनवाद में कांग्रेस के फासीवादी जनवाद को भी स्वीकार करने तक चले गए क्योंकि ‘विकल्प’ नहीं है।
हम यानी मध्यवर्ग लेनिनवादी उसूलों और आदर्शां को छोड़ते हुए इतनी दूर तक जा पहुंचे हैं कि मजदूर और किसानों की जिंदगी की तबाही को एक नियति मान बैठे हैं- वैसे ही जैसे ‘मूर्तियां टूटने के लिए ही बनती हैं’। ऐसा नहीं है। तोड़ने वालों की आकांक्षाएं और आदर्श बेहद साफ है। उनके उद्देश्य और विकल्प एकदम साफ हैं। जरूरत है लेनिन की मूर्ति को फिर से स्थापित करने की, उनके आदर्शों, उनके सिद्धांतों को समाज में लागू करने की, मार्क्सवादी-लेनिनवादी होने की, एक क्रांतिकारी पार्टी के साथ खड़ा होकर समाजवाद के निर्माण के लिए जुट जाने की।
लेखक टिप्पणीकार और प्रतिबद्ध वामपंथी कार्यकर्ता हैं