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संजय कुमार सिंह
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पुलवामा आतंकवादी हमले के बाद मोदी सरकार ने टीवी चैनलों से कहा – ऐसी कवरेज मत करिए कि हिंसा भड़क उठे। पुलवामा में आतंकी हमले की कवरेज को लेकर सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने टेलीविजन चैनलों को दिशा-निर्देश जारी किए थे। मंत्रालय की ओर से जारी परामर्श में कहा गया, ‘‘हालिया आतंकवादी हमले को देखते हुए टीवी चैनलों को सलाह दी जाती है कि वे ऐसी किसी भी ऐसी सामग्री के प्रति सावधान रहें जो हिंसा को भड़का अथवा बढ़ावा दे सकती हैं अथवा जो कानून व्यवस्था को बनाने रखने के खिलाफ जाती हो या देश विरोधी रुख को बढ़ावा देती हो या फिर देश की अखंडता को प्रभावित करती हो.”मंत्रालय ने कहा कि सभी निजी चैनलों को इसका कड़ाई से पालन करने का अनुरोध किया जाता है।”
वैसे तो यह सलाह टेलीविजन चैनलों के लिए है लेकिन आज के अखबारों के शीर्षक पढ़ने लायक हैं।
40 जवानों की शहादत पर चेतावनी ….. न भूलेंगे ना माफ करेंगे; बदला लेंगे। प्रधानमंत्री मोदी का एलान … खून की बूंद-बूंद का हिसाब लेंगे, समय-जगह सेना खुद तय करेगी (दैनिक भास्कर)
अवंतीपोरा हमला – गम और गुस्से में देश, नम आंखों के बीच शहीगों को दी गई सलामी। आतंकवादियों को कीमत चुकानी होगी, सुरक्षा बलों को पूरी आजादी : मोदी, सीआरपीएफ प्रण …. ना भूलेंगे ना माफ करेंगे (राजस्थान पत्रिका) आतंकवाद के खिलाफ पूरा देश एकजुट हुआ, मोदी बोले – सेना वक्त, स्थान और कार्रवाई का तरीका चुने संकल्प : न भूलेंगे, न माफ करेंगे। (हिन्दुस्तान) कहां, कैसे, कब कार्रवाई … सेना को पूरी छूट, पुलवामा की भारी कीमत चुकानी होगी : मोदी, अस्थिरता पैदा करने की कोशिशें नहीं होंगी सफल (नवोदय टाइम्स) पीएम ने खुद संभाला मोर्चा – तीनों सेनाध्यक्षों के साथ की बैठक, सर्जिकल स्ट्राइक से लेकर सीमित युद्ध तक के विकल्प पर विचार , सुरक्षाबल दिन, समय स्थान खुद तय कर बदला लें : मोदी (दैनिक जागरण) पुलवामा : देश के आक्रोश को पीएम मोदी ने दी आवाज, न गुनहगार बचेंगे न सरपरस्त, सेना को खुली छूट … जगह, वक्त और तरीका वही तय करे (अमर उजाला) पूरा देश एक साथ, सेना को खुला हाथ – नवभारत टाइम्स।
मुझे नहीं लगता कि ये शीर्षक ऐसे हैं जो हिंसा भड़कने से रोकने वाले हैं। उल्टे किसी को पता नहीं चल रहा है कि क्या होने वाला है या क्या हो सकता है। इसमें हमलावरों पर जवाबी कार्रवाई शामिल है और ऐसे में वे (डर कर या बचने के लिए भी) हिंसक वारदात कर सकते हैं। एक तरफ यह कहना कि ऐसी कवरेज मत करिए कि हिंसा भड़क उठे और दूसरी ओर, प्रधानमंत्री का यह कहना, खून की बूंद-बूंद का हिसाब लेंगे, समय-जगह सेना खुद तय करेगी – क्या परस्पर विरोधी नहीं है। वैसे भी हिन्सा का जवाब हिन्सा नहीं हो सकता है और अगर देना हो तो उसका सार्वजनिक एलान निश्चित रूप से डराएगा पर डरे हुए लोग क्या हिन्सा नहीं करते?
अगर प्रधानमंत्री ने कहा भी तो क्या अखबारों का काम नहीं था कि वे संयम बरतते? खबर देते। आज एक बड़ी खबर को अपेक्षाकृत रूप से कम महत्व मिला है और वह है पाकिस्तान से मोस्ट फेवर्ड नेशनल का दर्जा वापस लिया जाना। द हिन्दू ने इसे लीड बनाया है और इसके साथ प्रधानमंत्री का बयान या एलान भी है पर जिस ढंग से पेश किया गया है उससे उसका असर काफी कम हो गया है। अंग्रेजी अखबारों में आमतौर पर यह संयम दिखाई देता है। हालांकि इंडियन एक्सप्रेस और टाइम्स ऑफ इंडिया इनमें अपवाद हैं। हिन्दुस्तान टाइम्स का शीर्षक है – शोक में भारत एकजुट। दि हिन्दू का शीर्षक है – जम्मू और कश्मीर में आतंकवादी हमले के एक दिन भारत ने पाकिस्तान का एमएफएन दर्जा खत्म किया। प्रधानमंत्री ने कहा कि सीआरपीएफ के काफिले पर हमला करने वालों को मुंहतोड़ जवाब दिया जाएगा।
इन सबके मुकाबले द टेलीग्राफ का शीर्षक सबसे अलग है – हमें अवश्य पूछना चाहिए और इसके नीचे दो खबरों के दो शीर्षक हैं। पहला कुछ गलत है : (मारे गए सैनिक की) पत्नी और दूसरा प्रधानमंत्री : भारत का खून खौल रहा है। यह प्रधानमंत्री के बयानों में सबसे सख्त है लेकिन इसकी प्रस्तुति देखिए। यहीं नहीं अखबार ने पांच सवाल पूछे हैं – कायदे से घटना के इतने समय बाद आज के अखबारों में इन सवालों का जवाब होना चाहिए था। पर सिर्फ खबरों का ख्याल रखने वालों को में इनकी चिन्ता नहीं दिखी। अखबार ने जो पांच सवाल उठाए हैं वो इस प्रकार हैं –
1. देश के सबसे सुरक्षित राजमार्ग पर 250 किलो से ज्यादा विस्फोटक कैसे पहुंच गए?
2. इतने बड़े आतंकवादी हमले के लिए महीनों की तैयारी की जरूरत होती है। क्या खुफिया नेटवर्क इतना कमजोर हो गया है कि वह सिर्फ रूटीन अलर्ट जारी कर पाया जो नजरअंदाज कर दिए गए।
3. सभी असैनिक वाहनों की जांच की जानी चाहिए। कैसे एक किशोर आत्मघाती हमलावर द्वारा चलाया जा रहा निजी वाहन, इतने भारी विस्फोटक के साथ बिना किसी शंका के 78 वाहनों के सीआरपीएफ के काफिले में घुस गया?
4. आतंकवादियों को कैसे पता चला कि कब और कहां इतना बड़ा हमला करना है पर सुरक्षा एजेंसियां अंधेरे में थीं?
5. वाहनों के इकट्ठा होने के लिए खराब मौसम को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। पर क्या यह इस बात के लिए पर्याप्त है कि 2500 सैनिकों को एक साथ इकट्ठा किया जाए और उच्च जोखिम वाला लक्ष्य पेश किया जाए? (द टेलीग्राफ) कोई देगा इनका जवाब? या कोई मांगेगा भी?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। जनसत्ता में रहते हुए लंबे समय तक सबकी ख़बर लेते रहे और सबको ख़बर देते रहे। )