दीपांकर भट्टाचार्य
कोलकाता में (19-21 जनवरी, 2018) आयोजित कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी) की केंद्रीय समिति की बैठक की मीडिया रिपोर्टों से यह पता चलता है कि यह पार्टी प्रमुखतः अपने वर्तमान राजनीतिक मूल्यांकन और रणनीतिक स्थिति के मुद्दे पर बँटी हुई है। इन रिपोर्टों के अनुसार, पार्टी के महासचिव सीताराम येचुरी द्वारा प्रस्तुत राजनैतिक संकल्प (55 वोटों के मुकाबले 31 वोटों से) स्वीकार नहीं किया गया, और हैदराबाद में आगामी सीपीआई (एम) सम्मलेन में अब पूर्व महासचिव प्रकाश करात द्वारा मुहैया कराये गए मसौदे पर विवेचना करने और उसे अपनाए जाने की उम्मीद है। सीपीआई (एम) के अंदर ही,विभाजन को व्यापक रूप से ‘बंगाल श्रेणी’ और ‘केरल श्रेणी’ के संघर्ष के तौर पर देखा जा रहा है। सीपीआई (एम) के अलावा, विस्तृत प्रगतिशील उदारवादी क्षेत्रों के बीच, इसे अवसरवादी समूह और एक शुद्धतावादी अलगाववादी स्थिति के बीच संघर्ष, लोकप्रिय चुनावी राजनीति की बारीकियों को समझने वालों और मार्क्सवादी सिद्धांत की किताबी नकल से प्रेरित लोगों के बीच टकराव के रूप में देखा जा रहा है।
ये सीमांकन के बहुत ही ऊपरी और भ्रामक रेखायें हैं। केरल में सीपीआई (एम) चुनावी राजनीति की ऐसी ही कुशल अभ्यासी है, जैसी कि पश्चिम बंगाल में सीपीआई (एम) कभी हुआ करती थी। केरल, जहाँ कम्युनिस्ट सबसे पहले 1957में सत्ता में आए थे, और समय-समय पर हारने के बावजूद, वह 60 वर्षों के बाद भी सत्ता में हैं। यह पश्चिम बंगाल में सीपीआई (एम) के 34 वर्षो के शासनकाल के जैसा शानदार नहीं होगा, लेकिन पश्चिम बंगाल में सीपीआई (एम) का पतन भी कुछ कम भव्य नहीं रहा है। इसके विपरीत, केरल की स्थिर और दीर्घ गाथा निश्चित रूप से सीपीआई (एम) की पश्चिम बंगाल की कहानी से कम महत्वपूर्ण नहीं है। अतः, आइए, हम प्रयास करें और इन सतही रूढ़िवादियों से परे वास्तविक और गहरे राजनीतिक सवालों पर दृष्टि डालें।
यह बहस दरअस्ल है क्या
यह बहस मुख्य तौर पर दो विशेष मुद्दों के आस-पास घूमती है। सीपीआई(एम) को वर्तमान में नरेंद्र मोदी सरकार और संघ-बीजेपी के उन्माद के दौर की व्याख्या किस प्रकार से करनी चाहिए? और इस स्थिति में सीपीआई(एम) के चुनावी/राजनैतिक उपाय क्या होने चाहिए? येचुरी हमेशा तर्क देते हैं कि फ़ासीवाद हमारे सामने खड़ा है और वामपंथ को फ़ासीवाद से निपटने के लिए एक विशाल सेक्युलर गठबंधन बनाने की जरूरत है। दूसरी ओर करात ने तर्क दिया है कि हम जिसका सामना कर रहे हैं वह तानाशाही नहीं है बल्कि सांप्रदायिक अतिवाद है, और इस चुनौती का जवाब कांग्रेस के साथ गठबंधन बनाना नहीं है।
