सहारनपुर कवरेज ने मीडिया के ‘सवर्ण’ होने पर मुहर लगाई !

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सुरेश जोगेश

सहारनपुर कांड की कवरेज ने मीडिया, ख़ासकर हिंदी अख़बारों और चैनलों में पसरी दलित विरोधी मानसिकता की पोल खोल दी है। राजपूतों के हमलों को बेहद ‘सहजता’ से लेने वाला मीडिया अचानक भीम आर्मी को लेकर सतर्क हो गया है और उसकी ‘मानसकिता’ को नक्सलवादी बताते हुए  जाँच कराने की बात जोर शोर से कर रहा है।

सहारनपुर में ठाकुरों का संत रविदास जी व डॉ आंबेडकर की प्रतिमा को क्षतिग्रस्त करना, फिर झगड़ा करना और उसके बाद दलितों का घर जलाना, मीडिया के लिए आम बात होती, लेकिन सदियों से पीड़ित बहुजनों की सहनशीलता इस बार जवाब दे गई। हालाँकि उन्हें ‘धर्म’ के नाम पर हमेशा सहना सिखाया गया है, लेकिन  इस बार उन्होंने पलटवार कर दिया।

इस पलटवार के ‘महापाप’ से से पुलिस-प्रशासन ही नहीं मीडिया भी भड़क उठा। पुलिस के साथ नंगी तलवार लेकर ठाकुरों में ‘वीरता’ देखने वाले अख़बार संपादकों को अचानक भीम आर्मी के ग़ैरक़ानूनी होने और उसके नक्सली संबंधों का ख़्याल आ गया। उसका यह सवाल कभी नहीं रहा कि आखिर बहुजनों को सभा की इजाज़त ना देने वाला प्रशासन ठाकुरों को सभा कैसे करने देता है। कोई विधायक या मंत्री अस्पतालों में घायल पड़े दलितों को देखने तक क्यों नहीं गया, या उनके लिए किसी मुआवज़े का ऐलान क्यों नहीं किया गया-मीडिया यह सवाल नहीं पूछ रहा है।

प्रशासन की तत्परता ऐसी कि “भीम आर्मी” पर रासुका (National security act) लगा। 60 के करीब गिरफ्तारियाँ हुई। अखबारों के सारे सवाल सिर्फ़ “भीम आर्मी” के लिए थे। पलटवार के लिए भीम आर्मी कठघरे में हैं। पहले वार करने वाले और घर फूँकने वाले अब बरी हो चुके थे। यहाँ हिंदुस्तान अख़बार में  12 व 13 तारीख़ में छपी कुछ ख़बरें देखिए, ये चावल के दाने की तरह पूरे मीडिया के रुख़ बता देती हैं।

बहुजनों का पलटवार मीडिया के लिए नाकाबिले बर्दाश्त है। यह बताता है कि वह हमलावरों के साथ कंधा जोड़कर खड़ा है।

 

 

लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं।