डॉ. ए. के. अरुण
अहिंसा एक विज्ञान है। यह मानवता को उपलब्ध सबसे बड़ा बल है। मनुष्य ने अपनी होशियारी से विनाश के जो भी शक्तिशाली अस्त्र-शस्त्र बनाए हैं, अहिंसा उससे भी अधिक शक्तिशाली है। अपनी गव्यात्मक स्थिति में अहिंसा का अर्थ है सचेतन कष्ट सहन। यहां यह जानना भी जरूरी है कि विनम्रता के बिना अहिंसा असंभव है। अहिंसा के बिना सत्य का शोध और उसकी प्राप्ति भी असंभव है।
अहिंसा केवल आहार विज्ञान का मामला नहीं है। यह उससे आगे की चीज है। आदमी क्या खाता-पीता है, इसका उतना महत्व नहीं है। महत्व उसके पीछे जो आत्मत्याग और आत्मसंयम है, उसका है। जब हम चिकित्सा की विधियों में अहिंसा की तलाश करते हैं तब हमारे समक्ष एक दुविधा खड़ी होती है कि प्रचारित व शासकीय रूप से मान्य चिकित्सा विधियों में किसे अहिंसक माना जाए और किसे हिंसक।
प्राचीन भारत में केवल एक विधि ऐसी थी जिसे सर्वतोभावेन धर्मनिरपेक्ष कहा जा सकता है। आज जिसे प्राकृतिक विज्ञान कहा जाता है और जिसके विवेचन में विशुद्ध तात्विक दृष्टिकोण अपनाया जाता है। वैसी ही संभावित इस विधाशाखा या शास्त्र में भी उपलब्ध थी। इस विद्याशाखा का नाम है- आयुर्विज्ञान।
ऐतिहासिक दृष्टि से आयुर्विज्ञान का आरम्भ भले ही अत्यन्त साधारण परिस्थितियों में हुआ होगा किन्तु प्राचीन काल में ही इसने चिकित्सा के क्षेत्र में जादू-टोना और झाड़-फूंक आधारित चिकित्सा पद्धति से हटकर तर्क पर आधरित चिकित्सा पद्धति को अपना लिया था। तात्कालीन चिकित्सकों/वैद्यों शब्दावली में इसे दैव-व्यपाश्रय भेषज के स्थान पर युक्ति-व्यपाश्रय भेषज कहा जाता था।(1) भारतीय आयुर्विज्ञान में युक्ति एक अत्यन्त महत्पूर्ण संकल्पना है। मोटे तौर पर इसका अर्थ है तर्कमूलक प्रयोग। अर्थात यदि कोई व्यक्ति बीमार हुआ है तो उसकी बीमारी को पैदा करने और बढ़ाने वाले कई कारण रहे होंगे। अतः उसकी चिकित्सा शुरू करने से पहले उसके लिये उन सभी कारणों की छानबीन करना आवश्यक होगा। इसी के साथ उसे ‘‘कुछ और’’ करना होगा जिससे रोगी एकदम ठीक हो जाए। यही ‘‘कुछ और’’ वह बौद्धिक अनुशासन है जिसे युक्ति कहा गया है। द्रव्य का ज्ञान करने वाले वैद्य से युक्ति को जानने वाला वैद्य सदा श्रेष्ठ रहता है। (सिद्धिर्युक्तौ प्रतिष्ठिता, तिष्ठत्युपरि युक्तिज्ञो द्रव्यज्ञानवतां सदा) (2)।
आयुर्वेद का एक विलक्षण सिद्धांत यह है कि इसके अनुसार मनुष्य को ब्रह्माण्ड का लघु प्रतिरूप माना गया है। भारतीय परंपरा में यही आयुर्वेद आयुर्विज्ञान कहलाता है। इसके तीन प्रमुख स्रोत ग्रंथ हैं- चरक संहिता, सुश्रुत संहिता और अष्टांग संग्रह। चरक संहिता में जो चिकित्सा पद्धति सुझायी गई है वह मुख्यतः द्रव्य/औषधि और अन्नपान पर आधरित है। शल्य चिकित्सा की आवश्यकता केवल कुछ अपवादिक प्रसंगों में ही और वह भी काफी दबी जबान से बताई गई है।(3) चरक संहिता के रचनाकाल के बारे में भी अलग-अलग मत हैं। कुछ विद्वान इसे छठी सदी ईसापूर्व की या उससे भी पहले की रचना मानते हैं।
