इन दिनों कश्मीर की जेलों में बहार आई हुई है। बसंत ऋतु तो नहीं है, लेकिन जब दुनिया कोविड 19 के कड़वे ज़हर से उबरने में लगी है, भारत कश्मीरी पत्रकारों के ख़िलाफ़ मुक़दमें दायर कर रही है। बीते सोमवार जम्मू और कश्मीर पुलिस ने युवा पत्रकार मसरत ज़हरा के ख़िलाफ़ सोशल मीडिया पर “राष्ट्र-विरोधी” पोस्ट अपलोड करने के लिए यूएपीए के तहत मामला दर्ज किया, तो वहीं शाम होते-होते प्रतिष्ठित अख़बार ‘द हिन्दू’ के रिपोर्टर पीरज़ादा आशिक़ के ख़िलाफ़ भी तथ्यात्मक रूप से गलत खबर छापने का मुक़दमा ठोक दिया।
मसरत एक कश्मीरी महिला फोटो जर्नलिस्ट हैं, जिनका काम प्रतिष्ठित समाचार संगठनों द्वारा प्रकाशित किया गया है। उन पर लगाए गए गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) का मामला गंभीर है। फोटो खींचना और उसको सोशल मीडिया पर अपलोड करना कबसे गैरकानूनी हो गया? सोमवार को कश्मीर में साइबर पुलिस स्टेशन ने एक बयान जारी किया और कहा कि मसरत ज़हरा के “राष्ट्र-विरोधी” पोस्ट्स सार्वजनिक शांति के ख़िलाफ़ युवाओं को भड़का रहे हैं।
https://twitter.com/Masratzahra/status/1252534498807480326
इन कार्रवाइयों पर कश्मीर प्रेस क्लब ने प्रेस नोट जारी किया है और कहा है, “पत्रकारिता क्राइम नहीं है।” क्लब ने दुनियाभर के पत्रकारों और मीडिया से कहा कि वो “सब कश्मीरी पत्रकारों का साथ दें।”
ज्ञात हो कि भारत सरकार लगातार यह दावा करती आ रही है कि कश्मीर में सबकुछ “नॉर्मल” है। इन सब दावों के बीच मसरत अपने कैमरे की नज़र से सच को उजागर करती आईं हैं। साइबर पुलिस ने यह भी दावा किया कि ऐसी तस्वीरें अपलोड करना, “जनता को कानून और व्यवस्था को बिगाड़ने के लिए उकसा सकती हैं।”
मसरत तो वही दिखाती आ रही हैं जो सरकार या आर्मी कश्मीर में करती रही आ रही है। क्या ये फिर मान लिया जाए कि सरकार ज़ुल्म भी करे और ये भी चाहे कि कोई उसे देखे ना? इसे विडंबना ही समझा जाए कि पुलिस फेसबुक की तरह तस्वीर को कवर कर दे रही है? फ़र्क सिर्फ़ इतना है कि सरकार पत्रकारों को जेल में डाल दे रही है, जहां काल-कोठरी की दीवार कवर का काम करती है। सीधा मामला है, “न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी”.
सरकारी तंत्र की भाषा से ज्ञात होता है कि भारत उस इतिहास को जनता की निगाहों से भुला देना चाहता है, जो ये कहता है कि कश्मीर एक अधिकृत राष्ट्र है। साइबर पुलिस ने कहा कि ज़हरा “देश-विरोधी गतिविधियों का महिमामंडन” करती हैं और देश के ख़िलाफ़ असहमति पैदा करने के अलावा कानून लागू करने वाली एजेंसियों की छवि को खराब करती हैं।” सवाल ये है कि सरकार क्या किसी को भी “देश-विरोधी” घोषित करके जेल में डाल सकती हैं?