निसंदेह वाम-लिबरल समूहों के मध्य एक बड़ी सहमति है कि आज जो हम भारत में महसूस कर रहे हैं वह फ़ासीवाद से किसी भी तरह से कम नहीं है। भारत में फ़ासीवाद बढ़ रहा है यह कहने के लिए हमें बुर्जुआ लोकतंत्र के पूरी तरह से प्रभावी हो जाने और बंदी शिविरों, गैस चेंबरों और नरसंहार के भय के दुखद अनुभवों की सत्यता को भुगतने तक रूकने की जरूरत नहीं है। धर्म के नाम पर भीड़ का हत्या करना, सैकड़ों उन्मादी सेनाएँ, चरम ब्राह्मणवादी-पितृसत्तात्मक उन्माद, पहचान कर हत्याएँ करना और असहमति व्यक्त करने वालों और आम नागरिकों की गुप्त तौर पर “मौतें” और “अपहरण” इस बात के पर्याप्त सूचक हैं कि इनको अनदेखा करना हमारे लिए जोखिम भरा हो सकता है। सच यह है, भारत, जो पहले एक उपनिवेश रहा है वह अब साम्राज्यवादी संरक्षण के तहत वैश्विक शक्ति बनने के सपने देख रहा है, जबकि हिटलर के नेतृत्व वाली जर्मनी एक किनारे कर दी गई और ढहती हुई औपनिवेशिक शक्ति थी जो आंतरिक फ़ासीवाद के ज़रिए वैश्विक प्रभुत्व और नस्लीय ‘शुद्धता’ और ‘गर्व’ को पाने की कोशिश कर रही थी, जिसका प्रसार हुआ और उसका अंत एक विश्व युद्ध के रूप में हुआ। लेकिन इस तरह के अंतर से सेक्युलर भारत को एक हिंदू राष्ट्र में बदलने के संघ-बीजेपी के हिंदु श्रेष्ठता प्रोजेक्ट से आ रही फ़ासीवादी महक से किसी भी तरह से इंकार नहीं किया जा सकता है।
क्या मोदी सरकार केवल अडाणी-अंबानी ब्रांड की क्रोनी कैपिटलिज्म और निजीकरण व वैश्वीकरण की नीतियों को तेजी से विस्तार देने, साथ ही कुछ इनकी सहायक व्यवस्थाओं जैसे नोटबंदी, गुड्स और सर्विसेज टैक्स और आधार के लिए ही थी ? हम शायद इसे सामंती नव-उदारवाद वाली सरकार कह सकते थे। लेकिन इन सभी कामों में आरएसएस का लगातार बढ़ता प्रभाव वर्तमान सरकार को निश्चित रूप से फ़ासीवादी बनाता है। आरएसएस हमेशा से फ़ासीवादी योजना के साथ एक फ़ासीवादी संगठन रहा है, और अब चूँकि इसने राज्य की शक्ति पर नियंत्रणपूर्ण पकड़ हासिल कर ली है, यह उस स्थिति में हैं जहाँ से यह बहुत तेज गति से अपने संपूर्ण विचार को लागू कर सकता है। इसीलिए, संघ-बीजेपी की व्यवस्था को सत्ता से दूर रखना आवश्यक है और चुनावों में जो होता है वह ज़ाहिर तौर पर बहुत ही खास महत्व रखता है।
कांग्रेस और माकपा की यह परिकल्पित करीबी ही थी जिसने पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस के आगे बढ़ने का रास्ता साफ किया और भाजपा ने उसका पूरा समर्थन किया, जब अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के शुरुआती वर्षों में टीएमसी एनडीए का हिस्सा थी तब खुले तौर पर और जब वह एनडीए से अलग हो गई तब परोक्ष रूप से ताकि माकपा को सत्ता से बाहर किया जा सके। हालांकि उसके बाद भी माकपा ने 2006 में 80 फीसदी बहुमत हासिल कर लिया और उस स्थिति से उसकी गिरावट का कांग्रेस के साथ उसके समीकरण से कोई लेना-देना नहीं है।यह गिरावट शुरू हुई वाम मोर्चा सरकार के लीक छोड़ने से जिसकी सबसे स्पष्ट झलक मिलती है सिंगुर-नंदीग्राम-लालगढ़ प्रकरण में। इसके अलावा माकपा का नौकरशाही पर पूरी तरह निर्भर होते जाना, अफ़सरी अक्खड़ता से उसका एकाकार होते जाना और विभिन्न स्तरों पर पार्टी व सरकार का आम लोगों से विमुख होते जाना भी इसके लिए जिम्मेदार रहे। माकपा इस बुनियादी समस्या को समझने और संबोधित करने को तैयार नहीं और तृणमूल कांग्रेस को सत्ता में लाने का दोष आम जनता के सिर मढ़ते हुए आत्मतुष्ट है।
