एक सरोकारी पाठक का मीडियाविजिल के संपादकों के नाम शिकायती पत्र

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मीडियाविजिल को एक सरोकारी पाठक का शिकायती ख़त आया है। पाठक पेशे से पत्रकार हैं और उन्‍हें इस बात की शिकायत है कि इस वेबसाइट ने ”इस देश की भाजपा सरकार के खिलाफ जेहाद छेड़ रखा है”। उन्‍हें शिकायत है कि सनातन संस्‍था से जुड़ी एक ख़बर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का जिक्र क्‍यों किया गया अलबत्‍ता वे यह नहीं देखते कि संस्‍था ने खुद प्रधानमंत्री के न्‍योते का जि़क्र किया था जिसे केवल रिपोर्ट किया गया है। पाठक ने आजतक की एक ख़बर का लिंक भेजा है जिसमें उनका कहना है कि इसमें ”पत्रकारिता की हत्‍या की गई है”। किसी और मीडिया संस्‍थान की ख़बर का उल्‍लेख हमसे करने की मंशा यही है कि वे चाहते थे कि मीडियाविजिल इस मसले को उठाता, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इसके कई कारण हो सकते हैं। संपादकीय विवेक और स्‍वायत्‍ता एक चीज़ होती है और दूसरे, समय रहते किसी मसले को उठाने के लिए संसाधनों के अभाव का भी मामला है। बहरहाल, कायदे से पाठक को एक शिकायती पत्र आजतक के संपादक को भी भेजना चाहिए था। कमज़ोर की मलामत करना आसान है। इसी आवेग से कोई पाठक यदि कॉरपोरेट मीडिया की मलामत करे तो हालात ही सुधर जाएं। अंत में पाठक ने निष्‍कर्ष देते हुए कह दिया है कि मीडियाविजिल ”कूड़े” में योगदान दे रहा है।
मीडियाविजिल किसी राजनीतिक पार्टी का प्रवक्‍ता नहीं है, न ही सियासी जेहादी है। यह एक लोकतांत्रिक मंच है। यहां विविध विचारों का सम्‍मान है, लेकिन मूलत: यह वेबसाइट वैचारिक कम और तथ्‍यों पर ज्‍यादा केंद्रित होने की इच्‍छा रखती है। इस पत्र को छापने का एक मकसद केवल यह है कि पाठकों की प्रतिक्रियाओं को भी जगह मिले। अब तक इस साइट पर ऐसी कोई जगह अलग से नहीं है, इसलिए इसे हम खबर की तरह छाप रहे हैं। उम्‍मीद करें कि एक स्‍थायी स्‍तंभ पाठकों के लिए भी हम बना सकें। ढेर सारे निष्‍कर्षों के बावजूद थोड़ी-सी अपेक्षा से पगा यह पत्र पढ़ा जाना चाहिए। (संपादक) 

सेवा में,
संपादक, मीडियाविजल डॉट कॉम

जब मीडियाविजल डॉट कॉम शुरू हुआ था, तो बड़ी उम्मीदों और हसरतों से इसकी ओर देखा था। हालांकि, अब ऐसा नहीं है। वजह आपको मालूम है। आप भी उसी ‘सेलेक्टिव एमनेजिया’ के शिकार हो गए हैं, जिससे इस देश का हरेक तथाकथित बुद्धिजीवी पीड़ित है। आप इस बीच अपने वेबसाइट की ऊपर की छह ख़बरें देखिए, देखकर कोई भी कह देगा कि आपने इस देश की भाजपा सरकार के खिलाफ जेहाद छेड़ रखा है। वह कीजिए, आपका हक है, लेकिन ख़बरों की रवानी बनी रहने दीजिए, आपके लेखन की शुचिता बनी रहने दीजिए, जिसके हम मुरीद हैं।

भूमिका अगर बडी  हो गयी हो, तो माफ कीजिएगा। बात उस ख़बर की, जिसने मुझे यह ख़त लिखने को मजबूर कया। आपने ‘सनातन-संस्था’ के संदर्भ में ‘इंडियन एक्सप्रेस’ की गलतबयानी पर खबर तो की है, लेकिन कुछ इस अंदाज़ में कि खबर का रुख ही बदल दिया है। खबर सीधी सी यह है कि इंडियन एक्सप्रेस ने बिना किसी तथ्य और सबूत के हिंदू आतंकवाद के नाम पर सनातन-संस्था को लपेटे में लिया, जिसके बाद उसी की देखादेखी पांच-छह और नामचीन अखबारों, वेबसाइट्स ने भी ऐसा किया। एसआइटी के आइजी ने इस खबर का खंडन करते हुए कहा कि सनातन-संस्था या किसी भी लिप्त संगठन के नाम की जानकारी केवल मीडिया की है, यानी मीडिया ने हवा में ही तीर चला दिए। इस ख़बर के साथ हालांकि, आप क्या करते हैं…ज़रा अपनी चतुराई का नमूना देखिए, जो आप शुरुआत में ही करते हैं—

“मीडिया प्रतिष्‍ठानों और पत्रकारों के खिलाफ मानहानि के मुकदमों का मौसम अभी लंबा खिंचने वाला है। दक्षिणपंथी हिंदू संगठन सनातन संस्‍था ने शनिवार को कहा है कि गौरी लंकेश की हत्‍या के मामले में वह अंग्रेज़ी दैनिक इंडियन एक्‍सप्रेस और उसके उस रिपोर्टर के खिलाफ मुकदमा दर्ज करवाएगी जिसने ख़बर लिखी थी कि गौरी के हत्‍यारों का संबंध संस्‍था के साथ है।”यानी, ख़बर को आप शुरुआत से ही मानहानि के मुकदमे पर केंद्रित कर देते हैं, ताकि पाठक का ध्यान इस ओर कतई न जाए कि मामला तो दरअसल एक्सप्रेस और उस जैसी अन्य संस्थाओं द्वारा हिंदू-आतंकवाद की खोज और उस खोज के लिए गलतबयानी का है।