प्राचीन भारतीय आयुर्विज्ञान में अहिंसा की भावना इतनी थी कि रोग परीक्षा (निदान) की तीन मुख्य विधियों को प्रयोग में लाने का प्रचलन था। आप्तोपवेश, प्रत्यक्षण और अनुमान। आप्तोपवेश का मतलब है निश्चित ज्ञान स्मरण शक्ति सम्पन्न तथा कार्य अकार्य को जानना। प्रत्यक्षण यानि स्वयं इन्द्रियों और मन के द्वारा जाना गया ज्ञान तथा अनुमान अर्थात युक्ति की अपेक्षा रखने वाला ज्ञान तर्क। यदि इन तीन प्रकार के रोग ज्ञान कराने वाले उपायों से सावधानीपूर्वक पहले सभी तरह से रोग की परीक्षा कर निश्चय (निदान) किया जाता है तो भविष्य में चिकित्सा करते समय कभी भी असफलता नहीं होती और उसका ज्ञान सत्य होता है।(4) इसी प्रकार सुश्रुत संहिता में भी रोग का निदान करने के लिए इंद्रिय प्रत्यक्ष पर काफी जोर दिया गया है। हालांकि सुश्रुत संहिता में शवच्छेदन के प्रयोग से इनकार नहीं किया गया है, लेकिन प्राचीन काल से ही शव को छूने की धार्मिक वर्जनाएं भी प्रचलित रही हैं।
प्राचीन यूनानी चिकित्सा पद्धति भी भारतीय आयुर्विज्ञान की तरह प्रत्यक्ष प्रेक्षण पर ज्यादा आश्रित थी। यूनानी आयुर्विज्ञान ने विकृतिमूलक लक्षणों के प्रेक्षण में और उसका वर्गीकरण करने में विलक्षण प्रतिभा का परिचय दिया है। वहां के आचार्यों ने इस काम के लिए अपनी सभी ज्ञानेन्द्रियों की भरपूर सहायता ली। उन्होंने जितना प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त किया उतना आज भी नहीं किया जाता है। हिपोक्रेटीज के अनुयायी चिकित्सक रोगी का चेहरा देखते थे, उसके रूप, रंग और उनमें आए उतार-चढ़ाव पर ध्यान देते थे। चेहरा ही नहीं, रोगी की आंखें, कान, नाक और जीभ आदि की भी जांच करते थे। वे ध्यान से इस बात को नोट करते थे कि रोगी अपने बिस्तर पर किस करवट लेटा है, उसका शरीर नीचे की ओर खिसका हुआ है या ऊपर की ओर। लेटे-लेटे उसके हाथों में कोई हरकत हो रही है या नहीं। त्वचा, नाखून, बाल देखे जाते थे, शरीर के रंग आदि से भी जांच की जाती थी। ज्ञानेन्द्रिय से तो मल-मूत्र, कफ और खून की भी जांच की जाती थी। काय चिकित्सक रोगी की छाती पर कान रख कर अन्दर से आने वाली आवाज से भी रोग का पता लगा लेते थे। स्पर्शेन्द्रिय की सहायता से रोगी के शरीर का ताप मालूम किया जाता था। परीक्षण में घ्राणेंद्रिय (नाक) और रसेन्द्रिय (जीभ) का भी सहयोग लिया जाता था। जो बातें ज्ञानेन्द्रियों की सहायता से नहीं जानी जा सकती थीं, उसे रोगी से पूछकर जाना जाता था। सम्भवतः लगभग सभी विकृति विषयक लक्षणों को भी ज्ञानेन्द्रिय की मदद से जाना जा सकता था।
यूनानी चिकित्सा पद्धति की इस विशेषता की आज के युग में भी बड़ी कद्र है। साइजेरिस्ट नामक दार्शनिक एवं चिकित्सा विज्ञानी ने ‘‘मेन एण्ड मेडिसिन’’ नामक ग्रन्थ में इस प्रसंग का विस्तार से वर्णन किया है।(5)