आज माकपा और कांग्रेस दोनों के लिए केरल बेहद अहम राज्य है। यह सर्वज्ञात है कि केरल में बीजेपी की चुनावी सफलताएं भले ही काफी सीमित रही हों, वहां आरएसएस का बड़ा मजबूत और व्यापक नेटवर्क है। केरल में माकपा-कांग्रेस गठबंधन वहां मुख्य विपक्षी ताकत के रूप में बीजेपी को आगे बढ़ने में मदद ही करेगा। त्रिपुरा में बीजेपी के लिए मुख्य विपक्षी ताकत के रूप में उभरने का रास्ता कांग्रेस खाली कर चुकी है। पश्चिम बंगाल में भले माकपा तृणमूल कांग्रेस को अपना मुख्य निशाना मानती हो और उसे बीजेपी के समान ही करार देती हो, फिलहाल बीजेपी और तृणमूल आमने-सामने हैं और आम धारणा के मुताबिक राज्य में तृणमूल कांग्रेस ही सबसे बड़ी बीजेपी विरोधी शक्ति है। अगर माकपा बीजेपी से मुकाबले के लिए एक व्यापक धर्मनिरपेक्ष गठबंधन की राह चुनती है तो उसे टीएमसी के जूनियर पार्टनर के रूप में खुद को देखने और स्वीकार करने की आदत डालनी होगी और इससे भी फायदा बीजेपी का ही होगा।
एक मजबूत और गतिशील वाम आज वक्त की जरूरत है। 2014 के बाद के राजनीतिक परिदृश्य का अनुभव बताता है कि भले ही कांग्रेस समेत तमाम राजनीतिक दल अक्सर भ्रमित और हताश नजर आए हों और विरोध की या आंदोलनों की पहलकदमी लेने से चूकते रहे हों, देश में बीजेपी को चुनौती देने वाले लोकप्रिय आंदोलनों की कमी नहीं रही है। इस प्रक्रिया में नई शक्तियां और नए चेहरे सामने आते रहे हैं। गुजरात विधानसभा के हालिया चुनाव जहां एक तरफ इन तथ्यों की पुष्टि करते हैं वहीं राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस में जान फूंकने के देर से शुरू किए गए प्रयासों की भी कथा सुनाते हैं। और सोमनाथ मंदिर से अपने चुनाव अभियान की शुरुआत (तथा चुनाव नतीजों की समीक्षा) करके कांग्रेस ने एक बार फिर बीजेपी को उसकी अपनी जानी पहचानी पिच – हिंदुत्व – पर चुनौती देने की प्रवृत्ति उजागर की। यह वही आत्मघाती प्रवृत्ति है जो बीजेपी को अपना एजेंडा और ज्यादा आक्रामक ढंग से तय करने में समर्थ बनाती है और कांग्रेस को विलंबित रक्षात्मक प्रतिक्रिया तक सीमित रखती है।
मगर भाजपा रातोंरात नहीं उभरी है; इसने पिछले तीन दशकों में निरंतर व जबरदस्त तरक्की की है। यह उस राजनीतिक खालीपन की वजह से संभव हुआ है जो उत्तरोत्तर सरकारों को बदनाम करके और भाजपा से निपटने में सत्तारूढ़ वर्गों की सभी किस्म की पार्टियों की जटिलता व आत्मसमर्पण की वजह से पैदा हुआ था। हालत यह है कि आज भाजपा के साथ काम करने व सत्ता साझा करने वाली पार्टियों की संख्या इससे लड़ने वालों की संख्या से ज्यादा है। संघ-भाजपा प्रतिष्ठान को प्रभावी ढंग से हराने, नंगा करने व अलग-थलग करने के लिए हमें एक मजबूत लोकतांत्रिक विषयवस्तु और बुनियाद वाले एक विश्वसनीय विकल्प की निश्चित रूप से आवश्यकता है। ऐसे विकल्प का निर्माण करने और उसे ऊर्जावान करने में एक गतिशील और जीवंत वामपंथ निश्चित रूप से एक अहम भूमिका निभा सकता है।
सच्चे विकल्प की तलाश