आप यहीं नहीं रुकते, बल्कि उस बयान को भी आप वामपंथी कार्यकर्त्री गौरी लंकेश की हत्या में आया एक दिलचस्प मोड़’बता देते हैं। इसके बाद भी आप बस नहीं करते। आपका पूरा आलेख, बल्कि यह निशानदेही करता प्रतीत होता है कि सनातन-संस्था ठीक उसी तरह मानहानि की ‘धमकी’दे रहा है, जैसे अमित शाह के बेटे जय शाह ने मानहानि का मुकदमा कर प्रेस का ‘मुंह बंद करना’चाहा है। यह पूरा आलेख इंडियन एक्सप्रेस और उसके बहाने बाक़ी संस्थानों की गलतबयानी पर चुप है।

अंत में तो खैर आप गजब ही ढा देते हैं। आप बड़ी चालाकी से अपने प्रिय खेल में लग जाते हैं, यानी किसी भी तरह प्रधानमंत्री (आपके शब्दों में प्रधानजी। इस शब्द से ही आपकी व्यक्ति-विशेष के प्रति हिकारत स्पष्ट होती है) को लपेटे में ले लेना। कोई ध्यान दे या नहीं, लेकिन अपनी खबर (?) के अंतिम पैरा तक पहुंचते हुए आप नरेंद्रभाई दामोदरदास मोदी की तरफ गेंद हौले से उछाल ही देते हैं। आप लिखते हैं, “अपने बचाव में और अपनी विश्‍वसनीयता के सबूत के तौर पर इस बीच संस्‍था ने यह भी जानकारी दे डाली है कि 2008 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यानी गुजरात के तत्‍कालीन मुख्‍यमंत्री ने आतंकवाद के खिलाफ जागरूकता फैलाने के लिए संस्‍था को अपने यहां आमंत्रित किया था।

महोदय। ज़रा यह बताइए कि इस पूरी ख़बर में तत्कालीन मुख्यमंत्री गुजरात, द्वारा निमंत्रण संबंधी ट्वीट के उल्लेख की क्या जरूरत थी और खबर की मुख्य बात, यानी पत्रकारिता की हत्या करते हुए एक्सप्रेस और बाकी समूहों द्वारा गलत ख़बर चलाए जाने पर षडयंत्रकारी चुप्पी के क्या मायने हैं? खैर, चुप तो आप तब भी रहे, जब रवीश ने गुजरात में मूंछ रखने पर दलित की पिटाई की झूठी खबर चलायी है। आपने उसकी भर्त्सना की थी क्या? मुझे याद नहीं। वैसे, फेक और पेड न्यूज चलाने के दर्जनों उदाहरण मेरे पास हैं, जब आपने चुप्पी साध ली है क्योंकि छपने वाली जगह वामपंथी रुझान की थी।

आपको अगर याद हो तो गोधरा दंगों पर जिस दिन अदालत का फैसला आया था, उसी दिन आज तक की वेबसाइट ने एक हास्यास्पद ख़बर की थी। उसका लिंक साथ में दे रहा हूः-

http://aajtak.intoday.in/…/gujarat-godhra-station-riot-saba…

इस ख़बर में भी देखिए कि किस तरह पत्रकारिता की हत्या की गयी है। यह ख़बर देखिए कि किस तरह  गोधरा का जिक्र धुंधला किया जा रहा है और कैसे लिखा जा रहा है कि आग में जलकर ‘कारसेवकों’ की मौत हो गई थी। इस खबर को बनाने वाले ने इतनी चालाकी बरती है कि लगता है गोधरा स्टेशन पर ट्रेन में खुद ही आग लग गयी थी और उस बोगी में बैठे लोग ही दोषी थे, मानो।

“पंद्रह साल पहले 27 फरवरी 2002 को गुजरात के गोधरा में 59 लोगों की आग में जलकर मौत हो गई. ये सभी ‘कारसेवक’ थे, जो अयोध्या से लौट रहे थे…….” । यह पूरा लेख ऐसे ही सरलीकरण से भरा था, मैंने आपको इसे देखने और इस पर लिखने का भी अनुरोध किया था। आपने आश्वासन दिया कि आप इसे ढंग से देखते हैं। आप आज तक उसे देख ही रहे हैं।

इतना ही नहीं, कई बार जब भी वामपंथी पत्रकार कहीं गलत जगह खड़े होते हैं, तो आप एक रहस्यमय चुप्पी साध लेते हैं, लेकिन दक्षिणपंथियों की छोटी सी चूक पर भी आप हिमालय खड़ा करने से नहीं चूकते। आपकी राजनीति और वैचारिक विरोध तो समझ में आता है, लेकिन यह समझ नहीं आता कि आप उस एक आपवादिक ‘पत्रकार’ का गला क्यों घोंट रहे हैं, जो खिंचे हुए पालों के इस दौर में बेहद विरल है?

आप कहें तो उन सबके लिंक भेज सकता हूं। अंत में यही अपील कि कूड़ा तो चारों तरफ बिखरा ही है, उसी में योगदान देने के लिए एक अलग साइट की क्या जरूरत?

धन्यवाद
व्यालोक