प्राचीन भारतीय इतिहास में आयुर्वेद के महर्षियों में आत्रेय, चरक, सुश्रुत एवं वाग्भट्ट का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। आत्रेय (800 ई.पू) को पहला महान भारतीय चिकित्सक एवं शिक्षक माना जाता है। वे तक्षशिला में रहते थे। बताते हैं कि महात्मा बुद्ध के समयकाल में सम्राट अशोक ने आयुर्वेद को राजकीय चिकित्सा शास्त्र के रूप में मान्यता दी थी। भारतीय ऋषि सुश्रुत को ‘‘दैवी शल्य चिकित्सा का पिता’’ कहा जाता है। उन्होंने आयुर्वेद के एक महत्पूर्ण ग्रन्थ ‘‘सुश्रुत संहिता’’ की रचना की (800 ई.पू. एवं 400 ई)। कहते हैं कि अंग्रेज चिकित्सकों ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासन के दौरान भारतीय चिकित्सकों से प्लास्टिक सर्जरी का ज्ञान लिया था।(6) महात्मा बुद्ध के प्रभाव काल में हालांकि अहिंसा का इतना प्रभाव था कि भारतीय सर्जरी को गहरा धक्का लगा था।(7)
चाइनिज मेडिसिन (2700 ई.पू) को भी अहिंसक चिकित्सा पद्धति के रूप में माना जाता है। इस पद्धति में दो मान्यताएं यांग एवं ईन को क्रमशः सकारात्मक पुरुष और स्त्री सिद्धांत के रूप में देखा जाता है। कहते हैं कि इन दोनों शक्तियों का नियंत्रण ही अच्छे स्वास्थ्य के लिए जिम्मेदार है। चीन का एक्यूपंक्चर आज दुनिया भर में लोकप्रिय है।(8)
मिस्र की चिकित्सा पद्धति को भी सभ्यता की सबसे पुरानी चिकित्सा पद्धति माना जाता है। यह (2000 ई.पू) चिकित्सा मानती है कि पेट में हानिकारक पदार्थों के इकट्ठा होने से रक्त अशुद्ध हो जाता है और उससे पीव बनने की वजह से रोग उत्पन्न होते हैं।
इस चिकित्सा पद्धति में माना जाता है कि नब्ज़ ही ह्दय का प्रतिनिधि है। इस पद्धति में रोगों की चिकित्सा के लिए एनिमा, कैथेटर, रक्त बहाना एवं अनेक औषधियों का प्रयोग किया जाता था। उस दौर की सबसे प्रमाणिक पाण्डुलिपि एडविन स्मिथ पेपाइरस (3000-2500 ई.पू) एवं इबर्स पेपाइरस (1150 ई.पू) की मानी जाती है। कहा जाता है कि इस चिकित्सा पद्धति की काफी चिकित्सा विधियां जैसे कैथेटर, एनिमा आदि आज भी चिकित्सा कार्य के लिए प्रचलन में हैं।(9)
ग्रीक (यूनानी) चिकित्सा की बुनियादी मान्यता भी अहिंसा से प्रेरित रही है। 460-136 ई.पू. को यूनानी चिकित्सा का स्वर्णिम काल माना जाता है। इस चिकित्सा के चिन्तकों ने रोग में ‘‘क्या’’ और ‘‘क्यों’’ पर सोचने को प्रेरित किया था। एस्कयूलेपियस (1200 ई.पू) को यूनानी चिकित्सा का प्रारम्भिक नेता माना जाता है। कहते है कि इनकी दो बेटियां हाइजिया एवं पेनासिया क्रमशः स्वास्थ्य की देवी एवं उपचार की देवी मानी जाती थीं। आज भी आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में जन स्वास्थ्य चिकित्सा का आधार हाइजिया ही है। हाइजिया का अर्थ होता है रोग से बचाव। पेनासिया का मतलब होता है रोग का नाश यानि पूर्ण स्वास्थ्य।(10)
हिपोक्रेटस को यूनानी चिकित्सा का महान चिकित्सक माना जाता है। हिपोक्रेट्स (460-370 ई.पू) आधुनिक चिकित्सा के जनक कहे जाते हैं। इन्होंने रोगों का विश्लेषण एवं वर्गीकरण किया। ये चिकित्सा आचार संहिता के भी जनक माने जाते हैं। आज भी आधुनिक (एलोपैथिक) चिकित्सकों को ‘‘हिपोक्रेटस की प्रतिज्ञा’’ लेकर ही चिकित्सा आरम्भ करनी पड़ती है।
ईसा पूर्व की प्रथम शताब्दी में जब सभ्यता का केन्द्र रोम की तरफ खिसक रहा था तब रोम के लोगों ने यूनानी चिकित्सा के कई अच्छे पहलुओं को अपनाना शुरू कर दिया था। रोमन, यूनानी लोगों से ज्यादा व्यावहारिक थे। रोमन ने अपने लोगों के लिए साफ-सुथरे शहर और सड़क बनाए तथा पीने के साफ पानी का इन्तजाम किया। गन्दे पानी के निकास तथा घरेलू कचरे के निपटारे की व्यवस्था से रोमन ज्यादा सफाईपसन्द और स्वास्थ्य के प्रति समर्पित माने गए। रोमन चिकित्सा के मुख्य लोगों में गैलेन (130-205 ई) को रोम के तत्कालीन राजा मारकस एयूरीलियस का चिकित्सक होने का गौरव प्राप्त है। इस चिकित्सा की पद्धति भी यूनानी चिकित्सा पद्धति की ही तरह थी। यह भी अहिंसक चिकित्सा पद्धति मानी गई। बाद में रोम का साम्राज्य ढहने के बाद जो समय आया (उसे मध्यकाल कहते हैं) उसमें चिकित्सा महाविद्यालयों/स्कूलों की स्थापना हुई और रोगों से बचाव के प्रयास, अध्ययन और अनुसंधन शुरू हुए।(7)
आधुनिक चिकित्सा के एक और स्तम्भ माने जाने वाले पैरासेल्सस (1493-1541) के दौर में आधुनिक चिकित्सा का और विकास हुआ। इसी दौर में ब्रिटिश साम्राज्य अपने दायरे बढ़ा रहा था। इसी दौर में महामारी और महामारियों की उत्पत्ति, रोगों के एक दूसरे में फैलने के सिद्धांत ने लोकप्रियता हासिल की। 17वीं और 18वीं शताब्दी में हुए अनेक आविष्कारों से आधुनिक चिकित्सा और सर्जरी ने तेजी से विकास करना शुरू किया।
18वीं शताब्दी में जब होमियोपैथी का आविष्कार हुआ तब आधुनिक चिकित्सा का पूरी दुनिया में बोलबाला था। उस दौर के एक जाने माने एलोपैथिक चिकित्सक डॉ. सैमुएल हैनिमैन ने रोग विभाग के आधुनिक सिद्धांत को चुनौती देते हुए सदृश होमियोपैथिक चिकित्सा विधि की वकालत की। डा. हैनिमेन का दावा था कि होमियोपैथी विशुद्ध अहिंसक चिकित्सा विधि है जहां अहिंसा के सूक्ष्मतम पहलुओं को भी महत्व दिया जाता है। उपचार की विधि भी इतनी सरल और सुव्यवस्थित है कि शरीर के अन्दर उपस्थित रोग का निवारण भी अहिंसक तरीके से ही हो जाता है। होमियोपैथी के बारे में कहा जाता है कि ‘‘यह चिकित्सा की सबसे उच्चतम आदर्श पद्धति है जिससे बहुत जल्द, बिना कष्ट के और स्थायी रूप से स्वास्थ्य अवस्था प्राप्त हो जाती है, रोग सम्पूर्ण रूप से मिट जाता है तथा रोगी की किसी प्रकार हानि नहीं होती।’’
होमियोपैथी में चिकित्सा के औषध विज्ञान से भी ज्यादा महत्व होमियोपैथिक दर्शन को दिया गया है। एक भ्रम होमियोपैथी के बारे में यह फैला है कि इसमें दवाएं हिंसक होती हैं। वास्तव में वनस्पति, जन्तु, रसायन, ग्रहों आदि से प्राप्त होमियोपैथिक औषधियों की निर्माण विधि अहिंसक, वैज्ञानिक और तार्किक है।
भारत में प्राकृतिक चिकित्सा विधि अब प्रचलित हो रही है। यों तो प्राचीन काल से ही आयुर्विज्ञान के विकास के साथ प्राकृतिक चिकित्सा विधि भी बढ़ी लेकिन अब तो इसे एक स्वतंत्रा चिकित्सा विधि के रूप में देखा जा रहा है। कहते हैं कि 18वीं सदी में डा. जेम्स क्यूरी तथा सर जान फ्लावर ने जल चिकित्सा के बारे में पुस्तक प्रकाशित की थी।
19वीं शताब्दी के अन्त में सन् 1900 के बाद चिकित्सा में क्रांतिकारी बदलाव शुरू हुए। चिकित्सा में विशिष्टीकरण का आरम्भ हुआ। रोगों के प्रति तार्किक और वैचारिक सो़च को बढ़ावा मिला। रोगों की चिकित्सा के लिए हिंसक-अहिंसक विधियों/दवाओं का प्रयोग बढ़ा। आधुनिक चिकित्सा के विकास ने पारम्परिक और देसी चिकित्सा पद्धतियों को बेहद प्रभावित किया। औपनिवेशिक मानसिकता ने तथाकथित आधुनिक चिकित्सा को बढ़ाने में मदद की और लगभग सभी पारम्परिक चिकित्सा पद्धतियों, खासकर जो वैज्ञानिक तर्क पर खरी उतरती थीं, वो भी दोयम दर्जे की बना दी गईं।