पार्टियों के साथ एक व्यापक धर्मनिरपेक्ष गठजोड़ का सीधा-सा फॉर्मूला आसानी से ‘सांप्रदायिक’ से ‘धर्मनिरपेक्ष’ शिविर में बदल जाता है और वापस महज धर्मनिरपेक्षता को ही बदनाम करता है (बिहार में नीतीश कुमार के जनता दल यूनाइटेड का उदाहरण सबसे उज्ज्वल है जोकि एकमात्र नहीं है) और भारत के किसी भी राज्य में भाजपा का कोई भी स्थिर विकल्प नहीं देता है। भाजपा की हार को जितना संभव हो उतने बड़े पैमाने पर सुनिश्चित करने या भाजपा को सत्ता से बाहर रखने के लिए किसी भी संभावित चुनावोत्तर प्रबंध के लिए कोशिश व काम करने के लिए चुनावी रणनीति तैयार करना एक बात है, मगर वाम कार्यनीतियों को विस्तृत धर्मनिरपेक्ष गठबंधन की भ्रामक सोच तक समेटना एक अलग मामला है और एक बेवजह की कवायद है, अगर पिछले तीन दशकों के अनुभव से हम थोड़ा-बहुत भी सीखते हैं तो।
कांग्रेस पर बहस वास्तव में सीपीआई(एम) के भीतर एक पलायनवादी बहस है। यूपीए-1 कार्यकाल के दौरान कांग्रेस के साथ अप्रत्यक्ष रूप से सत्ता साझा करने से लेकर पश्चिम बंगाल के पिछले विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के साथ सीटों का तालमेल बैठाने तक, सीपीआई(एम) के कांग्रेस के साथ सहयोग करने के विभिन्न तरीके व रूप रहे हैं जो खुले तौर पर कांग्रेस नेतृत्व वाले गठबंधन में शामिल होने जैसे थे। इसने भाजपा को (न महज राष्ट्रीय तौर पर बल्कि खासतौर से पश्चिम बंगाल में भी) बढ़ने से या सीपीआई(एम) को पश्चिम बंगाल से जमीन खोने से नहीं रोका (और इसे लागू करने से सीपीआई(एम) को अपनी संपूर्ण ताकत और कद में भी भारी तंगी का सामना करना पड़ रहा है)। यह ध्यान रखना दिलचस्प है कि फिलहाल सीपीआई(एम) कांग्रेस के साथ अपने संबंधों पर बहस कर रही है, मगर पहले यह तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) को एक संभावित सहयोगी के तौर पर साधने की ज्यादा इच्छुक रही है।
एक विशाल धर्मनिरपेक्ष गठबन्धन की मृगतृष्णा का पीछा करने के स्थान पर, वामपंथियों को ज़मीन पर शक्तिशाली संघर्ष तथा साहसी सामाजिक-सांस्कृतिक तथा विचारधारात्मक- राजनीतिक कार्यक्रम तथा पहल प्रारम्भ करने में अग्रणी रहना चाहिये। 2019 के अति महत्वपूर्ण वर्ष को ध्यान में रखते हुए, आनेवाले चुनावों की शृंखला में, प्रत्येक मुद्दे पर निष्ठापूर्ण हस्तक्षेप तथा लोकतन्त्र की रक्षा में संघर्षों के निर्माण व समर्थन में एकाग्रतापूर्ण प्रयास भाजपा को हराने में तुरुप का इक्का साबित होंगे। वामदल के रुझान और रणनीति का लक्ष्य अपनी ताकत बढ़ाने व उसका अधिकतम उपयोग करने तथा अपनी पहल तथा प्रभाव को अधिकतम करना होना चाहिये। येचुरी-करात विवाद वामदल के प्रयासों और दिशा की एक गलत तस्वीर सामने लाता है, जब बढ़ते फ़ासीवादी ख़तरे को मद्देनजर रखते हुए वामदल का एक शक्तिशाली तथा स्वतंत्र प्रदर्शन परम आवश्यक बन गया है। देश के विविध हिस्सों में वस्तुगत स्थितियों को ध्यान में रखते हुए भाजपा को हराने और वामपंथ को मज़बूत करने के केंद्रीय लक्ष्य के लिए उपयुक्त चुनावी रणनीति तलाशना, वामपंथ की ऐसी दावेदारी के साथ पूरी तरह सुसंगत है।
दीपांकर भट्टाचार्य भाकपा-माले, (लिबरेशन) के महासचिव हैं। यह लेख मूल रूप से अंग्रेज़ी में छपा, वेबसाइट ‘द वायर ‘में। अनुवाद हरिशंकर शाही का है। साभार प्रकाशित ।