इतिहास के जानकार तो ऐसा भी कहते हैं कि “देश-विरोधी” गतिविधियों का आरोप कश्मीरियों पर लागू नहीं हो सकता, क्योंकि कश्मीरी भारत में विलय होने पर सहमत ही नहीं थे। नेहरू का वो भाषण भारतीयों की फिर सुनना चाहिए, जिसमें उन्होंने कहा था “हम जबरन की इकाई नहीं बनना चाहते।”
अब जबरन कानून एजेंसियां अगर भारत को कश्मीर पर थोपेगी, ये सरासर ज़ुल्म और नाइंसाफी होगी। ऐसे में “एजेंसियों की छवि को खराब’ करने वाली बात में कोई दम नहीं रह जाता। नाइंसाफी और ज़ुल्म का विरोध इंसानी फितरत है। भारत ने धारा 370 को हटाने और उसके बाद बातचीत के सारे संचार को बंद कर दिया। अभी भी कश्मीर 2G पर चल रहा है। कश्मीर में सरज़द हज़ारों ज़ुल्म की तस्वीरें हम तक नहीं पहुंचतीं। ऐसे में एक औरत घर समाज से लड़कर हाथों में कैमरा उठाती है, ताकि देश में होने वाले उत्पीड़न को वो ज़माने के सामने उजागर कर सके, पर सरकार उसको अंधेरी कोठरी में धकेल देती हैं।
ऐसी ही अंधेरी कोठरी में शायद पीरजादा आशिक़ को भी जाना पड़े। भारत में ‘द हिन्दू’ जैसे प्रतिष्ठत अख़बार में भी काम करने पर कश्मीरी को अगर कुछ मिलता है तो बस पुलिस की हिकारत, आर्मी की बूट, जेल का खाना. सरकार ऐसा दो कारणों से कर रही है। एक, वो भारत में जनता को ये बता सके कि संचार के माध्यम बंद करना सही फैसला है, और दो कि कश्मीर में सोशल मीडिया से मिलिटेंसी बढ़ रही है। इसकी आड़ में सरकार कश्मीरी ज़मीन भारतीयों के हाथों बेचना चाह रही है। हाल में कश्मीरी नेता सैयद अली शाह जीलानी ने एक ख़त लिखकर कहा, “भारत कश्मीर की डेमोग्राफी बदलना चाह रहा है।”
ज्ञात हो कि पहले भी कश्मीरी पत्रकार भारतीय स्टेट के निशाने पर रहे हैं और लगातार जेल में ठूंसे जाते रहे हैं। कश्मीरी पत्रिका ‘कश्मीर नैरेटर’ में पत्रकार रहे आसिफ़ सुल्तान कई साल से जेल में हैं। अंतरराष्ट्रीय जगत ने हर बार उनकी गिरफ़्तारी को नजायज़ बताया है। इससे पहले जुनैद दार को यूएपीए के तहत हिरासत में लिया था। हाल ही में पीरज़ादा आशिक़ से पूछताछ भी की गयी थी। वहीं, कश्मीर ऑब्ज़रवर के पत्रकार मुश्ताक अहमद को पीट दिया गया था।
सोशल मीडिया पर मसरत ज़हरा के पक्ष में दुनिया भर से आवाजें उठने लगी हैं। TRT के पत्रकार बाबा उमर ने लिखा, “ज़हरा, प्रोत्साहन और वाहवाही की हकदार है और उसे वही मिलना चाहिए।
Journalist @Masratzahra has been documenting lives in Kashmir conflict for the last four years.
She deserves encouragement and accolades, not silencing #IstandwithMasratZahra #Journalismisnotacrime pic.twitter.com/VktB0JOATH
— Baba Umar (@BabaUmarr) April 20, 2020
इंडियन एक्सप्रेस के वरिष्ठ पत्रकार मुज़म्मिल जलील ने लिखा, “ज़हरा पर यूएपीए लगाना क्रूरतापूर्ण है। हम अपने सहकर्मी के ऊपर लगे चार्जेज़ हटाने की मांग करते हैं।”
Masarat Zahra, a professional photojournalist, has honestly told stories of Kashmir in 4-year career. Invoking UAPA is outrageous. In solidarity with our colleague, we demand FIR withdrawn. Journalism isn’t crime. Intimidation/ censorship won’t silence Kashmir’s journalists.
— Muzamil Jaleel (@MuzamilJALEEL) April 20, 2020
नेटवर्क फॉर वूमेन इन इंडिया ने भी एक नोट लिखा और मसरत की तस्वीरें “ज़मीनी हकीकत, गहरी संवेदना और सटीक रिपोर्ट करने की अगुवाई करती हैं।” उनके अलावा हज़ारों लोग ट्विटर और फेसबुक पर लिख रहे हैं कि पत्रकारिता ख़तरे में है, ऐसा चल रहा है लॉकडाउन, कश्मीर को पूर्णतः जेल बना दिया है और इस जेल में बहार तो बिल्कुल नहीं है.
ऐसे में गोरख पांडे की कविता पढ़ना लाजमी है.
“हज़ार साल पुराना है उनका गुस्सा
हज़ार साल पुरानी है उनकी नफरत
मैं तो सिर्फ़
उनके बिखरे हुए शब्दों को
लय और तुक के साथ
लौटा रहा हूँ
मगर तुम्हें डर है कि
आग भड़का रहा हूँ”
यह लेख युवा पत्रकार आमिर मलिक ने लिखा है. लेख में प्रस्तुत विचार लेखक के अपने हैं.