प्राकृतिक चिकित्सा तो विशुद्ध अहिंसक चिकित्सा विधि है जिसमें प्रकृति के पंच महाभूतों को जीवन के निर्माण का मूलतत्व माना जाता है और धारणा है कि रोग के कारक जीवाणु नहीं शरीर में जमा विजातीय तत्व हैं। यदि विजातीय तत्वों को शरीर से निकाल दिया जाए तो रोग ठीक हो जाता है। यह भी माना जाता है कि प्रकृति स्वयं चिकित्सक है अतः शरीर में रोग को ठीक करने के लिए प्राकृतिक पंचमहाभूत ही पर्याप्त हैं।
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने आधुनिक चिकित्सा और चिकित्सकों की यातना को गम्भीर मान कर प्राकृतिक चिकित्सा की ही वकालत की। उन्होंने अपनी प्रम्मुख पुस्तिका ”कुदरती उपचार” की प्रस्तावना में ही लिखा, ‘‘डाक्टरों ने हमें जड़ से हिला दिया है। डाक्टरों से तो नीम-हकीम अच्छे…।’’ इसी में वे आगे लिखते हैं, ‘‘अस्पताल पाप की जड़ है। उसकी बदौलत लोग शरीर का जतन कम करते हैं और अनीति को बढ़ाते हैं।’’
प्राकृतिक चिकित्सा के साथ साथ एक्यूप्रेशर, योग, रंग चिकित्सा, रेकी, आदि चिकित्सा के नाम पर कई पद्धतियां धीरे-धीरे प्रचलित हो रही हैं। हालांकि इनका सिद्धांत अहिंसक है लेकिन इनकी वैज्ञानिकता पर अभी लोग कई सवाल खड़े करते हैं।
महात्मा गांधी एवं होमियोपैथी के आविष्कारक डा. हैनिमैन ने अपने तरीके से महत्व एवं सम्मोहन को विश्वास चिकित्सा के रूप में अनुभव किया है। इनके अनुसार रोगी के अन्दर ठीक होने की सकारात्मक भावना भी बेहतर उपचार में मदद करती है।
कहा जा सकता है कि भारत में प्रचलित चिकित्सा पद्धतियों में अधिकांश पारम्परिक एवं वैज्ञानिक चिकित्सा विधियां अहिंसा के सिद्धांतों पर खरी उतरती हैं। अहिंसा का व्यावहारिक रूप भारतीय समाज और व्यक्तियों को मूलतः प्रभावित करता है। ऐसे में अहिंसक चिकित्सा की विधियों का भविष्य उज्ज्वल है यदि इसमें वैज्ञानिक शोध और विकास की प्रक्रिया जारी रहती है।
सन्दर्भ
(1) चरक संहिता, प 120-3
(2) वही प, 2, 16
(3) वही, अप 5, 44, 63, 137-40
(4) प्राचीन भारत में विज्ञान और समाज, देवी प्र. चट्टोपाध्याय (पृ. 101), ग्रन्थशिल्पी, नई दिल्ली
(5) वही (पृष्ठ 111)
(6) भारतीय चिकित्सा एवं इतिहास पत्रिका (1957), भाटिया एस.एल. 2,70
(7) ग्रेट मोमेन्ट इन मेडिसिन, पाई डेविस (1961)
(8) जामा 218, 1558, डायमंड ई.जी. (1971)
(9) विश्व स्वास्थ्य, मई 1970, वि.स्वा.सं. (1970)
(10) प्रिवेन्टिव एण्ड सोशल मेडिसिन, पार्क के (1995)
डा. ए.के. अरुण राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त होमियोपैथिक चिकित्सक एवं जनस्वास्थ्य वैज्ञानिक हैं। सम्प्रति वे ‘युवा संवाद’ मासिक पत्रिका एवं Food, Nutrition & Health (English-Hindi) नामक द्वैमासिक पत्रिका का सम्पादन कर रहे हैं। पता हैः
डा. ए.के. अरुण, 167ए/जी.एच.2, पश्चिम विहार, नई दिल्ली-110063, भारत
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